कर्नाटक चुनाव में नंदिनी बनाम अमूल के अलावा हिन्दी को भी मुद्दा बनाया जा रहा है। वरिष्ठ पत्रकार मधुरेंद्र सिन्हा का कहना है कि वहां कांग्रेस के पास कोई मुद्दा नहीं है इसलिए वो हिन्दी विरोध को मुद्दा बना रही है। हालांकि यह उनका अपना विचार है। कर्नाटक चुनाव में फिलहाल नंदिनी बनाम अमूल अभी भी बड़ा मुद्दा है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का बजट 2023 भारतीय मध्यम वर्ग को खुश नहीं कर पाया। अर्थ विशेषज्ञ मधुरेंद्र सिन्हा बजट पर बारीक नजर रखे हुए थे। आज उन्होंने उसे समझाने और समझने की कोशिश की है।
भारत के सिलिकॉन वैली बेंगलुरु में साल भर में सड़कों पर 321 दोपहिया चालकों की मौत कैसे हो गई? आख़िर विकास के दावे कहाँ हैं? जानिए, शहर के हालात क्या हैं।
भारी क़र्ज़ तले दबीं राज्य सरकारें आख़िर पुरानी पेंशन योजना को फिर से लागू क्यों कर रही हैं? हज़ारों करोड़ का और बोझ पड़ने से क्या राज्य कंगाल होने की स्थिति में नहीं पहुँचेंगे?
देश में लक्ष्य से ज़्यादा टैक्स वसूली का फायदा किसे मिलेगा? क्या जनता के उस वर्ग को राहत मिलेगी जिसने तमाम बाधाओं को पार करते हुए देश में खपत को बढ़ावा दिया?
दिल्ली नगर निगम के चुनाव में अरविंद केजरीवाल बीजेपी के खिलाफ आक्रामक नहीं रहे और उनका अधिकतर वक्त गुजरात में चुनाव प्रचार करते हुए बीता। ऐसा क्यों हुआ?
आम आदमी पार्टी आक्रामक प्रचार अभियान में जुटी है तो क्या वह नरेंद्र मोदी और अमित शाह के गृह राज्य में बीजेपी को चुनौती दे पाएगी? बीजेपी को टक्कर देती रही कांग्रेस की कैसी है स्थिति? जानिए गुजरात में क्या हैं राजनीतिक समीकरण।
अमेरिका, ब्रिटेन, चीन सहित दुनिया भर में आर्थिक हालात बेहद ख़राब होने के संकेत मिल रहे हैं तो क्या भारत इससे बच बाएगा? यदि भारत को इससे मुकाबला करना है तो इसे क्या करने की ज़रूरत है?
चुनाव के दौरान मुफ्तखोरी के दावे करके तमाम राजनीतिक दल देश को गलत दिशा में ले जा रहे हैं। इससे देश की तरक्की के रास्ते बंद नहीं होंगे, बल्कि बंद होंगे। आम आदमी पार्टी के संयोजक ने इसे सफलता का शॉर्टकट फॉर्म्युला मान लिया है, लेकिन वो गलतफहमी में हैं।
अर्थव्यवस्था का आईना समझा जाने वाला शेयर बाज़ार इस समय छलांगें लगा रहा है जबकि जीडीपी की दर माइनस में जा रही है। ऐसी मंदी कभी देखी नहीं गई थी और 2021 में भी इसके सुधरने के आसार कम ही हैं।
इन दिनों जब आप वाट्सऐप चैट खोलेंगे तो एक पॉप-अप आएगा जिसमें आपको कुछ शर्तें बताई जाएँगी और उन्हें मानने के लिए कहा जाएगा। अगर आप नहीं मानते हैं तो आपकी सर्विस 8 फ़रवरी से समाप्त।
आज किसानों के आंदोलन के समय भी एक तबक़ा तीन कृषि क़ानूनों का विरोध महज़ इस आधार पर कर रहा है कि इससे कॉर्पोरेट घरानों की ज़ेबें भरेंगी और किसान कंगाल हो जायेगा। कृषि क़ानून में कई ख़ामियाँ हैं।
नए कृषि क़ानूनों से क्या कृषि क्षेत्र में कार्पोरेट का बोलबाला हो जाएगा, कांट्रैक्ट खेती होने लगेगी और किसानों के हितों को भारी धक्का लगेगा? क्या सारा लाभ बड़ी-बड़ी कंपनियाँ ले जाएँगी और किसान तथा छोटे व्यापारी देखते रह जाएँगे?