जब भी कोई बड़ा आंदोलन होता है तो उसमें तमाम तरह की झूठी-सच्ची बातें जुड़ जाती हैं और कई बार तो उसकी दिशा ही बदल जाती है। इस बार किसान आंदोलन के दौरान भी ऐसा ही हो रहा है और कई ऐसी बातें कही जा रही हैं जो पहले से सामान्य रूप से ही मौजूद नहीं हैं बल्कि पूरी शिद्दत से मौजूद हैं। लेकिन उन्हें हौवा बनाकर पेश किया जा रहा है जैसे कि कोई अप्रत्याशित सी भयानक बात होने जा रही हो।
ऐसा ही कुछ इस समय कहा जा रहा है कि नए कृषि क़ानूनों से कृषि क्षेत्र में कार्पोरेट का बोलबाला हो जाएगा, कांट्रैक्ट खेती होने लगेगी और किसानों के हितों को भारी धक्का लगेगा। सारा लाभ बड़ी-बड़ी कंपनियाँ ले जाएँगी और किसान तथा छोटे व्यापारी देखते रह जाएँगे। लेकिन यह झूठ का पुलिंदा है और सच यह है कि कृषि क्षेत्र में कार्पोरेट का वर्चस्व बेहद पुराना है और इनमें मल्टी-नेशनल कंपनियाँ भी शामिल हैं।
जब देश में 1991 के बाद उदारीकरण का दौर आया तो विदेशी कंपनियों की नज़र हमारे कृषि क्षेत्र पर पड़ी तो वे खींचे चले आने लगे। दरअसल, अमेरिका की तरह यहाँ भी कृषि का औद्योगीकरण होने लगा। 1991 में वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ़ की सलाह पर यहाँ कृषि क्षेत्र में कई बदलाव किए जाने लगे और बीजों की सप्लाई बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियाँ करने लगीं। आज जिस पंजाब में किसान आंदोलन पर उतर आए हैं वहाँ अमेरिका की बड़ी कंपनी, जो जेनेटिक इंज़ीनियरिंग से बीज तैयार कर रही थी, कॉटन के बीज और रसायन लेकर उतरी। दावा था कि इससे उपज दुगनी-तिगुनी हो जाएगी। इसके लिए उन्होंने ज़बर्दस्त तरीक़े से विज्ञापनों का सहारा लिया और उससे भी बड़ी बात यह रही कि धर्म का भी सहारा लिया। गुरु नानक की तसवीरों वाले पैकेटों में ये बीज बेचे जाने लगे। नतीजतन महज छह वर्षों में वहाँ 17 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर अनाज की बजाय कपास की खेती होने लगी।
इसका तात्कालिक फ़ायदा तो दिखा लेकिन बाद में इसके दुष्परिणाम दिखने लगे। इन बीजों से तैयार फ़सल को बचाने के लिए बड़े पैमाने पर पेस्टिसाइडों का इस्तेमाल करना होता था जो यह कंपनी ही बनाती थी। कुछ ऐसा ही वारांगल में हुआ और फ़सल ख़राब होने पर सैकड़ों किसान वही ज़हरीला पेस्टिसाइड पीकर मर गए।
मशहूर पर्यावरणविद और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की जानकार वंदना शिवा ने अपनी किताब स्टोलेन हार्वेस्ट में लिखा है कि ज़्यादा से ज़्यादा नकदी फ़सलों को उगाने के दबाव में पंजाब के अलावा महाराष्ट्र, आंन्ध्र, एमपी, तमिलनाडु वगैरह ने बड़े पैमाने पर खेती योग्य ज़मीन प्राइवेट कंपनियों को औने-पौने भाव में लीज कर दी।
इससे छोटी-छोटी इकाइयाँ बंद हो गईं और किसानों को भी स्पर्धा का सामना करना पड़ा। इसी तरह एक्सपोर्ट के लिए झींगे की खेती के लिए तमिलनाडु, आन्ध्र वगैरह में कंपनियों को खेती की ज़मीन दे दी गई जिससे लाखों एकड़ खेती योग्य ज़मीन बर्बाद हो गई। कई तरह के रोज़गार भी नष्ट हो गए।
कार्पोरेट के क़दम
इसी तरह कई विदेशी कंपनियाँ भारत में अपने पैर ज़माने के लिये प्रयास करती रहीं और कई जम गईं और कई उखड़ गईं। लेकिन इस सदी की शुरुआत में परिदृश्य बदलने लगा। एमएनसी के साथ-साथ भारतीय कंपनियाँ भी कृषि क्षेत्र में संगठित तरीक़े से आने लगीं। अपनी बेहतर समझ, टेक्नोलॉजी और पूंजी की बदौलत उन्होंने अपने पैर अच्छी तरह जमा लिये। उनका मॉडल सीधा-सादा है। वे बेहतर उत्पादों की तलाश में रहती हैं और किसानों को उचित पैसे देकर उपज खरीद लेती हैं। उसके बाद उन्हें पैकेजिंग करके बाज़ार में उतार देती हैं।
उदारीकरण के बाद का दौर
दरअसल, उदारीकरण के बाद देश के शहरों में आबादी तेज़ी से बढ़ी और महिलाएँ बड़े पैमाने पर काम पर जाने लगीं। इससे देश में खाद्य उत्पादों जैसे रेडीमेड आटा वगैरह की माँग बढ़ती चली गई। इन कंपनियों ने अनाजों की सफ़ाई और पैकेजिंग के लिए बड़े-बड़े प्लांट भी लगाए। वे देश के हर हिस्से से कृषि उपज मसाले वगैरह मंगाकर पैकेजिंग के ज़रिये बेचने लगे। आज देश में आटा बनाने तथा पैकेजिंग करके बेचने वाली शीर्ष पाँच कंपनियों में चार मल्टी नेशनल कंपनियाँ हैं। इनके नाम हैं आईटीसी (आशीर्वाद) , कारगिल (नेचर फ्रेश), जनरल मिल्स इंडिया (पिल्सबरी) और यूनिलीवर (अन्नपूर्णा)। यह अन्नपूर्णा वही आटा है जिसके टीवी विज्ञापन में दिखाया जाता है कि गेहूँ उपजाने वाला किसान भी अन्नपूर्णा आटा खाता है! पैकेजिंग आटा के खेल में बाबा रामदेव भी शामिल हैं और उनका पतंजलि ब्रांड काफ़ी मज़बूत है। गेहूँ के बाज़ार पर कमोबेश इनका ही कब्जा है।
चावल-दाल में बड़ी कंपनियों का बोलबाला
लेकिन जिस कंपनी ने सबसे बड़ी छलांग लगाई है वह है टाटा कंज्यूमर्स प्रॉडक्ट्स जो लगभग हर क्षेत्र में है। इसका टाटा संपन्न ब्रांड पैकेज्ड दालों का देश का सबसे बड़ा विक्रेता है। सिर्फ़ दस वर्षों में इसका कुल क़ारोबार लगभग 6,000 करोड़ रुपए का हो गया है। भारत के दालों का बाज़ार लगभग 500 करोड़ रुपए का है। और इसमें महिन्द्रा एग्री सॉल्यूशंस, अडानी, राजधानी सहित कई बड़ी-बड़ी कंपनियाँ हैं। ज़ाहिर है कि यह कहना फिजूल है कि कॉर्पोरेट आ जाएँगे और किसानों को खा जाएँगे।
इसी तरह चावल के धंधे में बड़ी-बड़ी कंपनियाँ पहले से काम कर रही हैं। ज़्यादातर बासमती चावल के धंधे में हैं जिसमें उन्हें मोटा लाभ होता है। इस धंधे में भी एमएनसी आईटीसी का दबदबा है और यह कंपनी मकई के क्षेत्र में भी क़ारोबार करती है।
उसके अलावा अडानी विल्मर भी एक बड़ी कंपनी है जो इस क्षेत्र में अपने ब्रांड फॉर्चून को मज़बूत करती जा रही है।
इस क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी केआरबीएल है तो भारतीय लेकिन उसमें विदेशी निवेश भी है। इसके ब्रांड इंडिया गेट की उपस्थिति पूरे भारत में है। यह कंपनी डेढ़ लाख एकड़ में कांट्रैक्ट फार्मिंग भी करवाती है। बाबा की कंपनी पतंजलि ने भी चावल के बाज़ार में अपनी पैठ बना ली है। इनके अलावा कोहिनूर तथा एलटी फूड्स हैं जो दावत के नाम से चावल बेचते हैं और इनका इस साल क़ारोबार 2,000 करोड़ रुपए का है। लाल क़िला और लाल महल भी बड़ी कंपनियाँ हैं जो इस क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाए बैठी हैं।
अडानी विल्मर खाद्य तेलों में आगे
लेकिन अडानी विल्मर एक ऐसी कंपनी है जो खाद्य तेलों के धंधे में सबसे आगे है। खुले तेल का ज़माना चला गया और उसके ख़िलाफ़ क़ानून बने हुए हैं इसलिए कार्पोरेट के लिए इसमें क़दम ज़माना आसान हो गया।
अडानी विल्मर का सालाना क़ारोबार 2018-19 में 28,000 करोड़ रुपए का था और इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कंपनी ने कितनी तरक्की की है। तेल के खेल में बाबा रामदेव की कंपनी भी आगे है और वह सरसों तेल के बाज़ार में अपने पतंजलि ब्रांड से जाने जाते हैं।
उदारीकरण के साथ आई थी कांट्रैक्ट फार्मिंग
जो लोग कांट्रैक्ट खेती के आसन्न ख़तरों की बात करते हैं उन्हें शायद पता नहीं है कि अमेरिकी विशालकाय कंपनी पेप्सीको ने भारत में इसकी बक़ायदा शुरुआत की और वह भी वहाँ जहाँ आज आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा है, यानी कि पंजाब में। 1989 में कोल्ड ड्रिंक बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी पेप्सीको इंडिया ने अपने चिप्स लेज के लिए संगरूर ज़िले में अपना प्लांट लगाया था और आलू के परिष्कृत या यूँ कहें कि जेनेटिकली इंजिनियर्ड बीज किसानों को कांट्रैक्ट फार्मिंग के लिए दिया। इसके बाद उन्होंने न केवल पंजाब के कई ज़िलों और गुजरात तथा कुछ अन्य राज्यों में अपने आलू जो पेटेंट था, किसानों को देकर उनकी फ़सल खरीदने का काम करना शुरू किया। किसानों को यह स्कीम पसंद आई क्योंकि इसमें पैसे की गारंटी थी और फ़सल ख़राब भी हो जाए तो कोई नुक़सान नहीं।
लेकिन इसमें एक बड़ा पेंच था कि किसान उन बीजों से अपने लिए खेती नहीं कर सकते थे और इसके लिए क़ानूनी प्रावधान थे। और जब कई किसानों ने स्वतंत्र रूप से उन बीजों से खेती करनी चाही तो उन्हें करोड़ों रुपए के मुआवजे के नोटिस पकड़ा दिए गए। बाद में जनता के भारी विरोध के बाद कंपनी ने मुक़दमे वापस लिये।
ज़ाहिर है कांट्रैक्ट फार्मिंग की जो दहशत फैलाई जा रही है उसमें कोई दम नहीं है क्योंकि यह नया नहीं है। यह लोगों को मालूम नहीं है कि पंजाब में टमाटर कभी नहीं उपजता था और पेप्सीको ने ही कांट्रैक्ट के तहत इसके बीज बाँटे थे। इतना ही नहीं, पेप्सीको ने पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही बासमती चावल के बीज बाँटे थे और कांट्रैक्ट फार्मिंग करवाया था। तो ये कहानियाँ कि इन क़ानूनों से देश में कांट्रैक्ट खेती लागू हो जाएगी, सरासर झूठ है। यह पहले से चल रहा है और इसकी शुरुआत पंजाब से ही हुई है।
बादल घराने की खेती
किसानों के इस आंदोलन में जो सबसे बड़ा खिलाड़ी है वह है बादल परिवार। सुखबीर सिंह बादल ने अपने चुनावी हलफनामे में बताया कि उनके पास 59 करोड़ रुपए की ज़मीन है। लेकिन उनके पूरे परिवार के पास हज़ारों एकड़ ज़मीन है जो पंजाब ही नहीं उत्तराखंड में भी है। कृषि क़ारोबार में उनकी कंपनियाँ बड़े पैमाने पर काम करती हैं लेकिन सामने नहीं दिखतीं।
कृषि बिलों का विरोध करते हुए सुखबीर सिंह बादल ने कहा था कि पूरे पंजाब को मंडी घोषित कर दिया जाए। इसके पीछे उनका मक़सद यह नहीं जो दिखता है। दरअसल, इससे उनके कृषि उत्पादों को बेचने की ताक़त बढ़ जाएगी और बड़ी कंपनियाँ किसानों के पास न जाकर सीधे उनकी कंपनियों के पास आएँगी। इसलिए ही वे बिलों की मुख़ालफ़त कर रहे हैं। आरोप है कि बादल परिवार की एक कंपनी किसानों से गेहूँ खरीदकर ठीक एक आढ़तिये की तरह एफ़सीआई को बेचती है।
ज़ाहिर है इस आंदोलन में कई बातें ऐसी हैं जो ऊपर से नहीं दिखती हैं लेकिन स्वार्थी तत्वों की मंशा बताती हैं।
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