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अब कर्नाटक चुनाव में भी हिन्दी का हौवा

कर्नाटक विधान सभा के चुनाव आ चले हैं और वहां जबर्दस्त वाक्युद्ध हो रहा है। विपक्ष जिसमें कांग्रेस ज्यादा मुखर है, कई तरह के मुद्दे उठा रहा है। राज्य में अमूल डेयरी से लेकर हिन्दी थोपने के आरोप तक लगाये जा रहे हैं। बहुत सारे मुद्दों पर कांग्रेस और जेडीएस मिलकर भाजपा पर आक्रमण कर रहे हैं। हर दिन हमले तीखे होते जा रहे हैं। कांग्रेस को लग रहा है कि वह फिर से सत्ता में आ सकती है क्योंकि राज्य में राहुल गांधी लंबे समय तक दौरे पर रहे और अच्छी भीड़ भी उनके साथ रही। इसलिए पूर्व मुख्य मंत्री सिद्धारमैया विश्वास जता रहे हैं कि उनकी पार्टी पांच साल के बाद इस बार फिर सत्ता में लौटेगी। 

नतीजतन वह ज्यादा हमलावर हो रहे हैं और ऐसे मुद्दे भी उठा रहे हैं जिनका कोई मतलब नहीं है। सिद्धारमैया का मकसद है कि स्थानीय नागरिकों और बाहरी लोगों के बीच खाई पैदा कर राज्य के कई इलाकों में वोट बटोरे जाएं। 

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अमूल बनाम नन्दिनी दूध

इस बार कर्नाटक में विपक्ष को यह समझ में नहीं आ रहा है कि भाजपा के हिन्दुत्व कार्ड की क्या काट हो। इसलिए न केवल सिद्धारमैया बल्कि जेडीएस प्रमुख कुमारस्वामी भी लोगों को विभाजित करने के मुद्दे ज़ोर-शोर से उठा रहे हैं। इसका एक बड़ा उदाहरण है राज्य में गुजरात डेयरी के दुग्ध उत्पाद मार्केटिंग कंपनी अमूल को प्रवेश करने से रोकना। इसके लिए बहाना यह बनाया गया कि इस कंपनी के आने से कर्नाटक डेयरी के नन्दिनी ब्रांड को धक्का लगेगा और दुग्ध उत्पादकों को नुकसान होगा। यह मामला काफी तूल पकड़ गया है और बंगलुरू शहर में होटल-रेस्तरां एसोसिएशन ने साफ मना कर दिया है कि वे अमूल ब्रांड के दुग्ध उत्पाद नहीं खरीदेंगे। 

लोगों को विभाजित करने के लिए दोनों ही विपक्षी नेताओं ने गुजरात का मुद्दा उठाया है। उनका कहना है कि यहां गुजरात हावी हो रहा है और उसे रोकने की जरूरत है। इस मुद्दे को बढ़ाकर इसे चुनावी मुद्दा बनाया जा रहा है।

दरअसल यह कहानी उस समय शुरू हुई जब अमित शाह ने कर्नाटक में कहा कि नन्दिनी को अमूल का साथ लेना चाहिए ताकि वह टेक्नोलॉजी और मार्केटिंग में बेहतर हो सके। लेकिन विपक्ष इसे ले उड़ा। उसकी कोशिश है कि राज्य भर में फैले 30 लाख दुग्ध उत्पादकों को अपने पाले में ले ले। दूसरी ओर राज्य के कोऑपरेशन मंत्री एसटी सोमशेखर ने स्पष्ट किया कि नन्दिनी न केवल एक बहुत मजबूत ब्रांड है बल्कि उसकी जड़ें गहरी हैं। उसे किसी की मदद की जरूरत नहीं है। दिलचस्प बात है कि जहां नन्दिनी ब्रांड का दूध महज 39 रुपये लीटर बिकता है वहीं अमूल का दूध ऑनलाइन में 57 रुपये प्रति लीटर बिकता है।  

हिन्दी के खिलाफ विष वमनः सिद्धारमैया एक आरोप लगा रहे हैं। उनका आरोप है कि कन्नड़ की उपेक्षा करके हिन्दी को बढ़ाया जा रहा है। यह आरोप जो तमिलनाडु के राजनीतिज्ञ अपने स्वार्थों के लिए हमेशा से लगाते रहे हैं, कुछ समय से यहां भी दिख रहा है और इस बार चुनाव में सामने लाया जा रहा है। इरादा वही है कि इसके सहारे भाजपा पर चोट की जाए। इसके पहले भी कई संगठन हिन्दी के प्रसार पर विरोध व्यक्त करते दिखाई दिये हैं। जब वहां मेट्रो रेल का उद्घाटन हो रहा था तो ऐसे तत्वों ने मेट्रों के स्टेशनों पर हिन्दी में नाम पट्टिकाएं लगाने पर विरोध जाहिर किया था जिस कारण उन नाम पट्टिकाओं पर कागज चिपका दिये गये थे ताकि मामला तूल न पकड़े।
कर्नाटक में भाषा का मुद्दा पहले भी उठा है। वहां मराठी और कई बार तमिल विरोधी मुद्दे उठाये जाते रहे हैं। हिन्दी का मुद्दा बेंगलुरू में ज्यादा उठाया जाता है क्योंकि वहां की विशाल आईटी इंडस्ट्री में हिन्दी भाषी या नार्थ इंडिया से नौजवान बड़े पैमाने पर आते रहते हैं। इससे वहां हिन्दी हर जगह सुनाई पड़ती है। कुछ साल पहले तक तो ऑटो रिक्शा चालक या टैक्सी वाले भी उन पर क्षेत्रीय आरोप लगा देते थे। लेकिन अब उनकी संख्या में जबर्दस्त बढ़ोतरी हो चुकी है। 
बेंगलुरू में हिन्दी भाषी बड़ी संख्या में बस गये हैं। उनके खर्च करने की आदत ने वहां के बिज़नेस को बहुत बढ़ावा दिया है इसलिए मामला उतना गरम नहीं हो पाया जैसा विघ्नसंतोषी तत्व चाहते थे। लेकिन अभी चुनाव का माहौल है और विपक्ष भाजपा को नीचा दिखाने के और स्थानीय लोगों की सहानुभूति बटोरने के लिए कुछ भी कर सकता है। ऐसे में हिन्दी थोपने की बात करके सिद्धारमैया स्कोर करना चाहते हैं।
वह जानते हैं कि उन्होंने पांच वर्षों के अपने कार्य काल में राज्य के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया। यहां तक कि मेट्रो रेल के विस्तार में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसलिए वहां उन्हें सोतारमैया के नाम से पुकारा जाने लगा था। लेकिन कहते हैं न पब्लिक मेमरी शॉर्ट होती है। लोग शायद यह भूलकर उनके उछाले हुए बेकार से मुद्दों पर फिदा हो जाये। राजनीति में कुछ भी संभव है। वरिष्ठ पत्रकार राजीव रघुनाथ कहते हैं कि विपक्ष के पास मुद्दे नहीं हैं और वे कुछ ज्यादा बोल ही नहीं सकते। दोनों ही बड़े विपक्षी नेता मुख्य मंत्री रह चुके हैं और उनके पास दिखाने के लिए कोई स्कोर कार्ड नहीं है। इसलिए वे ऐसे मुद्दे उठा रहे हैं जो चुनाव में चल सकें। उनके पास सिर्फ बातें ही बातें हैं। 

वह आगे कहते हैं कि कर्नाटक में बहुत क्षमता है। यह राज्य कृषि, खदान, उद्योग, हॉस्पिटैलिटी इंडस्ट्री, आईटी हर फील्ड में आगे है। इसे और उठाने की कोशिश की जानी चाहिए लेकिन हमारे राजनीतिज्ञों को हल्की राजनीति से फुर्सत नहीं है। इस चुनाव में भी हमें कोई भविष्य नहीं दिखता। राजीव की चिंता यह है कि इस चुनाव में कोई पार्टी एकदम आगे नहीं दिखती। ऐसा लगता है कि त्रिशंकु सरकार बनेगी जिससे राज्य की प्रगति फिर रुक जायेगी। भाजपा सरकार से लोगों को बहुत उम्मीदें थीं लेकिन वे पूरी नहीं हुईं।
चुनाव तक कर्नाटक में हिन्दी का मामला उठता रहेगा। इससे वहां के हिन्दी भाषी थोड़े सतर्क हो गये हैं। उन्हें थोड़ी चिंता भी होती है। वे बेसब्री से चुनाव होने का इंतज़ार भी कर रहे हैं ताकि मामला शांत हो और व्यर्थ का भाषाई विवाद न खड़ा हो। 

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मधुरेंद्र सिन्हा
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