इन दिनों हर किसी की ज़ुबान पर एक ही सवाल है कि किसान आन्दोलन का नतीज़ा क्या निकलेगा? सवाल बिल्कुल सटीक और समसामयिक है। कौतूहल स्वाभाविक और सार्वजनिक है। हालाँकि, इसका जवाब आसान नहीं।
अपनी सरकार में अपराध होने पर सत्ताधारी दल चुप रहता है लेकिन यही दल विपक्ष में होने पर ऐसे मुद्दों पर हंगामा खड़ा कर देता है। राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी कब तय होगी?
शिरोमणि अकाली दल ने कहा है कि मौजूदा एनडीए वाजपेयी-आडवाणी के ज़माने वाला नहीं है। क्या इसका इशारा बीजेपी के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ एजेंडे की तरफ़ नहीं है? क्या बीजेपी का असली लक्ष्य ‘विपक्ष विहीन भारत’ बनाना ही है?
भारत में सरकारी शिक्षा, स्वास्थ्य, दूरसंचार और उड्डयन क्षेत्र के डूबने का भरपूर उदाहरण हमारे सामने है। सरकारी क्षेत्र में कमियाँ होती हैं, लेकिन प्राइवेट के आने से पहले और बाद में इन्हें और बढ़ाया जाता है।
प्रधानमंत्री की ओर से 13 अगस्त 2020 को देश को समर्पित नये फ़ेसलेस इनकम टैक्स सिस्टम से क्या वाक़ई देश में क्रान्तिकारी बदलाव के नये युग की शुरुआत हो जाएगी?
सेना और विदेश मंत्रालय ने दावा किया था कि कोई भी जवान ‘लापता’ नहीं है लेकिन चीन द्वारा दस भारतीय जवानों को रिहा करने के बाद दोनों की किरकिरी हो रही है।
कोरोना संकट की आड़ में जैसे श्रम क़ानूनों को लुगदी बनाया गया, क्या वैसा ही सलूक अब न्यायपालिका के साथ भी होगा? फिर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता क्यों कह रहे हैं कि देश के 19 हाईकोर्ट के ज़रिये ‘कुछ लोग समानान्तर सरकार’ चला रहे हैं?
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण क्यों कहने लगीं कि प्रवासी मज़दूरों से सम्बन्धित कोई आँकड़ा देश में है क्या? वह कहती हैं कि बग़ैर आँकड़ों के सरकार ये कैसे तय कर सकती है कि उसे किन-किन लोगों तक मदद पहुँचानी है?
भारतीय इतिहास के इस सबसे बड़े संकट से सरकार कैसे निपट रही है, क्या यह जवाबदेही संसद को नहीं तय करनी चाहिए? सरकार से जबाब-तलब करने वाला प्रश्नकाल आख़िर क्यों ख़ामोश है?
ग़रीब हो या अमीर, जब जनता 20 लाख करोड़ रुपये के सुहाने पैकेज वाले झुनझुने की झंकार सुनने को बेताब हो तब तीन दिनों से राहत कम और भाषण ज़्यादा बरस रहा है।