भारत में बीते दो महीने से कोरोना से जूझने के लिए जो कुछ भी हो रहा है, उस पर सिर्फ़ नौकरशाही और सरकार की नज़र है।
कोरोना संकट को परखने के लिए हमारी संसद अभी तक आगे नहीं आयी है। जबकि इसी दौरान दुनिया भर के सौ से ज़्यादा देशों की संसद ने अपनी आवाम की तकलीफ़ों को लेकर अपनी-अपनी सरकारों के कामकाज का हिसाब लिया है। लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग की पाबन्दियों को देखते हुए ऐसे संसद सत्रों को सीमित सांसदों की मौजूदगी और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग वाली तकनीक का सहारा लेकर ‘वर्चुअल पार्लियामेंट्री सेशन’ की तरह ही आयोजित किया गया।
लॉकडाउन के बावजूद न्यायपालिका, ख़ासकर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट, यदि आंशिक रूप से सक्रिय रह सकते हैं, तो संसद क्यों नहीं? चन्द रोज़ पहले कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने अपने ट्वीट में ब्रिटिश संसद का हवाला देते हुए कहा था कि यदि वहाँ संसद का ‘वर्चुअल सेशन’ बुलाया जा सकता है तो भारत में क्यों नहीं?
इंटरनेशनल पार्लियामेंट्री यूनियन (IPU) दुनिया भर के देशों की संसदों के बीच संवाद क़ायम करने का एक माध्यम है। इसकी वेबसाइट पर छोटे-बड़े तमाम देशों की संसदों की ओर से कोरोना महामारी के दौरान हुई या होने वाली गतिविधियों का ब्यौरा है। लेकिन वहाँ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी भारत की संसद से जुड़ा कोई ब्यौरा नहीं है।
भारतीय इतिहास के इस सबसे बड़े संकट से सरकार कैसे निपट रही है, क्या यह जवाबदेही संसद को नहीं तय करनी चाहिए? सरकार से जबाब-तलब करने वाला प्रश्नकाल आख़िर क्यों ख़ामोश है?
संसद की तीन प्रमुख भूमिकाएँ हैं। पहला, इसकी विधायी शक्तियाँ। इससे इसे नये क़ानून बनाने का अधिकार मिलता है। दूसरा, कार्यकारी शक्तियाँ। इससे कार्यपालिका और सरकार की जबाबदेही सुनिश्चित की जाती है। और तीसरा, सर्वोच्च राजनीतिक मंच। इसके ज़रिये सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की चर्चा और बहस के रूप में समीक्षा की जाती है और सरकार के पक्ष या विरोध में जनमत तैयार किया जाता है। सामान्य दिनों में तीनों भूमिकाओं में से ‘सर्वोच्च राजनीतिक मंच’ को प्राथमिकता मिलती है क्योंकि इस भूमिका में विपक्ष सबसे ज़्यादा सक्रिय होता है।
इसीलिए राजनीतिक विमर्श के दौरान संसद में शोर-शराबा और स्थगन वग़ैरह होता है। सरकार सिर्फ़ इन्हें लेकर ही चिन्तित होती है वर्ना कार्यकारी शक्तियाँ तो हमेशा सरकार की मुट्ठी में रहती है। विधायी शक्तियों को लेकर भी सरकार के माथे पर शिक़न नहीं पड़ती क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध बहुमत या दलगत शक्ति या पक्ष-विपक्ष के संख्या बल से होता है। संसद के निष्क्रिय रहने की वजह से सरकार निरंकुश हो जाती है।
जैसा, पिछले दिनों एक-एक करके छह राज्यों ने धड़ाधड़ एलान कर दिया कि वो श्रम क़ानूनों को तीन साल के लिए स्थगित कर रहे हैं। इनमें बीजेपी और कांग्रेस शासित दोनों तरह के राज्य हैं। संविधान की समवर्ती सूची वाले इन विषयों पर संसद की ओर से बनाये गये क़ानूनों को स्थगित करने का कोई अधिकार राज्यों के पास नहीं है। इसके बावजूद, सारी मर्यादाओं को ताक़ पर रखकर कोरोना आपदा की आड़ में राज्यों ने संवैधानिक लक्ष्मण रेखाएँ पार कर लीं और कोई चूँ तक नहीं कर सका। हालाँकि, यह मामला सीधे-सीधे संवैधानिक राज के भंग होने का है।
इसी तरह, प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री दोनों ने मिलकर जिस 21 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज और आर्थिक सुधार का एलान किया उसके लिए संसद की मंज़ूरी लेना बहुत ज़रूरी है। सरकार को पता है कि संसद में उसके पास संख्या बल की कोई चुनौती नहीं है इसीलिए संसद की मंज़ूरी को लेकर वो बेफ़िक्र है। वैसे, इसमें कोई बुराई भी नहीं है। हालाँकि, संविधान साफ़ कहता है कि लोकसभा की मंज़ूरी के बग़ैर सरकारी ख़ज़ाने का एक रुपया भी ख़र्च नहीं किया जा सकता। बजट पारित होने से सरकार को यही मंज़ूरी मिल जाती है। इसीलिए अभी कोई नहीं जानता कि 21 लाख करोड़ रुपये के पैकेज में से जो 2 लाख करोड़ रुपये असली राहत पर ख़र्च हुए हैं, वो 23 मार्च को पारित हुए मौजूदा बजटीय ख़र्चों के अलावा हैं अथवा इसे अन्य मदों के ख़र्चों में कटौती करके बनाया जाएगा।
कुल मिलाकर, यदि लॉकडाउन में ढील देकर सरकारी दफ़्तरों को खोला जा सकता है, ट्रेनें चलायी जा सकती हैं, विमान उड़ान भर सकते हैं, तो अपेक्षित एहतियात रखते हुए संसद का सत्र क्यों नहीं बुलाया जा सकता?
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