मोदी सरकार ने जिस ढंग से आधी रात को पेट्रोल-डीज़ल की क़ीमतों में ज़बरदस्त बढ़ोतरी की, उससे दो बातें साबित होती हैं। पहला, भले ही सरकार ने कभी मन्दी की बात को स्वीकार नहीं किया, लेकिन यह हक़ीक़त है कि कोरोना संकट से पहले ही भारत की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से चरमरा चुकी थी। इतनी ज़्यादा कि लॉकडाउन के 40-50 दिनों का झटका भी झेलने की हालत में नहीं रही। दूसरा, ग़रीबों के लिए जहाँ कोरोना काल बनकर आया, वहीं अपनी अदूरदर्शी आर्थिक नीतियों से सरकार और उसका चहेता सम्पन्न वर्ग अब भारतीय मध्य वर्ग का कचूमर बनाने पर आमादा है।
वर्ना, क्या सरकार को इतनी मामूली सी बात भी नहीं पता कि पेट्रोल-डीज़ल के दाम आसमान छूने से सबसे ज़्यादा असर मध्य वर्ग पर ही पड़ेगा, क्योंकि यही तबक़ा इसकी सबसे अधिक ख़पत करता है। मध्यम वर्ग पर ही आर्थिक मन्दी और बेरोज़गारी की सबसे तगड़ी मार पड़ी है। वेतन कटौती की सबसे भयंकर गाज़ भी इसी तबक़े के सिर पर गिरी है। अगर सरकार आर्थिक तंगी में है तो क्या देश के मध्य वर्ग, किसान-कामगार और दिहाड़ी मज़दूर ऐसा ख़ुशहाल है कि उस पर कुछ भी बोझ डाल दिया जाए! क्या सरकार नहीं जानती कि देश के 90 फ़ीसदी लोगों की गुज़र-बसर असंगठित क्षेत्र और दिहाड़ी मज़दूरों के रूप में ही होती है। मध्यम वर्ग भी इसी का हिस्सा है।
दरअसल, अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र और दिहाड़ी मज़दूरों वाले तबक़े का वही मतलब है जो शरीर में कोशिकाओं का है। कोशिकाओं को ख़ून से पोषण मिलता है। स्वस्थ ख़ून के लिए सन्तुलित भोजन और सही पाचन तंत्र का होना ज़रूरी है। तभी उस ताक़तवार ख़ून का उत्पादन होगा, जिसे दिल हरेक कोशिका तक पहुँचाकर पूरे शरीर को तन्दुरुस्त रखता है। इसीलिए कोरोना संकट की वजह से तबाह असंगठित क्षेत्र और दिहाड़ी मज़दूरों की परवाह किये बग़ैर चरमरा चुकी भारतीय अर्थव्यवस्था के दिन नहीं फिरने वाले। यह तबक़ा जितना और जितनी देरी तक बदहाल रहेगा, भारत की दुर्दशा का दौर उतना ही लम्बा खिंचता रहेगा।
देश के कई इलाक़ों से जैसे-जैसे लॉकडाउन में ढील दिये जाने की ख़बरें आने लगीं वैसे ही ये ख़बरें भी आ रही हैं कि मज़दूर नदारद हैं। यानी, अर्थव्यवस्था के पहिये को घुमाने वाले असंगठित क्षेत्र के मज़दूर अब नहीं मिल रहे हैं। साफ़ है कि निकट भविष्य में अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के आसार नहीं हैं।
अब मज़दूर अपने गाँवों में लौटकर तब तक अपनी दुर्दशा का सामना करेंगे जब तक कि उनके फिर से शहरों में पलायन के हालात नहीं बन जाएँ। ज़ाहिर है, गाँवों की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था उनका बोझ उठाने में जब कोरोना से पहले सक्षम नहीं थी तो अब कहाँ से हो जाएगी?
ग़रीब मज़दूरों के लिए गाँवों में रोज़ी-रोटी की गुँज़ाइश होती तो बेचारे शहरों की ओर पलायन ही क्यों करते? गाँवों में पहले भी या तो मज़दूरी की गुँज़ाइश नहीं थी, या फिर मज़दूरी इतनी कम थी कि ग़ुजारा मुश्किल था। लिहाज़ा, अब जब अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है तो मज़दूरी और नीचे ही गिरेगी। अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि कोरोना ने देश के 12 करोड़ लोगों को वापस ग़रीबी रेखा के नीचे धकेल दिया है। अब इस अतिरिक्त आबादी में भी कुपोषण, अशिक्षा और सेहत सम्बन्धी तकलीफ़ें बढ़ेंगी। यह संकट देश की उस 60 फ़ीसदी आबादी को अपने आगोश में लेगा जिसे हम असंगठित क्षेत्र के कामगारों और दिहाड़ी मज़दूरों के रूप में देखते हैं।
सबसे ज़्यादा ग़रीबों पर असर
अर्थव्यवस्था में माँग के कमज़ोर पड़ने का सबसे भारी असर ग़रीबों पर ही पड़ता है। क्योंकि मध्य वर्ग की जब आमदनी घटने लगती है या जब उस पर बेरोज़गारी की मार तगड़ी होती है, तब वो अपनी बचत के सहारे ही दिन काटता है। ऐसे कठिन दिनों में वह कम से कम ख़र्च करना चाहता है। इससे माँग ज़ोर नहीं पकड़ती। इससे सप्लाई साइड पर उत्पादन को नहीं बढ़ाने या घटाने का दबाब पड़ता है। क्षमता से कम उत्पादन होने पर लागत बढ़ जाती है। इसीलिए चीज़ें सस्ती नहीं होतीं। उधर, कम से कम ख़र्च करने की मजबूरी में लोग नये सामान की ख़रीदारी टालते रहते हैं और कम से कम में गुज़ारा करने की कोशिश करते हैं। ऐसे चक्र की वजह से असंगठित क्षेत्र और दिहाड़ी मज़दूरों की दशा और बदतर होने लगती है।
संकट की ऐसी घड़ी में सरकार और बैंकों का सहारा होता है। लेकिन ये दोनों भी तभी मदद कर सकते हैं जब इनका ख़ुद का हाल अच्छा हो। आमदनी गिरने से बचत गिरती है और बचत गिरने से निवेश गिरता है। उधर, सरकार राजस्व के लिए तरसती है तो टैक्स बढ़ाने लगती है।
पेट्रोल-डीज़ल जैसी ज़रूरी चीज़ के अतिशय महँगा होने से महँगाई उछलने लगती है। महँगाई बढ़ने और आमदनी के लगातार कम होते जाने से मध्य वर्ग पर अपने ख़र्चों को और घटाने का दबाव बनता है। इससे उत्पादन और धीमा होता है।
उधर, बैंक उन निवेशकों के लिए तरसते हैं जो उनसे कर्ज़ लें और अर्थव्यवस्था के पहिए में रफ़्तार डालने के लिए आगे आएँ। लेकिन निवेशक तो पहले से ही माँग के गिरने और लागत बढ़ने से कराह रहा होता है। कष्ट के ऐसे दौर में रिश्वतख़ोर और बेईमान नौकरशाही और बेरहम हो जाती है। इसीलिए निवेशक नया जोख़िम उठाने से और डरते हैं। यही आर्थिक मन्दी का कुचक्र है।
मन्दी से उबरने का बस एक ही टिकाऊ तरीक़ा है कि सम्पन्न वर्ग अपनी कमाई या सम्पत्ति को अपने कर्मचारियों के बीच बाँटने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा आगे आये।
जब तक यह तबक़ा अपने मुनाफ़े को अपने कर्मचारियों में बाँटने के लिए आगे नहीं आएगा, तब तक न तो बैंक सुधर पाएँगे, ना सरकार का राजस्व और ना ही ग़रीबों की दुर्दशा।
अभी कोरोना की आड़ में मुट्ठी भर कम्पनियों ने एलान किया कि वे अपने कर्मचारियों की तनख़्वाह नहीं काटेंगी। लेकिन दूसरी ओर, कितने ही बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों ने अपने कर्मचारियों के वेतन में कटौती करने का रास्ता थाम लिया। ऐसी कटौतियाँ करने वाले उद्यमी ना तो अपने बिज़नेस का भला कर रहे हैं और न ही कष्ट उठाकर, दबाब झेलकर, तनाव को बर्दाश्त करके देश की ही सेवा कर रहे हैं। इन्हें सिर्फ़ अपनी सम्पत्ति और सम्पन्नता का ख़्याल है। संकट काल में भी ऐसे सम्पन्न लोगों को अपने ही उन कर्मचारियों, मज़दूरों तथा इनके परिवारों की कोई परवाह नहीं है, जिनके पुरुषार्थ से ही ये सम्पन्न होते रहे हैं।
ज़्यादा टैक्स लगाने से क्या होगा?
दिलचस्प बात यह है कि इन सम्पन्न लोगों पर भारी से भारी टैक्स लगाकर भी न तो समाज में बदलाव लाया जा सकता है और ना ही अर्थव्यवस्था में गति लायी जा सकती है। क्योंकि ज़्यादा टैक्स से सिर्फ़ सरकारी लूट और भ्रष्टाचार बढ़ता है। सरकार का राजस्व तो तभी बढ़ता है जब टैक्स की दर कम से कम या इतनी नहीं हो कि वह लोगों को चुभने लगे। टैक्स-दर के ऊँचा होते ही लोगों में इसकी चोरी की प्रवृत्ति बढ़ती है। इससे टैक्स-संग्रह गिरता है। लिहाज़ा, सरकार तभी कल्याणकारी योजनाओं पर ज़्यादा खर्च कर पाएगी जब टैक्स की दरें कम हों, महँगाई कम हो, आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ें और इनकी बढ़ोतरी से कुल टैक्स-संग्रह बढ़े। इसीलिए अर्थव्यवस्थाएँ ज्यों ज्यों उन्नत होती हैं, त्यों-त्यों ऐसे आर्थिक सुधार अपनाती हैं जो आर्थिक गतिविधियाँ को और बढ़ा सके। इसी से विकास दर बढ़ती है।
अब सवाल यह है कि सम्पन्न लोग कैसे समाज में अपनी सम्पत्ति का ज़्यादा बँटवारा करें? कैसे अमीर-ग़रीब के बीच की खाई को पाटने के काम पर आगे बढ़ा जाए? इसका पहला तरीक़ा तो यह है कि ये उन लोगों को यथासम्भव उदारतापूर्वक मज़दूरी दें जो उनके लिए काम करते हैं। इससे न सिर्फ़ कामगारों की आमदनी बेहतर होगी, बल्कि देखते ही देखते बहुत कुछ बेहतर होने लगेगा। दूसरा तरीक़ा है कि सम्पन्न लोग अपनी सम्पत्ति का ख़ासा हिस्सा समाज में स्कूल, अस्पताल, मज़दूर बस्तियाँ वग़ैरह बनवाने पर ख़र्च करें। कमज़ोर तबक़े के होनहार छात्रों को वज़ीफ़ा वग़ैरह देकर प्रोत्साहित करें। उन तमाम गतिविधियों पर धर्मार्थ ख़र्च करने के लिए आगे आयें जिसका लाभ परोक्ष रूप से कमज़ोर तबक़ों को मिले। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
हफ़्तों से चर्चा है कि अर्थव्यवस्था में जान फूँकने के लिए सरकार कुछ पैकेज देने की तैयारी कर रही है। लेकिन सही मायने में भारत में ग़रीबों की विकराल आबादी को देखते हुए बड़े से बड़े पैकेज से भी फ़ौरी राहत के सिवाय और कुछ भी हासिल नहीं होगा। क्योंकि आख़िर सरकार भी पैकेज के लिए रक़म कहाँ से लाएगी? आर्थिक मन्दी के बाद कोरोना संकट की वजह से राजस्व-संग्रह ध्वस्त हो चुका है।
सरकार के पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं। बाक़ी विकास तो भूल ही जाइए। ख़ज़ाना खाली है। बैंक पहले से ही बदहाल हैं। तो फिर विकल्प क्या हैं? नये नोट छापिए या क़र्ज़ लीजिए या सरकारी सम्पत्ति बेचिए।
नये रुपये छापने से रुपये की क़ीमत गिरती है। महँगाई बढ़ती है। इससे ग़रीब और बदहाल होता है। मन्दी आती है। क़र्ज़ लेना विकल्प है, लेकिन ऐसे दौर में जब अमीर देश भी आर्थिक बदहाली से ही गुज़र रहे हों तब क़र्ज़ देने वाले भी मुश्किल से मिलते हैं। क़र्ज़ की अर्थव्यवस्था भी तभी ठीक है, जब आपके पास उसकी किस्तें भरने के लिए आमदनी या राजस्व हो। वर्ना, यदि आपको पाकिस्तान की तरह क़र्ज़ चुकाने के लिए भी क़र्ज़ लेना पड़े तो आप गर्त में डूबते जाएँगे। सरकारी सम्पत्तियाँ या कम्पनियों को बेचने का विकल्प भारी राजनीतिक क़ीमत माँगता है। इससे पूँजीपतियों को भारी फ़ायदा होता है। सरकार की बहुत बदनामी होती है। इस विकल्प की भी सबसे बड़ी ख़ामी यह है कि आप लम्बे समय तक सरकारी सम्पत्तियाँ बेचकर सरकारी ख़र्चों की भरपाई नहीं कर सकते।
आख़िरकार, आपके पास अर्थव्यवस्था में नयी जान फूँकने के अलावा कोई टिकाऊ विकल्प नहीं होता। इसीलिए, दुआ कीजिए कि भारत के सम्पन्न वर्ग को सदबुद्धि आये, वह दूरदर्शिता से काम ले और राजनीतिक नेतृत्व उसे ग़रीबों के प्रति उदारता दिखाने के लिए प्रेरित करे।
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