मोदी सरकार ने जिस ढंग से आधी रात को पेट्रोल-डीज़ल की क़ीमतों में ज़बरदस्त बढ़ोतरी की, उससे दो बातें साबित होती हैं। पहला, भले ही सरकार ने कभी मन्दी की बात को स्वीकार नहीं किया, लेकिन यह हक़ीक़त है कि कोरोना संकट से पहले ही भारत की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से चरमरा चुकी थी। इतनी ज़्यादा कि लॉकडाउन के 40-50 दिनों का झटका भी झेलने की हालत में नहीं रही। दूसरा, ग़रीबों के लिए जहाँ कोरोना काल बनकर आया, वहीं अपनी अदूरदर्शी आर्थिक नीतियों से सरकार और उसका चहेता सम्पन्न वर्ग अब भारतीय मध्य वर्ग का कचूमर बनाने पर आमादा है।
सरकार! क्या मध्य वर्ग की कमर तोड़ने का इरादा है?
- विचार
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- 6 May, 2020

हफ़्तों से चर्चा है कि अर्थव्यवस्था में जान फूँकने के लिए सरकार कुछ पैकेज देने की तैयारी कर रही है। लेकिन सही मायने में भारत में ग़रीबों की विकराल आबादी को देखते हुए बड़े से बड़े पैकेज से भी फ़ौरी राहत के सिवाय और कुछ भी हासिल नहीं होगा। क्योंकि आख़िर सरकार भी पैकेज के लिए रक़म कहाँ से लाएगी? आर्थिक मन्दी के बाद कोरोना संकट की वजह से राजस्व-संग्रह ध्वस्त हो चुका है।
वर्ना, क्या सरकार को इतनी मामूली सी बात भी नहीं पता कि पेट्रोल-डीज़ल के दाम आसमान छूने से सबसे ज़्यादा असर मध्य वर्ग पर ही पड़ेगा, क्योंकि यही तबक़ा इसकी सबसे अधिक ख़पत करता है। मध्यम वर्ग पर ही आर्थिक मन्दी और बेरोज़गारी की सबसे तगड़ी मार पड़ी है। वेतन कटौती की सबसे भयंकर गाज़ भी इसी तबक़े के सिर पर गिरी है। अगर सरकार आर्थिक तंगी में है तो क्या देश के मध्य वर्ग, किसान-कामगार और दिहाड़ी मज़दूर ऐसा ख़ुशहाल है कि उस पर कुछ भी बोझ डाल दिया जाए! क्या सरकार नहीं जानती कि देश के 90 फ़ीसदी लोगों की गुज़र-बसर असंगठित क्षेत्र और दिहाड़ी मज़दूरों के रूप में ही होती है। मध्यम वर्ग भी इसी का हिस्सा है।
मुकेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं। 28 साल लम्बे करियर में इन्होंने कई न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में काम किया। पत्रकारिता की शुरुआत 1990 में टाइम्स समूह के प्रशिक्षण संस्थान से हुई। पत्रकारिता के दौरान इनका दिल्ली