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‘विपक्ष विहीन भारत’ बनाना ही असली ‘मन की बात’ है!

तीन तलाक़ की तर्ज़ पर बीजेपी और एनडीए से नाता तोड़ने वाले शिरोमणि अकाली दल ने भी अभी वही कहा है जो शिवसेना ज़रा पहले कह चुकी है कि मौजूदा एनडीए वाजपेयी-आडवाणी के ज़माने वाला नहीं है। नीतीश कुमार भी जब 2015 में बीजेपी से दामन छुड़ाकर भागे थे तब भी यही ‘नैरेटिव’ यानी धारणा बनायी गयी थी। हालाँकि, नये-पुराने एनडीए की बातें विशुद्ध भ्रम हैं। राजनीतिक फ़रेब है। दरअसल, वो भी संघ का सत्ता-काल था और ये भी संघ का ही सत्ता-युग है। वाजपेयी-आडवाणी की तरह ही नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की हैसियत भी संघ के मुखौटों जैसी ही है।

संघ का एक ही एजेंडा है भारतीय लोकतंत्र और संविधान को पूरी तरह से संघ का ग़ुलाम बनाना! यही हिन्दू-राष्ट्र की वो परिकल्पना है जिसका ख़्वाब सावरकर और दीनदयाल उपाध्याय ने देखा था। इसी एजेंडा को ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ कहा गया था। लेकिन इसका असली लक्ष्य ‘विपक्ष विहीन भारत’ बनाना ही है! इसे ही ‘संकल्प से सिद्धि’ वाला ‘नया भारत’ कहा गया है। ‘मन की बात’ इसी का राष्ट्रगान है। संसद हो या सड़क, फ़िलहाल पूरी तेज़ी और तत्परता से ‘विपक्ष विहीन भारत’ बनाने का काम चल रहा है।

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बिहार के चुनाव के लिए भी सबसे पहले संघ के उस चिरपरिचित हथकंडे को ही अपनाया गया है जिसे TINA फ़ैक्टर कहते हैं। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि बिहार में नीतीश कुमार को मोदी का मुखौटा बनाकर पेश किया जा रहा है। अफ़वाहें फैलायी जा रही हैं कि नीतीश का विकल्प कोई नहीं है। इसके लिए विरोधियों का चरित्र-हरण भी लाज़िमी है। लोकप्रियता के सर्वे करवाये जा रहे हैं ताकि अफ़वाहों को बिहार के लोग वैसा ही ब्रह्म-सत्य मानकर चलें जैसे 1995 में सारी दुनिया में गणेश जी को एक साथ दूध पिलाया गया था!

नैरेटिव बनाया जा रहा है कि वोट को बेकार करने से क्या फ़ायदा! उसे वोट दो, जो जीत रहा हो, वर्ना वोट बेकार हो जाएगा! और जीत तो हम ही रहे हैं क्योंकि हम कह रहे हैं! हमें छोड़कर किसी और को वोट दोगे तो भी सरकार तो हमारी ही बनेगी, क्योंकि चुनाव के बाद भी चाहे विधायकों को ख़रीदना ही पड़े लेकिन सरकार तो हम ही बनाएँगे। जैसा हमने मध्य प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक, अरुणाचल और गोवा वग़ैरह में करके दिखाया है। इसीलिए ज़रा इन दलीलों पर भी ग़ौर कीजिए कि विकल्प कहाँ है? लालू और कांग्रेस तो कब के उजड़ चुके हैं। इनके विधायक और नेता भी इन्हें छोड़कर भाग रहे हैं! अरे, डूबते जहाज़ पर कौन रहना चाहेगा! कांग्रेस और उसके दोस्तों से उनके ही लोग नहीं सम्भल रहे। वग़ैरह-वग़ैरह…।

अफ़सोस कि सच्चाई इससे लाख गुना ज़्यादा वीभत्स, विकृत और भयावह है! ख़रीद-फ़रोख़्त या ‘आया राम, गया राम’ के लिहाज़ से कांग्रेसियों का दामन भी कोई कम दाग़दार नहीं है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि बीजेपी इस काम को कहीं ज़्यादा दबंगई से अंज़ाम देती है।

जो इनके आगे झुकता नहीं, मुँह माँगे दाम पर भी झुकता नहीं, उसकी कनपटी पर भी सीबीआई, ईडी, आयकर विभाग, एनआईए जैसी संस्थाओं को पिस्तौल बनाकर तान दिया जाता है। आख़िर, किसानों और श्रमिकों से जुड़े क़ानूनों को अभी संसद ने जिस ढंग से पारित किया है, उसका निहितार्थ कुछ भी और कैसे हो सकता है?

यदि आपको ये बातें कपोल-कल्पना लगे तो भी गाँठ बाँध लीजिए कि इनको नियम-क़ायदों, क़ानून-संविधान, हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग-संसद किसी की परवाह नहीं है! 

क्योंकि हम कह रहे हैं!

अनुच्छेद 370 को ख़त्म करो, क्योंकि हम कह रहे हैं! अनुच्छेद 35A को ख़त्म करो, क्योंकि हम कह रहे हैं! तीन तलाक़ को ख़त्म करो, क्योंकि हम कह रहे हैं! समान नागरिक संहिता को लागू करो, क्योंकि हम कह रहे हैं! इतिहास में वो परिवर्तन करो जो हम कह रहे हैं। लिखो कि टीपू, देशद्रोही था! लिखो कि अकबर ने महाराणा के क़दमों में गिरकर रहम की भीख़ माँगी थी, क्योंकि हम कह रहे हैं! सारे विपक्षी नेताओं को भ्रष्ट समझो, क्योंकि हम कह रहे हैं! उन पर तरह-तरह की छापेमारी वाला सर्ज़िकल हमला करो, क्योंकि हम कह रहे हैं। स्वीकार करो कि बिहार में सुशासन ही है, क्योंकि हम कह रहे हैं! मानो कि बंगाल में क़ानून-व्यवस्था का राज ख़त्म हो गया है, क्योंकि हम कह रहे हैं!

यक़ीन करो कि लद्दाख में कोई घुसपैठ नहीं है और कश्मीर में शान्ति और ख़ुशहाली बढ़ रही है, क्योंकि हम कह रहे हैं! यक़ीन करो कि दुनिया में भारतीय अर्थव्यवस्था का डंका बज रहा है, क्योंकि हम कह रहे हैं! ख़बरदार, जो किसी ने नोटबन्दी, जीएसटी, बेरोज़गारी, धार्मिक उन्माद में इज़ाफ़े की आलोचना की। क्योंकि विष्णु अवतार के रूप में अवतरित हुए और विश्व के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों में शामिल विश्व-गुरु के बारे में कुछ भी और सोचना ईश-निन्दा और देशद्रोह के समान है, क्योंकि हम कह रहे हैं!

लोकतंत्र में विधायकों-सांसदों और यहाँ तक कि पार्टियों की ख़रीद-फ़रोख़्त या दलबदल को अति-अनिष्टकारी मानना चाहिए। ज़रा सोचिए कि क्या हमारे सांसदों-विधायकों की औक़ात अपनी पार्टियों के ऐसे कर्मचारियों की तरह हो सकती है जो आज एक कम्पनी से इस्तीफ़ा दे और कल दूसरी कम्पनी का मुलाज़िम बन जाए?

नेता पार्टी बदलना चाहें तो बदलें लेकिन उन्हें ऐसा होना चाहिए कि आज टाटा के कर्मचारी हैं तो कल से रिलायंस के हो जाएँ और परसों अडानी चाहें तो ज़्यादा रुपये देकर उसे अपना कारिन्दा बना लें! राजनीति में ऐसा काम कोई भी करे, किसी के लिए भी किया जाए, लोकतंत्र के लिए ये तो हर तरह से महाविनाशकारी ही है!

ये नीयत में खोट नहीं तो और क्या है कि 2015 में जिस बिहार की जनता ने बीजेपी को नकार दिया था, उसे नये चुनाव में नीतीश कुमार ने कैसे जनादेशधारी बनाने की हिम्मत दिखा दी! वैसे यही काम महाराष्ट्र में शिवसेना ने किया। ज़ाहिर है, ये करें या वो, है तो ये घोर अन्धेर ही, जनादेश से धोखा है। याद रखिए, 2015 में मुद्दा ये नहीं था कि लालू, बढ़िया हैं या घटिया? भ्रष्ट हैं या नहीं? जबकि 2017 में मुद्दा ये था कि चुनाव पूर्व बने जिस गठबन्धन को जनादेश मिला था, यदि वो चलने लायक नहीं बचा तो नीतीश को फिर से जनादेश लेना चाहिए था या नहीं? महाराष्ट्र की जनता वक़्त आने पर इस सवाल का जवाब भी तय करेगी, लेकिन अभी तो बारी बिहार की है।

विचार से ख़ास
क्या राजनीति में बड़े से बड़े नेता के बयान की कोई गरिमा, कोई प्रतिष्ठा नहीं होनी चाहिए? कल आपने जो कहा था क्या आज आप उसका बिल्कुल उल्टा करने लगेंगे? और, क्या जनता को चुपचाप पाँच साल तक सिर्फ़ और सिर्फ़ तमाशा ही देखना पड़ेगा? ये अतिवाद की दशा है, जो देर-सबेर हमें अराजकता और गृह युद्ध के दलदल में ढकेलकर ही मानेगी। नैतिकता और लोकलाज़ विहीन राजनीति का अपनी सीमाओं को तोड़कर बाहर निकल जाना, देश के लिए किसी परमाणु हमले से भी ज़्यादा विनाशकारी और भयावह है! अरे, जब संविधान ही नहीं बचेगा तो भारत कहाँ होगा!
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मुकेश कुमार सिंह
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