हाथरस के निर्भया कांड को लेकर मचे कोहराम को देखते हुए योगी-मोदी सरकार के बचाव में केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने कमर कस ली है। इनका पहला ‘रहस्योद्घाटन’ है कि काँग्रेस और राहुल-प्रियंका हाथरस मामले में सियासी नाटकबाज़ी कर रहे हैं।
हाथरस: राजनीति का अपराधीकरण ख़त्म होने तक ढोंग है ‘बेटी बचाओ’ का नारा
- विचार
- |
- |
- 4 Oct, 2020

बेक़ाबू अपराधों की समस्या किसी एक पार्टी से जुड़ी नहीं है। सभी का राज, जंगलराज जैसा ही है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े सिर्फ़ पत्रकारों और विपक्ष के लोगों का दिल दहलाते हैं। सत्ता प्रतिष्ठान का नहीं। क्योंकि उसे मालूम है कि सच तो आंकड़ों से भी कहीं ज़्यादा भयावह है। कभी-कभार ‘राजनीति’ की नौबत आ जाती है, वर्ना सबको अपनी सत्ता में ‘सब चंगा सी’ वाला मंत्र ही सटीक लगता है।
ज़ाहिर है कि सीबीआई जाँच का एलान, एसआईटी का गठन, पुलिस के अफ़सरों का निलम्बन, निर्भया की लाश को ज़बरन जलाने का प्रसंग, उसके साथ हुई जातिगत बर्बरता और चिकित्सीय उपेक्षाओं की कहानी तो राजनीतिक नाटक नहीं हो सकता। इलाहाबाद हाईकोर्ट का स्वतः संज्ञान लेना और प्रदेश के आला अफ़सरों का हाथरस में पीड़िता के गाँव में जाना भी प्रशासनिक दायित्वों के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता।
संवैधानिक पदों पर बैठे स्मृति ईरानी और योगी सरकार के मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह झूठ तो बोलेंगे नहीं। बाक़ी जन्मजात बेवकूफ़ तो वे भारतवासी ही हैं जो 1947 से अभी तक राजनीति के मायने ही नहीं समझ पाये। इसीलिए, इन महानुभावों को आये दिन भोली-भाली जनता को ज्ञान देने का बोझ उठाना पड़ता है।
उमा भारती अभी बीजेपी में तो हैं इसलिए उनकी सलाह भी राजनीति से प्रेरित क्यों नहीं हो सकती? बहरहाल, ये तो बातें हैं। होती ही रहेंगी। सब जानते हैं कि जनता ने ही हमेशा देश की राजनीति की धार और धारा दोनों तय की है। शायद, आगे भी वही करेगी।
मुकेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं। 28 साल लम्बे करियर में इन्होंने कई न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में काम किया। पत्रकारिता की शुरुआत 1990 में टाइम्स समूह के प्रशिक्षण संस्थान से हुई। पत्रकारिता के दौरान इनका दिल्ली