जिस हिन्दू-मुसलिम नस्लवाद की आग से भारत, बीते कई वर्षों से झुलस रहा है, उसकी लपटें अब खाड़ी के देशों तक पहुँच गयी हैं। इतिहास गवाह है कि नस्लवाद की प्रतिक्रियाएँ होती ही हैं। अपने ही देश में हम कश्मीरी पंडितों का हश्र देख चुके हैं। इन्हें ख़ुद को ‘शरणार्थी’ कहलवाना बहुत पसंद था। हालाँकि, अपने ही देश में कोई शरणार्थी कैसे हो सकता है? इनकी सियासत करने वाले आज तक एक भी कश्मीरी पंडित की घर-वापसी नहीं करवा सके। क्योंकि ये काम सत्ता परिवर्तन और क़ानून बनाने से हो ही नहीं सकता। क़ानून बन जाने से सामाजिक माहौल नहीं बदलता। वर्ना, निर्भया कांड के बाद महिलाएँ सुरक्षित होतीं, कन्या भ्रूण-हत्या नहीं होती, दहेज-उत्पीड़न नहीं होता, बाल-विवाह नहीं होते।
अगर विदेशों में रहने वाले भारतीयों पर नस्लवाद का क़हर टूटा तो क्या होगा?
- विचार
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- 25 Apr, 2020

जब विदेश में बसे प्रवासी भारतीयों पर नस्लवाद का हंटर चलने लगेगा तो उनकी सारी रईसी फ़ाख़्ता हो जाएगी। भागकर भारत लौटेंगे तो यहाँ भी कोई कम नहीं दुत्कारे जाएँगे। कोई उनके इस योगदान का लिहाज़ नहीं करने वाला कि उन्होंने विदेश से कितने डॉलर देश को भेजा था? नस्लवादी नफ़रत की बेल भी जंगल की आग की तरह फैलती है।
मुकेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं। 28 साल लम्बे करियर में इन्होंने कई न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में काम किया। पत्रकारिता की शुरुआत 1990 में टाइम्स समूह के प्रशिक्षण संस्थान से हुई। पत्रकारिता के दौरान इनका दिल्ली