जिस हिन्दू-मुसलिम नस्लवाद की आग से भारत, बीते कई वर्षों से झुलस रहा है, उसकी लपटें अब खाड़ी के देशों तक पहुँच गयी हैं। इतिहास गवाह है कि नस्लवाद की प्रतिक्रियाएँ होती ही हैं। अपने ही देश में हम कश्मीरी पंडितों का हश्र देख चुके हैं। इन्हें ख़ुद को ‘शरणार्थी’ कहलवाना बहुत पसंद था। हालाँकि, अपने ही देश में कोई शरणार्थी कैसे हो सकता है? इनकी सियासत करने वाले आज तक एक भी कश्मीरी पंडित की घर-वापसी नहीं करवा सके। क्योंकि ये काम सत्ता परिवर्तन और क़ानून बनाने से हो ही नहीं सकता। क़ानून बन जाने से सामाजिक माहौल नहीं बदलता। वर्ना, निर्भया कांड के बाद महिलाएँ सुरक्षित होतीं, कन्या भ्रूण-हत्या नहीं होती, दहेज-उत्पीड़न नहीं होता, बाल-विवाह नहीं होते।