राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले हर शख़्स को पता है कि कांग्रेस बीमार है। कई सालों से बीमार है। कांग्रेसियों को पता है कि बीमारी क्या है, कितनी गम्भीर है, बीमारी का इलाज़ क्या है और इसे कब तथा कैसे करना है? इतनी सी बात में कोई ख़बर नहीं है।
ख़बर के अन्दर की बात तो ये है कि कांग्रेस की बीमारी को लेकर, उसके परिवारवाद और वंशवाद को लेकर, तमाम योजनाओं और भवन-मार्ग वग़ैरह के नाम नेहरू-गांधी परिवार के लोगों के नाम पर क्यों हैं, जैसी बातों को लेकर सबसे ज़्यादा परेशान वे लोग हैं जिन्होंने 2019 और 2014 में कांग्रेस को वोट ही नहीं दिया था।
संघ की रणनीति
मध्यम वर्गीय, शिक्षित, खाते-पीते लोगों और ख़ासकर सवर्णों के बीच कांग्रेस की बीमारियां आपसी चर्चा का मुद्दा बनती हैं। लेकिन मज़े की बात तो ये है कि ऐसा अनायास नहीं है। बल्कि बाक़ायदा, सुविचारित रणनीति के लिए तहत ऐसा करवाया जा रहा है। इसे संघ की ‘डैमेज़ कंट्रोल एक्सरसाइज़’ की तरह देखा जा सकता है और इसकी कई वजहें साफ़ दिख रही हैं।
संघ को स्पष्ट ‘फ़ीडबैक’ मिल रहा है कि मोदी सरकार की लोकप्रियता में पलीता लगा हुआ है। कोरोना को दैवीय प्रकोप यानी ‘एक्ट ऑफ़ गॉड’ बताने का खेल जनता को हज़म नहीं हो रहा।
‘इनसे ना हो पाएगा’
औंधे मुंह पड़ी अर्थव्यवस्था ने उन करोड़ों लोगों की आंखें भी खोल दी हैं जो ख़ुद को ‘भक्त’ कहे जाने पर गर्व महसूस करते थे। अब लोगों को अच्छी तरह समझ में आने लगा है कि मोदी सरकार और इसके रणनीतिकार देश को आर्थिक दलदल से बाहर नहीं निकाल सकते। इनके पास ऐसी दृष्टि ही नहीं है। क़ाबलियत ही नहीं है। ये जितना नुक़सान कर चुके हैं, उसकी भरपाई कभी नहीं कर पाएंगे। बोलचाल की भाषा में इसे ही कहते हैं, ‘इनसे ना हो पाएगा!’
मुसीबत में है मध्यम वर्ग
मध्यम वर्ग बेहद मायूस है। इतना कि उसे अब मौनी मनमोहन सिंह के दिनों की बहुत ज़्यादा याद सताने लगी है। सोनिया-राहुल भी अब पहले जितने ‘ख़राब’ नहीं लग रहे। मोदी जी का भाषण अब मध्यम वर्ग को भरमा नहीं पा रहा है, क्योंकि इनकी बातों, नये-नये मंत्रों तथा ज़ुमलों से उसका मोहभंग होने लगा है। इस वर्ग ने कोरोना काल के 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज़ की सच्चाई को क़रीब से देख लिया है और इसकी समझ में आ गया है कि चीन को लेकर प्रधानमंत्री ने कैसे देश को ग़ुमराह किया।
मध्यम वर्ग को 2016 की नोटबन्दी की लम्बी लाइनों से लेकर अब तक के तमाम अनुभवों की एक-एक बात याद आ रही है, क्योंकि तब से अब तक आर्थिक मोर्चों पर उसके हाथ लगातार सिर्फ़ बुरी ख़बरें ही आयी हैं।
छंटनी, बेरोज़गारी से बुरा हाल
राम मंदिर, 370 और तीन तलाक़ के फ़ैसलों से मध्यम वर्ग को मिली ख़ुशी अब काफ़ूर हो चुकी है। कोरोना में इसने सरकारी दावों और विकास के स्तर की हक़ीक़त को भी बहुत क़रीब से देख लिया है। छंटनी, बेरोज़गारी और गिरती आमदनी का आलम हर घर में मौजूद है। नई नौकरियों का कहीं कोई अता-पता नहीं है। यहां तक कि जिन युवाओं को किसी-किसी नौकरी के लिए चुन लिया गया था, उनकी ज्वाइनिंग भी टल चुकी है। आर्थिक आंकड़ों ने कम शिक्षितों लोगों को भी ज्ञानवान बना दिया है।
ग़रीब तो बुरी तरह से टूटे हुए हैं। सरकारें जो कह और कर रही हैं, उससे उन्हें ढांढस नहीं मिल रहा। पेट्रोल-डीज़ल के रोज़ाना उछल रहे दामों को लेकर भी जनता में बेहद गुस्सा है। इसने जनता का जीना और दुश्वार कर दिया है।
विपक्ष वाली बीजेपी की याद
जनता को अब विपक्ष वाली उस बीजेपी की बहुत याद सता रही है जो सड़कों पर उतरकर तरह-तरह की ड्रामेबाज़ी के ज़रिये मनमोहन सरकार की नाक में दम करके रखती थी। विपक्ष वाली बीजेपी बहुत संगठित थी। उसके पीछे संघ की ताक़त थी। जबकि विपक्ष वाली कांग्रेस ख़ुद ही बहुत लुंज-पुंज है। कई बीमारियों से ग्रस्त है। अपनी सेहत को सुधारने के लिए जो किया जाना चाहिए, उसे भी करती नज़र नहीं आ रही है।
‘टीना फैक्टर’
संघ इसी माहौल को भुनाना चाहता है। वो चाहता है कि कांग्रेस को जनता याद चाहे जितना करे, लेकिन पसन्द बिल्कुल न करे। राजनीति का ये स्वाभाविक व्यवहार भी है। इसीलिए, मौजूदा हालात से मायूस लोग जब भी विकल्प की बातें करते हैं, तो उन्हें ‘टीना फैक्टर’ यानी There Is No Alternative (TINA) की याद दिलायी जाती है। इन्हें बताया जाता है कि कांग्रेस तो ठीक है, लेकिन इसका नेता कौन है, इसका पता ही नहीं है।
राहुल गांधी का चरित्र हनन
राहुल गांधी का तो इतना चरित्र हनन किया जा चुका है कि लोग उन्हें विकल्प मान ही नहीं पाते। इसके लिए वो ख़ुद भी कोई कम कसूरवार नहीं हैं। विरोधी तो हमेशा ही चरित्र हनन और लांछन का सहारा लेते ही रहे हैं। सभी पार्टियां यही करती हैं। क्योंकि ये राजनीति का अहिंसक हथियार है। लेकिन अभी संघ की बेचैनी थोड़ी ज़्यादा है। क्योंकि बिहार के चुनाव जो सामने हैं। वहां भी नीतीश से ‘टीना फैक्टर’ को जोड़ने का ही खेल चल रहा है।
देश में जनमानस की ख़ुशी या नाराज़गी को फैलने नहीं दिया जा रहा, क्योंकि मेनस्ट्रीम मीडिया मर चुका है। जनता अब सच्चाई को जानकर अपनी राय नहीं बना रही, बल्कि उसे वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी के कंटेंट से ही ज्ञान दिया जा रहा है।
कांग्रेस भी जानती है कि अगर वह अपनी बीमारियों से उबर भी गयी तो भी बीजेपी को खुले अखाड़े में अपने बूते चित नहीं कर पाएगी। संघ की अफ़ीम ने बीजेपी को अपराजेय बना दिया है। लेकिन संघ अच्छी तरह जानता है कि जब जनता का गुस्सा फूटेगा तो वो ये देखकर वोट नहीं करेगी कि मोदी का विकल्प कौन है? बल्कि ये सोचकर वोट डालेगी कि ‘कोई भी आये, लेकिन मोदी तो नहीं चाहिए!’
ये वही मनोदशा है, जिसने 2014 में कांग्रेस की मिट्टी-पलीद की थी और इतिहास में पहली बार ग़ैर-कांग्रेसी पूर्ण बहुमत वाली सरकार के सत्ता में आने का रास्ता खुला था। तब जनमानस में ये राय बन गयी थी कि इस बार कांग्रेस को वोट नहीं देना है। इसीलिए कांग्रेस सत्ता से चली गई। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री समेत संघ के रणनीतिकारों को जनता के मनोविज्ञान के इसी पहलू का ख़ौफ़ सता रहा है।
हटाई जाएंगी निर्मला?
मुमकिन है कि अगले कैबिनेट विस्तार में वित्त मंत्रालय की ज़िम्मेदारी किसी और को थमाकर निर्मला सीतारमण को बलि का बकरा बना दिया जाए। राजनीति में ऐसे नुस्ख़ों को आसान उपायों की तरह देखा जाता है। इसे पार्टी और संघ ऐसे पेश करेंगे कि मोदी जी तो अद्भुत हैं ही, वित्त मंत्री ही नाक़ाबिल थीं, इसलिए उन्हें बदल दिया गया। अब देखना सब ठीक हो जाएगा। राजनीति ऐसे ही नुस्ख़ों का खेल है।
यही वजह है कि संघ को कांग्रेस की बीमारी में भी अपने लिए नुस्ख़ा ही नज़र आ रहा है। इसमें ग़लत भी कुछ नहीं है। उधर, कांग्रेस का सीधा सा मंत्र है कि वो सत्ता में लौटगी या नहीं, ये चुनौती उसकी नहीं बल्कि जनता की है। लिहाज़ा, जान झोंकने से क्या फ़ायदा!
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