अस्सी के दशक में जब पहली बार हमारी पीढ़ी क्रांति के स्वप्न या रोमांस के बीच अपने क्रांतिकारी लेखकों-कवियों को पहचानने का जतन कर रही थी तो तेलुगू के दो कवि और गायक हमें नायकों की तरह मिले थे- वरवर राव और गद्दर। गद्दर को हम उन दिनों गदर कहा करते थे- हमें लगता था कि वे बगावत के मूर्तिमान रूप हैं। आज बरसों बाद गूगल पर हिंदी में गद्दर पर कुछ खोजने की कोशिश की तो लगभग सारे विकल्प ‘गद्दार’ के आए- फूहड़ हिंदी फिल्मों और गीतों का एक सिलसिला परोसते हुए।
तो गदर के स्वप्न और गद्दार के बाज़ारवादी विस्तार के बीच कहीं छुपे रहे गद्दर- बीमार, परेशान, अस्पताल में भर्ती। कभी लोगों में जोश और जज़्बा भर देने वाली उनकी आवाज़ थक चुकी थी। उनकी मौत की ख़बर आते ही इतिहास के कुछ मुर्दा पत्थर हिले होंगे- तेलंगाना और दूसरे जनांदोलनों से जुड़ी स्मृतियाँ किन्हीं दूर-दराज़ के अंधेरे कोनों में कौंधी होंगी। दलितों और वंचितों के पक्ष में उनकी गूंजती आवाज़ किन्हीं सन्नाटों में प्रतिध्वनित हुई होगी।
सच है कि वे आंदोलन अब नहीं बचे हैं। राज्य की विराट होती शक्ति और बाज़ार की विस्तृत होती सत्ता के बीच समतावादी आंदोलन का खयाल अब लगभग अविश्वसनीय जान पड़ता है। प्रतिरोध की आवाज़ें क्षीण पड़ी हैं, कहीं-कहीं वे दूसरी राजनीतिक धाराओं में अपने को अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रही हैं, कहीं वे अलग-अलग आंदोलनों से जुड़ कर जेलों में भी सड़ रही हैं और विद्रूप या विडंबना यह है कि भारत का संसदीय लोकतंत्र लगातार संदिग्ध हाथों का खिलौना और दमन का औज़ार बना हुआ है।
यह सच है कि गद्दर जिस क्रांति धारा से जुड़े हुए थे, वह संगठन और विचार दोनों स्तरों पर लगातार सूखती जा रही थी। गद्दर बेचैन आत्मा थे और इसलिए तरह-तरह के विकल्प तलाश रहे थे। कभी वे अलग तेलंगाना राज्य के आंदोलन से जुड़े, कभी वे कांग्रेस के क़रीब जाते दिखे, कभी वे अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बनाने की बात सोचते-करते रहे, लेकिन लगभग हमेशा यथास्थिति को नकारते रहे, जो हो रहा है, उससे असहमत रहे।
गद्दर के न रहने से अचानक वे सारे आंदोलन नए सिरे से याद आ रहे हैं जिनमें बराबरी और बदलाव के सपने को मरने-जीने की ज़िद तक ढोने का सपना था, जिसकी खातिर न जाने कितने लोग कहां-कहां खप गए, कितनी विस्मृत शहादतें इतिहास के नामालूम पन्नों में दफ़न हो गईं।
अब गद्दर को याद करने का क्या मतलब है? बस यही कि हम इतिहास के ऐसे मोड़ पर लाकर खड़े कर दिए गए हैं जहां बदलाव की कल्पना के लिए भी ज़मीन बंजर हो चुकी है, क्रांति का स्वप्न लगभग हास्यास्पद बना दिया गया है, एक चुस्त-चालाक, सजा-धजा बाज़ार हमें जीने की नई हिकमतें सिखा रहा है जिसमें अपने चारों तरफ़ के अंधेरों से आंख मूंदे रखना भी शामिल है, एक भाषणबाज राजनीतिक संस्कृति- जो अपने चरित्र में घोर सांप्रदायिक और यथास्थितिवादी है- राष्ट्र, धर्म और संस्कृति का चोला ओढ़ कर हमें ऐसे लोकतंत्र का ककहरा पढ़ा रही है जिसमें चुनाव ही सबकुछ है और वोट हासिल करने के सारे जतन बिल्कुल वैध हैं। हम विकल्पहीनता पर यकीन के आदी बनाए जा रहे हैं, बल्कि शायद हमें यह रास भी आने लगा है।
लेकिन इसी दौर में ऐसे लोग हैं जिन्होंने सपनों को कस कर अपनी मुट्ठी में जकड़ा हुआ है, जो सरकारी झूठ को चुनौती देते हैं, वर्चस्ववाद की नकली राजनीति के मुक़ाबले में खड़े होते हैं और जेल काटते हैं। गद्दर के न रहने के साथ ऐसे और भी लोगों का खयाल आता है जो सामाजिक बदलाव की लड़ाई लड़ रहे हैं और इसकी सज़ा भुगत रहे हैं। भीमा कोरेगांव के अजीब से मामले में एक काफ़्काई ‘ट्रायल’ चल रहा है जिसकी वजह से कई जाने-माने लेखक, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता जेलों में सड़ रहे हैं जिन्हें भारतीय राष्ट्र राज्य इतना ख़तरनाक मानता है कि उन्हें ज़मानत देने को भी तैयार नहीं।
गद्दर चालीस के दशक के उत्तरार्ध में पैदा हुए थे, जब बंगाल में तेभागा और दक्षिण में तेलंगाना आंदोलनों की गूंज थी- किसान अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे थे। आने वाले वर्षों में इन लड़ाइयों के और भी मोर्चे खुले जिनके साथ गद्दर ने अपनी आवाज मिलाई। उन्होंने दलितों के दमन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई, फ़र्ज़ी मुठभेड़ों के ख़िलाफ़ आंदोलनरत रहे और अपने जीवन को जन-संघर्षों के लिए समर्पित कर दिया। उनका गीत पोदुस्तन्ना पोद्दुमीडा तेलंगाना आंदोलन का ‘थीम सांग’ जैसा बन गया था। यू ट्यूब पर गद्दर की आवाज़ में इस गीत को सुनने का अपना ही प्रभाव है। वे एक डंडे से लगा लाल झंडा हिलाते-घुमाते हुए और नाटकीय ढंग से बीच-बीच में भाषण देते हुए यह गीत गाते हैं और तेलंगाना का क्षोभ और स्वप्न जैसे गीत में साकार हो उठते हैं। मगर यह गायकी नहीं थी जो उनके स्वर से फूट कर सबको प्रभावित करती थी। उन्हें संगीत के लिए आंध्र का प्रतिष्ठित नंदी सम्मान दिया जा रहा था जिसे उन्होंने लेने से इनकार कर दिया था। यह उनकी आत्मा से निकलती स्वतंत्रता की चेतना थी जो उनके सुरों के ज़रिए दूसरों की आत्माओं में उतर जाती थी।
गद्दर के न रहने की क़ीमत यही है- हमने ऐसी एक आवाज़ खो दी है जिससे हम अपनी स्वतंत्रता की चेतना अर्जित करते और कर सकते थे। ऐसे समय में जब हमारी आज़ादी पर बहुत सारे हमले लगातार जारी हैं, गद्दर का जाना हमारी प्रतिरोध-क्षमता के एक बड़े स्रोत का चले जाना है।
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