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रतन टाटा : आम आदमी के उद्योगपति का अंतिम प्रयाण!

रतन टाटा की कमी को महसूस करने के लिए दूसरी ज़रूरी बात यह है कि उनके भीतर की सादगी, विनम्रता और अपनी उपलब्धियों के प्रति निर्विकार भाव रखने को नज़दीक से पढ़ पाने के कितने अवसर हम सहजता से प्राप्त कर पाए हैं?
श्रवण गर्ग

रतन टाटा ने सात अक्टूबर को एक अत्यंत आत्मीय ट्वीट अपने उन लाखों-करोड़ों शुभचिंतकों की चिंताओं को शांत करने के लिए किया था जो मुंबई के प्रसिद्ध ब्रीच कैंडी हॉस्पिटल में उनके भर्ती हो जाने से परेशान हो गए थे। रतन टाटा को जानकारी थी कि लोग उन्हें बेपनाह चाहते हैं! रतन टाटा ने ट्वीट में कहा था कि उनके स्वास्थ्य को लेकर चल रही अफ़वाहें बेबुनियाद हैं। वे उम्र के साथ जुड़ी मेडिकल समस्याओं की जाँचें हॉस्पिटल में करवा रहे हैं। चिंता करने के कोई कारण नहीं हैं। वे पूरी तरह ठीक हैं। दो दिन बाद नौ अक्टूबर की रात रतन टाटा अपने करोड़ों चाहने वालों को अकेला छोड़कर चुपचाप चले गए।

रतन टाटा के जाने से उत्पन्न हुई रिक्तता को महसूस करने के लिए दो बातों का होना ज़रूरी लगता है। पहली तो यह कि उस काल को जीया गया हो जिसमें संपन्नता की देशव्यापी परिभाषा ‘टाटा-बिड़ला’ बन जाना ही मानी जाती थी, कुछ और बनना नहीं! टाटा-बिड़ला के नाम भारतीय उद्योग में राष्ट्रवाद, गुणवत्ता और व्यावसायिक ईमानदारी के प्रतीकों के रूप में स्थापित हो गए थे। रतन टाटा उसी राष्ट्रीय पहचान के अंतिम मील के पत्थर थे।

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रतन टाटा एक उद्योगपति के अलावा भी ऐसे बहुत कुछ थे जो अन्य उद्योगपति नहीं हैं, हो भी नहीं पाएंगे! रतन टाटा की कमी को महसूस करने के लिए उद्योग-व्यवसाय और राजनीति के क्षेत्र में नैतिक मूल्यों के पतन की कुछ और पीढ़ियों के सामर्थ्य के साथ रूबरू होना पड़ेगा।

रतन टाटा की कमी को महसूस करने के लिए दूसरी ज़रूरी बात यह है कि उनके भीतर की सादगी, विनम्रता और अपनी उपलब्धियों के प्रति निर्विकार भाव रखने को नज़दीक से पढ़ पाने के कितने अवसर हम सहजता से प्राप्त कर पाए हैं? साल 1985-86 से 2009 के बीच की अवधि में ऐसे चार मौक़े आए जब रतन टाटा को विभिन्न स्वरूपों में देखने-समझने का अवसर मिला, संपन्नता के बीच समाई उनकी सादगी से साक्षात्कार हुआ।

इंदौर के निकट देवास में ‘टाटा एक्सपोर्ट्स’ (‘टाटा इंटरनेशनल’) की स्थापना 1975 में हुई थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर की यह लेदर और फूटवियर एक्सपोर्ट इकाई भी रतन टाटा के व्यक्तित्व की तरह ही तभी से बिना कोई शोर किए उत्पादन में जुटी हुई है। पिछले पचास सालों के दौरान रतन टाटा ने कुल जमा दो बार ही इसे भेंट दी होगी! रतन टाटा से पहली बार मुलाक़ात टाटा एक्सपोर्ट्स की उनकी दूसरी विजिट के दौरान ही हुई थी। तब मैं ‘फ्री प्रेस जर्नल’, इंदौर में कार्यरत था। रतन टाटा से मैंने बातचीत के लिए अनुरोध किया और उन्होंने सहजता से स्वीकार कर लिया।
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रतन टाटा से दूसरी मुलाक़ात भोपाल में हुई थी। यह मुलाक़ात बाद में कई कारणों से यादगार बन गई! मैं तब दैनिक भास्कर में कार्यरत था। रतन टाटा भास्कर समूह के शैक्षणिक उपक्रम ‘संस्कार वैली स्कूल’ के उद्घाटन समारोह में भाग लेने भोपाल पहुँचे थे। श्रीमती सोनिया गांधी उद्घाटन समारोह की मुख्य अतिथि थीं। राहुल गांधी भी उनके साथ आए थे। 

रतन टाटा को तब भोपाल के प्रमुख होटल जहांनुमा पैलेस होटल में ठहराया गया था। होटल में नाश्ते पर उनके आतिथ्य की ज़िम्मेदारी मुझे दी गई थी। नाश्ते की टेबुल पर अत्यंत सहजता से बैठे रतन टाटा के साथ लंबी और अनौपचारिक बातचीत का सुख उसी मुलाक़ात में प्राप्त हुआ था। उस मुलाक़ात की एक बात जो आज भी याद है वह यह कि मैं उनकी बग़ैर अनुमति के बातचीत को रिकॉर्ड कर रहा था। बीच बातचीत उन्होंने अचानक पूछ लिया था ‘आप रिकॉर्ड तो नहीं कर रहे हैं ना?’ और मैं अपराध भाव से भर गया था। मैंने तत्काल रिकॉर्डिंग बंद कर दी थी और जो रिकॉर्ड हुआ था उसे बग़ैर सुने सारा डिलीट कर दिया था। बातचीत बाद में पूर्ववत जारी रही थी।

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रतन टाटा की भोपाल यात्रा का ज़िक्र एक और महत्वपूर्ण बात के लिये ज़रूरी है! वह यह कि तब 68-वर्षीय रतन टाटा मुंबई में हो रही भारी बारिश के बावजूद अपना फाल्कन जेट स्वयं उड़ाकर भोपाल पहुँचे थे और उनके चेहरे पर कोई थकान नहीं थी। 

रतन टाटा से तीसरी मुलाक़ात साल मार्च 2009 में मुंबई स्थित उनके ही होटल ताज में आयोजित एक विशेष पत्रकार वार्ता में हुई थी। अवसर था उनके सपनों की स्माल कार ‘Nano’ को औपचारिक रूप से लॉंच किए जाने का। ‘Nano’ पश्चिम बंगाल और गुजरात के बीच उत्पन्न हुई कई बाधाओं को पार करते हुए आम आदमी के दरवाज़ों तक पहुँचने वाली थी। 

टाटा मोटर्स ने 2006 में पश्चिम बंगाल के सिंगूर में ‘Nano’ का प्लांट लगाने की घोषणा की थी पर ममता-समर्थित किसान आंदोलन के चलते प्लांट को गुजरात शिफ्ट करना पड़ा था। पत्रकार वार्ता में रतन टाटा ने सिंगूर विवाद को लेकर कोई कटुता नहीं व्यक्त की थी।

रतन टाटा भी कहीं नज़दीक ही उपस्थित हैं ऐसा महसूस करने का आख़िरी अवसर नवम्बर 2009 में वाशिंगटन स्थित व्हाइट हाउस में मिला था। राष्ट्रपति बनने के बाद बराक ओबामा ने उनका पहला राजकीय अतिथि बनने का सम्मान डॉ. मनमोहन सिंह को प्रदान किया था। डॉ. मनमोहन सिंह की प्रेस पार्टी के एक सदस्य के रूप में उस अद्भुत दृश्य का साक्षी बनना इसलिए अविस्मरणीय बन गया कि दोनों देशों के शासनाध्यक्षों की प्रेस वार्ता और बराक द्वारा डॉ. सिंह के गुणों के बखान के समय भारत और अमेरिका की जो तमाम औद्योगिक हस्तियाँ व्हाइट हाउस के विशाल हॉल में खड़ी हुई थीं उनमें रतन टाटा भी थे।

रतन टाटा की अनुपस्थिति भारतीय उद्योग जगत की निष्ठुर हो चुकी आत्मा एकदम से महसूस नहीं कर पाएगी! उसका एक बड़ा कारण यह है कि डॉ. मनमोहन सिंह के क़द की हस्तियों अब सत्ता के शिखरों पर विद्यमान नहीं हैं। जो लोग सत्ता में हैं उन्होंने अपने नये ‘उद्योग-मित्र’ और ‘भारत रत्न ’ चुन लिये हैं। पर भारत में जब-जब भी औद्योगिक उत्कृष्टता और व्यावसायिक नैतिकता का ज़िक्र होगा आम आदमी के उद्योगपति रतन टाटा का चेहरा ही आँखों के सामने तैरेगा!

पुनश्च : दस अक्टूबर की सुबह जैसे ही मुंबई के टर्मिनल-1 से बाहर आकर प्री-पेड ब्लू टैक्सी के पास पहुँचा, ड्राइवर ने पहला सवाल यह पूछा कि साब नरीमन पॉइंट या मरीन ड्राइव की तरफ़ तो नहीं जाना है। जब सवाल किया कि क्यों? तो जवाब मिला साब उधर बहुत भीड़ है। रास्ते ब्लॉक मिलेंगे। टाटा साहब की डेथ हो गई है। जब पूछा टाटा साहब को तुम जानते हो? तो जवाब मिला उनको कौन नहीं जानता, साब। टैक्सी वाला इलाहाबाद के नज़दीक के किसी गाँव का था।

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