अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार वर्ष 1960 के बाद से पनपी नई बीमारियों और रोगों में से तीन-चौथाई से अधिक का संबंध जानवरों, पक्षियों या पशुओं से है, और यह सब प्राकृतिक क्षेत्रों के विनाश के कारण हो रहा है।
सोशल मीडिया ने लोगों को सशक्त बनाया है या शक्तिहीन? यह सवाल इसलिए कि सोशल मीडिया अब लोगों को गुमराह, प्रभावित और दिग्भ्रमित करने का एक कपटी हथियार बन गया है।
पिछले महीने पूरा देश पानी की कमी से जूझ रहा था। देश के अधिकतर हिस्सों में मानसून की बारिश शुरू हो गयी और अब पानी की समस्या पर उस तरह की चर्चा नहीं की जा रही है। क्या मानसून की आड़ में छुपना ही समाधान है?
अवैध खनन, जंगलों के कटने, बांधों के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले, साफ़ पानी और साफ़ हवा की माँग करने वालों पर पुलिस, भूमाफिया और सरकारी संरक्षण प्राप्त हत्यारे गोली चलाते हैं। यानी पर्यावरण संरक्षण भी जानलेवा साबित हो रहा है।
वैश्विक सन्दर्भ में हम ग़रीबी को मात दे रहे हैं जबकि अफ़्रीकी देशों में ग़रीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हुआ है, या यह सिर्फ़ आंकड़ों की बाजीगरी है।
‘जय श्री राम’ के नारे और गाय के नाम पर ‘भीड़ हिंसा’ की घटनाएँ एक के बाद एक क्यों लगातार बढ़ती जा रही हैं? इसका जवाब हाल की एक अमेरिकी रिपोर्ट, इस पर सरकारी रवैया और अंतरराष्ट्रीय मीडिया रिपोर्टों में मिल जाएगा।
खोजी पत्रकार बॉब वुडवर्ड लिखते हैं कि डोनल्ड ट्रंप हरेक योजना के गुण ख़ुद ही गाते हैं और उसको पूरी दुनिया में सबसे अच्छा और सबसे बड़ा बताते हैं। क्या भारत में भी ऐसा ही नहीं होता है?
जो ज़्यादा झूठ बोलेगा वही सत्ता हथियाएगा! कई शोधों से यह बात निकलकर सामने आती है। झूठी ख़बरों लोग ज़्यादा यक़ीन कर लेते हैं। तो क्या दुनिया भर में सरकारें इसी आधार पर बहुमत तय कर रही हैं?
क्या महिला सुरक्षा और ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का नारा बेमानी साबित नहीं हो रहा है? महिलाओं की स्थिति पर दुनिया की हर रिपोर्ट शर्मिंदा करने वाली है। नयी रिपोर्ट में यौन हिंसा पर देश की ख़राब स्थिति उजागर होती है।
देश के अधिकतर हिस्सों में पीने के लिए पर्याप्त पानी नहीं है। ज़मीन बंजर होती जा रही है। प्रदूषण के कारण साँस लेना दूभर होता जा रहा है। इस पूरे बदलाव से कई प्रजातियाँ ग़ायब हो गई हैं। तो क्या एक दिन हम अपना अस्तित्व भी खो देंगे?
गंगा के प्रदूषित होने और इसके पानी में एंटीबायोटिक के होने के ख़तरे को लेकर स्थानीय वैज्ञानिक और शोधकर्ता चेताते रहे हैं, लेकिन हाल ही में आई एक अंतरराष्ट्रीय शोध की रिपोर्ट से सबक़ लेने की ज़रूरत है।