पिछले एक दशक से राष्ट्रवादी सरकारें ही दुनिया के लगभग अलग-अलग देशों में चुनकर आ रहीं हैं। दूसरी तरफ़ पूरी दुनिया में अशांति बढ़ती जा रही है और इस अशांति से विस्थापितों और आप्रवासियों की संख्या भी बढ़ रही है। तमाम राष्ट्रवादी सरकारों को आप्रवासी और विस्थापित समूह देश पर एक भार जैसे लगने लगे हैं और इन्हें देश की सीमा से बाहर करने के आदेश जारी करते रहते हैं।
अमेरिका में ट्रंप प्रशासन तो बाहरी लोगों की तुलना कभी नाज़ियों से करता है तो कभी इन्हें दूसरे ग्रह का निवासी बताता है। इंग्लैंड में ब्रेक्सिट का मसला भी इसी पर आधारित है और स्पेन और फ़्रांस समेत यूरोप के अनेक देश सीरिया के आप्रवासियों को खदेड़ने में लगे हैं। इन सब पर ख़ूब चर्चा की जाती है, पर ऐसा ही हाल भारत का भी है। असम के नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स (एनआरसी) के मसले पर सब चुप हैं, जिसमें 40 लाख लोगों की नागरिकता छिनने का खतरा है। इसकी ड्राफ़्ट रिपोर्ट 2018 में आयी थी और अब 31 अगस्त को फ़ाइनल रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी जायेगी।
भारत समेत पूरी दुनिया में कोई नहीं सुनता विस्थापितों का दर्द
- विचार
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- 20 Aug, 2019

तमाम राष्ट्रवादी सरकारों को आप्रवासी और विस्थापित समूह देश पर एक भार जैसे लगने लगे हैं और इन्हें देश की सीमा से बाहर करने के आदेश जारी करते रहते हैं।