यह बहुत विचित्र दृश्य था। बीभत्स भी कह सकते हैं, अगर आपकी धर्मनिरपेक्ष और मानवीय संवेदनाएँ तीक्ष्ण हों। भगवा गमछा ओढ़े हुए लड़कियाँ माइक पर आक्रोश जाहिर कर रही हैं। किसलिए? किसके ख़िलाफ़? वे अपनी हमउम्र उन मुसलमान लड़कियों के ख़िलाफ़ बोल रही हैं जिन्हें उनकी कक्षा में जाने से रोक दिया गया है क्योंकि उन्होंने हिजाब पहन रखा है। मुसलमान लड़कियों का कोई विरोध हिंदू लड़कियों से नहीं है। उनके हिजाब पहनने से हिंदू लड़कों, लड़कियों को क्या आपत्ति हो सकती है, यह समझना असंभव है।
स्वाभाविक तो यह होता कि जब मुसलमान छात्राओं को रोक दिया गया तो हिंदू छात्राएँ और छात्र उनके साथ खड़े होते। क्यों मुसलमान लड़कियाँ हिजाब पहनकर कक्षा करना चाहती हैं, हिंदू सहपाठी उनसे पूछते। उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि कल तक जिससे कोई परेशानी न थी, वह आज अचानक विवाद का विषय कैसे बन गई? लेकिन आज के भारत में सहानुभूति दुर्लभ है। चूँकि सहानुभूति नहीं है, उत्सुकता और जिज्ञासा भी नहीं है। है एक अतार्किक क्रोध, प्रतिशोध का भाव। हो सकता है, अगर उन्होंने अपनी मुसलमान सहपाठियों से पूछा होता तो उन्हें अलग-अलग व्यक्ति से हिजाब पहनने की अलग-अलग वजह मालूम होती। जैसा निशा सूसन ने लिखा है हरेक के पास हो सकता है, हिजाब की अलग-अलग कहानी हो। वह हिजाब उन्हें मदद क्यों कर रहा है, इसकी जिज्ञासा संभव है आपमें कुछ संवेदनशीलता बढ़ाती। लेकिन इन कहानियों को जानने के लिए क़रीब के लोगों में रुचि होना ज़रूरी है। लेकिन भगवा गमछा डाले लड़कियों के चेहरों को देखकर नहीं लगा कि उनमें यह है।भगवा गमछा पहनने के पहले उन्होंने यह न सोचा, न पूछा कि क्या यह भगवा गमछा हिजाब का जवाब है? क्या वे मुसलमान छात्राओं को कह रही हैं कि अगर तुम हिजाब पहनोगी तो हम भगवा गमछा पहनेंगी? हो सकता है कि मुसलमान लड़कियाँ तब उन्हें उत्तर देतीं, "हमें आपके भगवे गमछे से कोई दिक्कत नहीं। लेकिन क्या यह गमछा आप वैसे ही पहनती हैं जैसे हम हिजाब पहनती हैं?" जाहिर है, इसका कोई उत्तर न होता। लेकिन शायद हिंदू लड़कियाँ यह कहना चाहती हों कि हम चूँकि यह भगवा नहीं पहनना चाहते, तुम भी हिजाब उतार दो। मुसलमान लड़कियों का जवाब यह हो सकता है कि हम लेकिन हिजाब के लिए कक्षा के बाहर खड़े रहने को तैयार हैं। आपने तो परिसर में जाने के लिए भगवा गमछा उतार दिया। आप तो उसके लिए कोई क़ीमत देने को तैयार नहीं। इसी से साबित हुआ कि आपके लिए यह गमछा वह नहीं है जो हमारे लिए हिजाब है।
लेकिन इससे यह तो हुआ कि दो पक्ष तैयार हो गए। दूसरा पक्ष पहले के ख़िलाफ़ खड़ा हो गया। जहाँ पहले मुसलमान लड़कियाँ कॉलेज प्रशासन से मुखातिब थीं, अब उनके सामने एक हिंदू पक्ष को खड़ा कर दिया गया। यानी जिनसे उनका कोई झगड़ा नहीं, वे ही उनसे लड़ने को उतारू हैं। इससे प्रशासन को आसानी हो गई। अब वह मुसलमान छात्राओं से कह सकता है कि देखिए हम उन्हें मना कर रहे हैं तो आपको भी करना पड़ेगा। जहाँ कोई समतुल्यता नहीं, वहाँ पैदा की जा रही है।
इससे भी विचित्र दृश्य था, और हास्यास्पद या दुखद जब लड़कों को भगवा गमछा ओढ़े कॉलेज में घुसने का प्रयास करते देखा। उन्होंने भी प्रशासन के कहने पर उतार दिया। इसका अर्थ यही है कि भगवा गमछे का उनके लिए कोई ऐसा धार्मिक आशय नहीं। वह अभी मात्र एक हथियार है मुसलमान छात्रों पर आक्रमण के लिए। उन्हें दुविधा में डालने के लिए।
हिंदू मुसलमान के ख़िलाफ़ सड़क पर पहली बार नहीं उतर रहा है। वह भी तब जब मुसलमान उससे कोई विवाद नहीं कर रहा है। लेकिन हिंदू एक पक्ष बनाकर उससे लड़ने को उतारू है। आप नागरिकता के क़ानून के समय मुसलमानों के विरोध को याद कीजिए। वे राज्य से पूछ रहे थे कि नागरिकता की परिभाषा में मुसलमान पहचान को क्यों बाहर किया जा रहा है। सरकार इसका जवाब दे सकती थी उन्हें इसमें शामिल करके। लेकिन उसने एक हिंदू पक्ष खड़ा किया। जगह-जगह हिंदू, या बेहतर हो उन्हें हम भारतीय जनता पार्टी के समर्थक कहें, क़ानून के पक्ष में जुलूस निकालने लगे। सीएए के विरोध में चल रहे आंदोलन के ख़िलाफ़ वे सड़कों पर जमा होने लगे। इस तरह दो पक्ष यहाँ खड़े हो गए। मुसलमानों को कहा गया कि आप सड़क पर बैठे हैं, हिंदू आपके ख़िलाफ़ हैं। हम मजबूर हैं। हमें उनकी भी सुननी है।
यही गुड़गाँव में किया गया। बरसों से मुसलमान जुमे की नमाज़ जहाँ खाली जगह मिल गई, वहां पढ़ लिया करते थे। अचानक एक हिंदू पक्ष खड़ा हो गया। वह नमाज़ की प्रतियोगिता में भजन, पूजन करने की ज़िद करने लगा, बल्कि नमाज़ को बाधित करने लगा ताकि वह पूजन करे। जैसे हिंदू लड़कियों का भगवा गमछा हिजाब की तरह नहीं है, वैसे ही हिंदुओं के लिए शुक्रवार की दोपहर को भजन-पूजन जुमे की नमाज़ जैसा नहीं है। फिर भी वे इन लड़कियों की तरह ही मुसलमानों के ख़िलाफ़ खड़े हो गए। उनके प्रतिद्वंद्वी बनकर। इस तरह जुमे की नमाज़ को विवादित बना दिया गया।
यह वैसे ही है जैसे बाबरी मसजिद में चोरी-चोरी रात के अँधेरे में, लेकिन प्रशासन की मिलीभगत से देवताओं की मूर्तियाँ रखकर वहाँ हिंदू दावा पेश कर दिया गया। कर्नाटक के कॉलेज के प्रशासक जो अब कह रहे हैं, तब फैज़ाबाद के प्रशासक ने कहा। मसजिद विवादित हो गई है, उसपर ताला लगाना ही पड़ेगा।
ध्यान देने की बात है कि मुसलमान अपना कोई धार्मिक या सामाजिक विधान हिंदुओं के किसी आचरण के जवाब में या उसकी प्रतियोगिता में शुरू नहीं करता। हिंदू कभी कुरआन के जवाब में गीता लाते हैं, तो कभी जुमे की नमाज़ के जवाब में भजन, कभी हिजाब के जवाब में भगवा गमछा। क्या यह हीनता ग्रंथि है? मन में बैठी कोई गाँठ जिससे वे हर मुसलमान प्रतीक या व्यवहार को विवादित बनाना चाहते हैं खुद को उनका प्रतियोगी बनाकर?
हिंदुओं को सोचना ही पड़ेगा कि क्यों बिना मुसलमानों को संदर्भ बनाए उनका कोई काम पूरा नहीं होता? जैसे राम नवमी का हो या कोई दूसरा धार्मिक जुलूस, मसजिद के आगे जब तक रुककर नाच गाना नहीं कर लें, हिंदुओं की धार्मिक आस्था तुष्ट नहीं होती। वे अपना जुलूस जब तक मुसलमान मोहल्ले से न निकालें, उनकी यात्रा पूर्ण नहीं होती। आजकल देखा जाता है कि धार्मिक अवसरों पर भी मुसलमानों या पाकिस्तान को गाली देते हुए गाने बजाए जाते हैं। इसमें कोई आध्यात्मिक शान्ति नहीं है, अपने चुने हुए शत्रु को अपमानित, पराजित करने का क्षुद्र सांसारिक सुख है।
तो हिंदू अपने किसी धार्मिक आचरण की श्रेष्ठता के कारण नहीं बल्कि अपने संख्याबल और सरकार की मिलीभगत से मुसलमानों और ईसाइयों को 'पराजित' कर रहे हैं। इससे वे बेहतर साबित नहीं होते।
जब यही हिंदू दूसरे देशों में जाते हैं, मसलन अमरीका या ब्रिटेन तो पाते हैं कि उन्हें अपना कोई धार्मिक आचरण छोड़ने को नहीं कहा जाता। वहाँ ईसाई संख्याबल से हिंदुओं को दबाया नहीं जाता। लेकिन खुद को सबसे उदार और सहिष्णु कहनेवाले हिंदू धरती के जिस टुकड़े पर संयोग से बहुसंख्या में हैं, वहाँ वे संख्याबल से अल्पमत पर हर प्रकार की हिंसा या तो कर रहे हैं या होते देख रहे हैं। इससे उनके बारे में क्या धारणा बनती है?
अभी यह टिप्पणी समाप्ति की तरफ़ बढ़ रही थी कि मद्रास उच्च न्यायालय का एक फ़ैसला पढ़ा। यह एक हिंदू की उस याचिका को खारिज करनेवाला निर्णय है जो अपने मोहल्ले में चर्च के निर्माण के ख़िलाफ़ उसने लगाई थी। याचिकाकर्ता ने कहा कि इलाक़ा रिहायशी है इसलिए धार्मिक स्थल की इजाजत नहीं दी जा सकती। अदालत ने उसे ध्यान दिलाया कि वहाँ पहले से मंदिर है। इसलिए यह तर्क बेकार है। लेकिन आख़िर में अदालत ने जो कहा वह सिर्फ़ तमिलनाडु नहीं, कर्नाटक, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पूरे भारत और विश्व के हिंदुओं को सुनना चाहिए। उसने कहा, “याचिकाकर्ता को अपने आसपास रहनेवाले हरेक के साथ रहना सीखना चाहिए। (उसे) आसपास रहनेवालों को स्वीकार करना चाहिए; उसे विभिन्न विश्वासों, मतों, धर्मों के लोगों को और संविधान में उन्हें दिए गए अधिकारों को स्वीकार करना चाहिए। यह एक धर्मनिरपेक्ष देश है जो (प्रत्येक प्रकार के) धार्मिक आचरण को मान्यता देता है। याचिकाकर्त्ता उसके विरुद्ध शिकायत नहीं कर सकता।"
कर्नाटक में भी न तो कॉलेज, न सरकार मुसलमान छात्राओं के धार्मिक आचरण के विरुद्ध शिकायत कर सकती है। उन्हें और हिंदुओं को विविधता के साथ जीना सीखना होगा। लेकिन भारत के हिंदू तो सदियों से साझा ज़िंदगी जीते आए हैं। इसी वजह से पूरी दुनिया में बाक़ी कमियों के बावजूद उन्हें इज्ज़त से देखा जाता रहा है। अब क्या अदालतों को उन्हें याद दिलाना पड़ेगा कि वे यह जानते हैं और इसका पालन करें? क्या वे भाजपा और आरएसएस के हथियार बन जाएँगे और अपना मानवीय गुण छोड़ देंगे? कर्नाटक फिर यह चुनौती उनके सामने पेश करता है।
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