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रंजनी श्रीनिवास

क्या ट्रम्प की नीतियां यूएस में ‘मैककार्थी युग’ की वापसी का संकेत हैं?

भारतीय विद्यार्थियों का अमरीकी सपना टूटता जान पड़ता है। पिछले दिनों भारतीय छात्रा रंजनी श्रीनिवास के अमरीकी वीज़ा रद्द होने के बाद उनके किसी तरह अमरीका से निकलकर कनाडा में छिपने की  भारत के लिए ख़तरे की घंटी होनी चाहिए। लेकिन वह बज रही हो तो सुनाई भी पड़ रही है, इसका सबूत नहीं क्योंकि भारतीय मीडिया के लिए यह बड़ी खबर नहीं है। एक भारतीय विद्यार्थी का वीज़ा अमरीका ने रद्द कर दिया, इस पर भारत सरकार की भी कोई प्रतिक्रिया नहीं है।
भारत के एक श्रेष्ठ शिक्षा संस्थान सेंटर फॉर इनवायरन्मेंटल प्लानिंग एंड टेक्नोलॉजी से उन्होंने स्नातक की डिग्री हासिल की और बाद में अमरीका के हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाई की। उन्हें प्रतिष्ठित नेहरू फ़ुलब्राइट स्और इनलैक्स स्कालरशिप भी मिली थी। आगे शोध के लिए उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया था। लेकिन अमरीकी सरकार ने उनपर यह आरोप लगाते हुए उनका वीज़ा रद्द कर दिया कि वे ‘हमास’ समर्थक गतिविधियों में संलग्न थीं। रंजनी अगर ख़ुद वहाँ से नहीं आ जातीं तो उनकी गिरफ़्तारी तय थी। 
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रंजनी ने हिंदू अख़बार को जो इंटरव्यू दिया है, उसमें उन्होंने किसी राजनीतिक सक्रियता से भी इनकार किया है। फिर भी उन्हें मात्र उनके विचारों के लिए दंडित किया गया है। 
जब अमरीकी सरकार किसी पर ‘हमास’ समर्थक होने या यहूदी विरोधी होने का इल्ज़ाम लगाती है तो उसका एक ही मतलब है: वह व्यक्ति फ़िलिस्तीन की आज़ादी का समर्थक है और फिलिस्तीनियों पर इज़राइली हमले का विरोध कर रहा है। हम कह सकते हैं कि रंजनी सस्ते छूट गईं क्योंकि वे  जिस विश्वविद्यालय  में शोध के लिए गई थीं, वहाँ पढ़ाई किए हुए महमूद ख़लील को उनके पहले इसी आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया है और उन्हें प्रत्यर्पित करने की कोशिश की गई। अदालत ने प्रत्यर्पण पर अभी रोक लगाई है लेकिन वे हिरासत में ही हैं। उनकी स्थिति रंजनी से बेहतर मानी जानी चाहिए थी क्योंकि उनके पास ग्रीन कार्ड है और उन्होंने  एक अमरीकी नागरिक से विवाह किया है।लेकिन यह भी उनके लिए सुरक्षा कवच का काम नहीं कर पाया। 

एक विद्यार्थी की गिरफ़्तारी पर देश के सर्वोच्च पद पर बैठे, सबसे ताकतवर आदमी की ख़ुशी डरानेवाली है।


ख़लील की गिरफ़्तारी पर अमरीका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प के बयान को उसकी भयावहता को समझने के लिए पूरा पढ़ना चाहिए: “मेरे पूर्व हस्ताक्षरित कार्यकारी आदेशों का पालन करते हुए, ‘आई सी ई’ ने गर्व के साथ कोलंबिया विश्वविद्यालय के परिसर में एक कट्टरपंथी विदेशी समर्थक हमास छात्र महमूद खलील को गिरफ्तार कर लिया। यह आनेवाली कई गिरफ्तारियों में से पहली है। हम जानते हैं कि कोलंबिया और देश भर के अन्य विश्वविद्यालयों में ऐसे बहुत से छात्र हैं जो आतंकवाद समर्थक, यहूदी विरोधी, अमेरिका विरोधी गतिविधियों में संलिप्त हैं और ट्रम्प प्रशासन इसे बर्दाश्त नहीं करेगा। इनमें से कई छात्र नहीं हैं, वे वेतनभोगी आंदोलनकारी हैं। हम इन आतंकवाद समर्थकों को ढूंढेंगे, पकड़ेंगे और अपने देश से निर्वासित करेंगे - ताकि वे फिर कभी वापस न आएं। यदि आप निर्दोष पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्या सहित आतंकवाद का समर्थन करते हैं, तो आपकी उपस्थिति हमारी राष्ट्रीय और विदेश नीति के हितों के विपरीत है, और आपका यहां स्वागत नहीं है। हम उम्मीद करते हैं कि अमेरिका के सभी कॉलेज और विश्वविद्यालय इसका अनुपालन करेंगे।”
इसका मतलब यह है कि हरेक आदमी पर, उसके दिमाग़ पर नज़र है और कोई भी कहीं सरकार से महफ़ूज़ नहीं है।अमरीकी सरकार ने कहा है कि अगर किसी का ख़्याल है कि ग्रीन कार्ड उसे बचा लेगा तो वह भ्रम में है। अमरीका की नागरिकता किसी का अधिकार नहीं। उसे कभी भी रद्द किया जा सकता है। डॉनल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद हर किसी पर तलवार लटक रही है जिनमें कुछ भी ‘बाहरी’ तत्त्व है। क्या इससे भारतीय चिंतित हैं? वे जिनका आख़िरी सपना अमरीका जाना और वहाँ बस जाना होता है? फिर वहाँ से भारत का गुण गाना होता है?
महमूद ख़लील के बाद एक दूसरी विद्यार्थी लेका कोर्डिया को भी गिरफ़्तार कर लिया गया है। 
रंजनी और ख़लील या लेका का मामला अमरीका में ‘मैककार्थी युग’ (McCarthy Era) की वापसी का संकेत है। उसका एक महत्त्वपूर्ण हिसा था शिक्षा संस्थानों पर क़ब्ज़ा और वहाँ स्वतंत्र चिंतन का ख़ात्मा। उस वक्त भी सरकार का दावा था कि वह अमरीका विरोधी लोगों पर कार्रवाई कर रही है। अध्यापक, वैज्ञानिक, लेखक, चित्रकार, फ़िल्मकार, पत्रकार बड़ी संख्या में जेल में डाले गए और नौकरी से निकाले गए।उस समय जिन लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा था उन पर अमरीका विरोधी होने के साथ कम्युनिज्म के प्रचार का आरोप भी था। 
Trump Policies: Sign of return of 'McCarthy era' in US - Satya Hindi
महमूद खलील की गिरफ्तारी के विरोध में अमेरिकी छात्र प्रदर्शन करते हुए
ट्रम्प के समय जिन पर हमला किया जा रहा है, उन्हें अमरीका विरोधी होने के साथ यहूदी विरोधी कहा जा रहा है। मक्कार्थी की तरह ही ट्रम्प ने भी उन संस्थानों पर अपना शिकंजा कसा है जिन्हें विचार और चिंतन के परिसर कह सकते हैं। इस बार यह अधिक निर्लज्ज तरीक़े से किया जा रहा है। ट्रम्प ने हुक्म दिया है कि इन संस्थानों में विविधता, समानता और समावेश सुनिश्चित करनेवाले जितने कार्यक्रम हैं, उन्हें बंद किया जाना चाहिए। यह कुछ वैसा ही है जैसे भारत में औरतों, अनुसूचित जाति, जनजाति और अल्पसंख्यकों के लिए प्रावधान समाप्त कर दिए जाएँ। साथ ही वैसे पाठ्यक्रमों को भी ख़त्म करना होगा जो अमरीकी मूल्यों के विरुद्ध हैं। ट्रम्प के मुताबिक़ ‘जेंडर अतिवाद’ को बढ़ावा देनेवाले शैक्षिक कार्यक्रम बंद किए जाने चाहिए। 
यह आदेश भी जारी किया गया है कि पुरुष और स्त्री के अलावा और किसी जेंडर का उल्लेख कहीं नहीं होना चाहिए। जेंडर और ट्रांसजेंडर जैसे शब्दों को प्रतिबंधित किया गया है।वैज्ञानिक संस्थाएँ अपनी अपनी वेब साइट की सफ़ाई कर रही हैं कि ये शब्द न दिखलाई पड़ें । ढेर सारे शोध पत्र और पाण्डुलिपियों को रोक लिए गया है। ट्रम्प शासन ने ‘जेंडर आइडियोलॉजी’ के प्रसार के षड्यंत्र को रोकने का ऐलान किया है।
कोलंबिया यूनिवर्सिटी को अनुशासित करने के लिए उसके अनुदान में भारी कटौती की गई है। यह दूसरे विश्वविद्यालयों को भी इशारा है। अगर उन्हें अनुदान चाहिए तो न सिर्फ़ मानविकी और समाज विज्ञान में बल्कि विज्ञान में भी वैज्ञानिक विचारों और पद्धतियों का त्याग करना होगा।
यह तो कहने की बात ही नहीं कि अमरीका के परिसरों में  किसी प्रकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ख़याल अब सपना है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी को कहा गया है कि यह यहूदी विरोध की परिभाषा बदले, प्रदर्शनों के समय मास्क के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाए। यानी हर किसी की पहचान की जानी है जो किसी तरह एक सरकार विरोधी प्रदर्शन में शामिल है ताकि उसे दंडित किया जा सके। विश्वविद्यालय को यह भी कहा गया है कि मध्य पूर्व, अफ़्रीका और दक्षिण एशिया अध्ययन विभाग का संचालन सरकारी हाथों में दे दिया जाए।इसका कारण समझना भी कठिन नहीं है।
ट्रम्प सरकार के आदेशों का पालन करने की अफ़रा तफ़री देखकर हैरानी होती है कि यही देश है जिसका दावा था अकादमिक आज़ादी के मामले में वह दुनिया में अव्वल है। यह एक वजह थी कि शोध और ज्ञान निर्माण के मामले में वह दुनिया का नेतृत्व करता रहा है।लेकिन वह संभव हुआ है इस स्वतंत्रता के कारण। उसके कारण पूरी दुनिया से श्रेष्ठ मस्तिष्क अमरीकी विश्वविद्यालयों की तरफ़ खिंचे चले आते थे। अमरीकी विश्वविद्यालयों को इसका लाभ था कि पूरी दुनिया से तरह तरह के दिमाग़ उसके परिसरों में सक्रिय थे। अब वह उस विविधता को ही ख़त्म कर देना चाहता है।
आज राष्ट्रवाद ने अमरीकी दिमाग़ को जकड़ लिया है। राष्ट्रवाद को बुद्धि विरोधी होना ही है। इस मामले में कह सकते हैं कि भारत अमरीका से आगे था। अमरीका ने उसका अनुसरण किया है। ट्रम्प ने ‘देशभक्त शिक्षा आयोग’ के गठन की घोषणा की है। जैसे भारत में विश्वविद्यालयों में अर्बन नक्सल प्रभाव के उच्छेद का अभियान चलाया जा रहा है, वैसे ही अमरीका में ‘वोक’ संस्कृति और वामपंथी साज़िश के सफ़ाए की मुहिम शुरू कर दी गई है।
ट्रम्प के ताबड़तोड़ हमलों  के आगे ख़ुद को स्वतंत्र कहनेवाले अमरीकी शिक्षा संस्थान लड़खड़ा गए हैं बल्कि उनमें से ज़्यादातर ने घुटने टेक दिए हैं। तो क्या  फ़िलहाल यह अमरीकी विश्वविद्यालय के अंत की शुरुआत है? 
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क्या ये सारी बातें वे भारतीय सोच रहे हैं जो अपने बच्चों को लाखों लाख खर्च कर अमरीकी विश्वविद्यालयों में भेज रहे हैं? क्या रंजनी के साथ किए गए बर्ताव से वे चिंतित हैं? या वे अपने बच्चों को यह मशविरा देंगे कि उन्हें काम से काम रखना चाहिए और रंजनी की तरह फ़ालतू ख़याल नहीं पालने चाहिए? क्या वे अध्यापकों की बर्ख़ास्तगी से फ़िक्रमंद होंगे? क्या वे देखना चाहेंगे कि आख़िर वह पाठ्यक्रम कैसा है जो उनके बच्चे पढ़ने जा रहे हैं? या उनके लिए बस अमरीकी ठप्पा ही काफी  होगा? 
(इस लेख में अपूर्वानंद ने मैककार्थी युग का जिक्र किया है। पाठकों की सुविधा के लिए बता दें कि इसका आशय क्या है-मैककार्थी युग (McCarthy Era) 1950 के दशक की शुरुआत में अमेरिका में उस दौर को कहा जाता है जब सीनेटर यानी सांसद जोसेफ मैककार्थी ने सरकार, मीडिया, हॉलीवुड और अन्य क्षेत्रों में कम्युनिस्टों की खोज और उन पर आरोप लगाने का अभियान चलाया। इस दौर में हजारों लोगों पर कम्युनिस्ट या देशद्रोही होने का संदेह किया गया, कई को नौकरी से निकाल दिया गया या ब्लैकलिस्ट कर दिया गया। यह समय रेड स्केयर (Red Scare) यानी कम्युनिज्म का डर फैलाने के लिए जाना जाता है। इस युग में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गंभीर प्रभाव पड़ा, और कई निर्दोष लोगों को अनुचित रूप से दंडित किया गया। अंततः, जब मैककार्थी के दावों को बेबुनियाद पाया गया, तो उनका प्रभाव कम हो गया और यह युग समाप्त हो गया। संपादनः यूसुफ किरमानी)
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अपूर्वानंद
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