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कानिफनाथ समाधि स्थल

मुसलमान विरोधी हिन्दूः क्या यह परिभाषा बहुसंख्यकों को स्वीकार है

महाराष्ट्र सरकार के मंत्री खुलेआम संविधान की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं।वे हिंदुओं को मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा करने के लिए उकसा रहे हैं। मंत्री नीतीश राणे ने अहिल्यानगर में मढ़ी के ग्रामीणों को कहा है कि वे वहाँ चल रही मढ़ी यात्रा के उत्सव में मुसलमानों की भागीदारी पर प्रतिबंध का प्रस्ताव फिर से पारित करें। 

मढ़ी यात्रा का उत्सव कोई दो हफ़्ते चलता है जिसमें दूर दूर से लोग मढ़ी स्थित कानिफ़नाथ की समाधि के इर्द गिर्द जमा होते हैं। फाल्गुन माह में यहाँ मेला लगता है । फाल्गुन की कृष्ण पक्ष पंचमी से शुरू होकर चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तक यह मेला लगता है। इसके केंद्र में कानिफ़नाथ या कन्होवा हैं जिन्हें नवनाथ संप्रदाय के नौ महा योगियों में एक एक माना जाता है। उनकी समाधि मढ़ी में है। इस मौक़े पर ख़ासकर घुमंतू समुदायों के लोग एकत्र होते हैं। 
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यह दिलचस्प है कि कानिफनाथ की समाधि बेगम चाँद बीबी के मामा की निगरानी में बनाई गई थी। इसे मुसलमान स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है। मुसलमान स्थापत्य या हिंदू स्थापत्य जैसी अवधारणा पर बहस की जा सकती है। असल बात यह है कि इसके स्थापत्य पर मुसलमानों की छाप है। चार मंदिरों के इस प्रांगण में हिंदू और मुसलमान, दोनों ही ज़माने से आराधना करते रहे हैं। लेकिन अब इसे मुसलमानों के लिए निषिद्ध करने की कोशिश की जा रही है। 

इस साल 22 फ़रवरी को मढ़ी की ग्राम सभा ने एक प्रस्ताव पारित करके फ़ैसला किया कि मेले के दौरान मुसलमानों को दुकान लगाने की या किसी और व्यवसाय की इजाज़त नहीं होगी।इस प्रस्ताव के बारे में जानकारी मिलने पर अहिल्यानगर के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी आशीष येरेकर ने अपने प्रखंड विकास अधिकारी शिवाजी कांबले को इस प्रस्ताव की वैधता की जाँच करने को कहा। जाँच के बाद उन्होंने इसे निरस्त कर दिया।उन्होंने इसका कारण यह बतलाया कि ग्राम सभा में पर्याप्त कोरम न था और इसमें दूसरी तकनीकी या प्रक्रियागत त्रुटियाँ थीं। 

अहिल्यानगर के अभिभावक मंत्री राधाकृष्ण विखे-पाटिल ने प्रस्ताव का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि ग्राम सभा को मुसलमानों पर प्रतिबंध लगाने का पूरा अधिकार है। 
मात्र प्रक्रिया के कारण नहीं, यह कहा जाना चाहिए था कि यह प्रस्ताव संविधान का सीधा उल्लंघन है इसलिए अवैध है। यह अधिकारीगण नहीं कह पाए।लेकिन मंत्री नीतीश राणे ने यह ज़रूर कहा कि यह ऐतिहासिक कदम है।उनके मुताबिक़ यह इसका प्रमाण है कि गाँव में कट्टर हिंदू जाग उठे हैं। यह कदम पूरे देश को दिशा दिखलाएगा।
ऐसा लगता है कि राणे की यह बात सही है। उत्तर प्रदेश में एक हिंदुत्ववादी संगठन धर्म रक्षा संघ ने ब्रज और आस पास होली के उत्सव में मुसलमानों की भागीदारी पर प्रतिबंध लगाने की माँग की है। बहुत से लोगों ने इस संगठन का नाम न सुना होगा लेकिन आज से कुछ साल पहले तक बजरंग दल का नाम भी कितने लोग जानते थे?
हिंदू पर्व त्योहारों में मुसलमानों को प्रतिबंधित करने के उदाहरण पहले से मौजूद हैं। गुजरात के गरबा में मुसलमानों की भागीदारी पर रोक लगाना या सावन में मेंहदी लगाने से मुसलमानों को रोकना : यह हम सुनते रहे हैं। यह सब कुछ अब जायज़ माना जाने लगा है। नवंबर में मध्य प्रदेश के दमोह में स्वदेशी जागरण मंच ने एक व्यापार मेला आयोजित किया। आयोजकों ने मेले के बीच से मुसलमान व्यापारियों को बाहर कर दिया। इन व्यवसायियों ने मेले में जगह के लिए बाक़ायदा फ़ीस दी थी। उसके बाद यह किया गया।ज़िलाधिकारी ने कहा कि वे इसकी जाँच करेंगे।लेकिन साथ ही यह भी कहा कि मेले के आयोजकों को इसका अधिकार है कि वे तय करें कि इसमें कौन शामिल हो, कौन न हो। 
संविधान की शपथ लेकर पूरे ज़िले के सारे लोगों के साथ समान भाव से पेश आने की ज़िम्मेवारी वाले पद पर बैठा एक अधिकारी यह न देख पाया कि आयोजक संविधान का उल्लंघन कर रहे थे, कहना और कार्रवाई करना तो दूर की बात है। 
अभी हमने कुंभ से मुसलमानों को बाहर किए जाने की खबरें सुनी हैं। उस कुंभ से जिसे महाएकता पर्व कहा जा रहा है।किसी ऐरे ग़ैरे ने नहीं, अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष ने कहा कि मुसलमानों को कुंभ में कोई दुकान लगाने की इजाज़त न होगी। उनका कहना था कि या इसलिए करना होगा क्योंकि मुसलमान हिंदू धर्म को भ्रष्ट करते हैं। साथ ही यह भी कहा कि मुसलमान भाई समान हैं, उनसे कोई दुश्मनी नहीं है लेकिन कुंभ के ‘एकता स्थल’ पर उन्हें अनुमति नहीं है।मुसलमान भाई हैं लेकिन वे अलग घर ले कर रहें। हिंदुओं से घुलने मिलने का प्रयास न करें।

बाद में क्या हुआ, इसकी रिपोर्ट हमें नहीं मिली। कुंभ तो धार्मिक आयोजन था लेकिन दमोह का व्यापार मेला धार्मिक न था। उसमें मुसलमानों के बहिष्कार का क्या तर्क था? दमोह के अधिकारियों ने भी इस पर क्या कार्रवाई की, हमें मालूम न हुआ।मुसलमानों के साथ भेदभाव को अख़बारवाले भी सामान्य बात मानने लगे हैं। 

क्या कोई आज यह निर्णय कर सकता है कि किसी मेले या आयोजन से अनुसूचित जाति या जनजाति के लोगों को बाहर कर दिया जाए? या औरतों को? हम जानते हैं कि ऐसा होते ही ऐसे लोगों पर मुक़दमा दर्ज किया जाएगा क्योंकि यह संविधान के मुताबिक़ अपराध है। क्या कोई हाउसिंग सोसाइटी यह प्रस्ताव पारित कर सकती है कि इन समुदायों के लोगों को मकान नहीं दिए जाएँगे? हम जानते हैं कि यह किया जाता है लेकिन क्या वे इसका ऐलान कर सकते हैं? 
लेकिन यह भेदभाव भारत में मुसलमानों के साथ एलानिया किया जा सकता है। किसी मुसलमान को मकान बेचने पर मोहल्ले के हिंदू विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं और कहीं उसके होटल खोलने पर सड़क को पवित्र करने का अभियान चला सकते हैं। वे किसी मुसलमान के संस्कृत अध्यापक होने पर भी विरोध कर सकते हैं। उनपर कोई कार्रवाई नहीं होगी क्योंकि क़ानून की रक्षा करनेवालों को यह ग़ैर क़ानूनी नहीं लगता।
येरेकर या कांबले जैसे अधिकारी प्रक्रिया के तर्क का सहारा शायद इसीलिए लेते हैं। ऐसे अधिकारियों के ऊपर विखे-पाटिल या नीतीश राणे या नरेंद्र मोदी जैसे लोग बैठे हैं।या भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। इनके लिए हिंदू वह है जो मुसलमानों का विरोधी है या जिसके मुसलमान विरोधी हैं। क्या हिंदुओं ने अपनी यह परिभाषा स्वीकार कर ली है? 
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हिंदुओं के बीच से इसका कोई विरोध दिखलाई नहीं पड़ता। हम कह सकते हैं कि सामान्य हिंदू आख़िर इसका विरोध करे भी कैसे? अगर वह मुसलमान के बहिष्कार से सहमत न भी हो तो इस बात को ज़ाहिर कैसे करे अगर उसके सामने बजरंग दल या भाजपा है? लेकिन यह तो उम्मीद की ही जा सकती है कि ग़ैर भाजपा दल इसका विरोध करें। वे भी सड़क पर आएँ। आख़िर उनमें भी हिंदू ही बहुसंख्यक हैं। 
अगर वे बोलें तो शायद वैसे हिंदुओं को बल मिले जो इस अलगाव के विचार के साथ नहीं हैं। फिर क्यों ग़ैर भाजपा दल यह नहीं करते? क्या वे मान बैठे हैं कि उनके हिंदू मतदाता भी अलगाववादी हैं? क्या हिंदू समाज में अब कोई नहीं बचा जो इस अलगाववाद का विरोध कर सके?
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अपूर्वानंद
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