जिसे शासक दल भारत का अमृत वर्ष कह रहा है, उसी वर्ष में सुभाषचंद्र बोस ने जिसे राष्ट्रपिता कहा था, उस गाँधी की हत्या का 75वां साल भी शुरू हो रहा है। स्वतंत्रता निश्चय ही अमृत है लेकिन उसमें इस हत्या का ही नहीं, इस हत्या की विचारधारा का विष मिला हुआ है, यह बात 30 जनवरी हमें भूलने नहीं देती। 30 जनवरी हमारे राष्ट्रीय चरित्र पर पड़नेवाली एक सर्चलाइट है। ऐसी जो उस चरित्र को छिपने की कोई जगह नहीं छोड़ती। एक देश, राष्ट्र या समाज के तौर पर हमें 30 जनवरी की रौशनी में खुद को पहचानने की ज़रूरत है।
इस रौशनी में सबसे अधिक उन्हें खुद को देखने की आवश्यकता है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य हैं या उसके विचार से सहानुभूति रखते हैं। यह मानना कठिन है कि उनमें कभी भी सिर्फ़ अपने आप पर विचार करने की इच्छा नहीं जगती होगी। कोई तो ऐसा क्षण होगा जब वे खुद से मुखातिब हों, अपने जीवन और विचार की समीक्षा करें। वैसे लोग जिनकी निगाह सिर्फ बाहर की तरफ होती है, वो सिर्फ दूसरों को देखते और उनमें दोष खोजते फिरते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ लोग नहीं हैं यह तो हम अपनी परंपरा के महान लोगों के माध्यम से ही जानते हैं।
तुलसीदास ने खुद को 'कुटिल खल' कहा था। वह दोहा भी हमारी परंपरा का है जो यह कहता है कि मैं जो बुरा ढूँढ़ने चला तो मुझसे बुरा कोई मिला नहीं। यह मात्र आत्म भर्त्सना नहीं है। लगातार अपनी परीक्षा करते रहने का ही एक आह्वान है। जो संघ से जुड़े लोग हैं, यह मानना भी असम्भव है कि उन्होंने अपने पूरे आत्म को संघ के हवाले कर दिया होगा। इसीलिए मैं यह लिख रहा हूँ कि 30 जनवरी उनके लिए अपनी निजी नैतिकता और संघ के द्वारा संगठित सामाजिक नैतिकता के स्तर या उसके गुण के बारे में सोचने का सबसे अच्छा मौक़ा है। 30 जनवरी उनसे कुछ सवाल करती है।
पहला सवाल यह कि वे गाँधी हत्या के विचार से सहमत हैं या नहीं? गाँधी की हत्या आखिर किसी कारण से ही की गई थी न? उनकी हत्या के बाद पूरे भारत में एक मात्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग थे जिन्होंने खुशी के दिये जलाए थे और मिठाइयाँ बाँटी थीं। जब उनका संगठन गाँधी के बुनियादी विचार को, यानी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के विचार को ही नष्ट करने के लिए बना है, तो फिर गाँधी उनके लिए प्रातः स्मरणीय कैसे और क्यों कर हैं?
संघ के तत्कालीन सर संघचालक गोलवलकर ने गाँधी की हत्या के पहले 8 दिसंबर, 1947 को रोहतक रोड पर संघ के शिविर में 2,500 स्वयंसेवकों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि “दुनिया की कोई भी ताक़त कितना भी चाह ले, भारत में मुसलमानों का रहना असंभव है। उन्हें भारत छोड़ना ही पड़ेगा। महात्मा गाँधी उन्हें भारत में इसलिए रखना चाहते हैं कि चुनाव के समय उनके वोट से कॉंग्रेस को फायदा हो सके। लेकिन उस समय तक एक भी मुसलमान भारत में बचा नहीं रहेगा। अगर वे यहाँ रोके गए तो इसकी जिम्मेवारी सरकार की होगी और हिंदू समुदाय उसके लिए जिम्मेवार नहीं होगा।"
साफ़ है कि जो मुसलमान भारत में रहेंगे उन्हें ख़त्म कर देने की धमकी दी जा रही है। आगे गोलवलकर ने कहा कि “गाँधी हमें और अधिक गुमराह नहीं कर सकते। ऐसे लोगों को फौरन ही खामोश करने के उपाय हमारे पास हैं... अगर हमें मजबूर किया गया तो वह उपाय अपनाने से भी हम परहेज नहीं करेंगे।"
गोलवलकर की चेतावनी के बाद भी गाँधी खामोश नहीं हुए। वे कहते रहे कि भारत पर मुसलमानों का अधिकार है और उनके घर, संपत्ति पर कब्जा अनैतिक और अपराध है। आखिरकार गाँधी को 20 जनवरी को मारने के लिए बम फेंका गया लेकिन जिन्हें उन्हें गोली मारनी थी, वे ऐसा नहीं कर पाए। वे लौटे और गाँधी को खामोश करने में कामयाब हुए। उन्हें जान से मार कर। लेकिन गाँधी के खून की आवाज़ जीवित गाँधी से ज़्यादा ताक़तवर साबित हुई। भारत में मुसलमान विरोधी हिंसा थम गई। मुसलमान दिल्ली में ही नहीं, भारत में बराबरी के अधिकार के साथ बने रहे। वे कॉंग्रेस को ही नहीं, दूसरे दलों को भी वोट देते रहे। सिर्फ़ आरएसएस के राजनीतिक दल, जन संघ और भारतीय जनता पार्टी को उनके वोट का लाभ नहीं मिला। आखिरकार आप मुझसे उसे चुनने को कैसे कह सकते हैं जो या तो मेरा क़त्ल करना चाहता है या मुझे गुलाम बनाना चाहता है? यह बात गुरु के शिष्यों, यानी स्वयंसेवकों को खटकती रही है। लेकिन अभी हम 30 जनवरी से भटकें नहीं।
जिस व्यक्ति को खामोश कर देने की धमकी गोलवलकर ने दी थी, उसे जब एक स्वयंसेवक ने खामोश कर दिया तो गुरुजी ने ही नहीं संघ ने भी उस स्वयंसेवक से पल्ला क्यों छुड़ा लिया? जिस गाँधीजी को हिंदू हित विरोधी घोषित किया था, उसी को खामोश कर दिए जाने के अगले दिन ही उन्हीं गुरुजी ने क्यों उन्हें श्रद्धेय ठहराया, उन्हें श्रद्धांजलि दी? इतना ही नहीं, अपने स्वयंसेवक से खुद को दूर दिखलाने की हर संभव कोशिश क्यों की?
जो गोलवलकर करना चाहते थे, जिसके बारे में उन्होंने कहा था कि उनके पास ऐसा करने के तमाम उपाय हैं, उसे जब एक स्वयंसेवक गोडसे ने किया तो संघ ने उस कृत्य को 'जघन्य और कायरतापूर्ण' क्यों कहा? 30 जनवरी, 1948 की रात जिसकी हत्या पर खुशी मनाई गई, उसी व्यक्ति की मृत्यु के शोक में 13 दिन अपने केंद्र क्यों बंद कर दिए? एक ही रात में अपने नेतृत्व के विचार में इतनी बड़ी तबदीली देखकर भी स्वयंसेवकों ने कुछ नहीं सोचा? क्या आत्मरक्षा के लिए किसी भी तरह का समझौता किया जा सकता है?
फिर जिस गाँधी से इतनी घृणा थी उसे प्रातः स्मरणीयों की पंक्ति में क्यों प्रतिष्ठित किया? यह प्रश्न इसलिए ज़रूरी है कि भीतर ही भीतर संघ से जुड़े सारे लोग आज भी गाँधी से घृणा करते हैं।
आज तक वे हर माध्यम से, सबसे नया माध्यम व्हाट्सऐप का है, वे गाँधी के विरुद्ध घृणा प्रचार करते रहते हैं। उन्हें बदनाम करने के लिए तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ते हैं? जब वे अंदर से उनसे घृणा करते हैं तो दुनिया को दिखलाने के लिए वे गाँधी के आगे सर क्यों झुकाते हैं? जब वे आपस में चर्चा करते हुए गाँधी हत्या की जगह गाँधी वध ही बोलते हैं तो फिर उनकी श्रद्धा के प्रदर्शन का औचित्य ही क्या है? फिर 30 जनवरी को वे गाँधी की समाधि पर शीश नमन करने का दिखावा क्यों? लेकिन 30 जनवरी इस चरित्र के एक मूल दोष की तरफ़ इशारा करती है।
यह दोष सिर्फ़ गाँधी की हत्या के बाद ही नहीं प्रकट हुआ। गाँधी की हत्या के बाद संघ के जीवन का दूसरा सबसे बड़ा कारनामा बाबरी मस्जिद का ध्वंस था। उस ध्वंस का पूरा अभियान राम जन्म भूमि के नामपर चलाया गया था। उसका नेतृत्व एक स्वयंसेवक लाल कृष्ण आडवाणी ने किया था। जाहिर है, यह उनका निजी निर्णय नहीं रहा होगा। अभियान का संचालन अकेले उन्होंने नहीं किया होगा। इसके आगे- आगे रहनेवाला विश्व हिंदू परिषद संघ से सम्बद्ध है। बाबरी मस्जिद का गिरना कोई उस जगह एकत्र 'कार सेवकों' के क्षणिक जोश का परिणाम न था, यह साबित है क्योंकि उसकी तैयारी के सबूत हैं। लेकिन मस्जिद गिराए जाने के बाद संघ के सारे लोगों ने बाबरी मस्जिद ध्वंस के अपराध से खुद को दूर कर लिया। आखिरकार वह अपराध था। वह किया किन लोगों ने? और कौन वह अपराध करने उन्हें वहाँ लाया था?
बाबरी मस्जिद ध्वंस का पूरा राजनीतिक लाभ संघ ने लिया लेकिन ध्वंस की जिम्मेवारी नहीं ली।
यह दस्तावेजों से प्रमाणित है और अब धीरेंद्र झा ने अपनी नई किताब में गोडसे के मुक़दमे के पहले के मराठी बयान के हवाले से प्रमाणित कर दिया है कि गोडसे का संबंध आरएसएस से बना हुआ था। अपने अंतिम क्षण में भी गोडसे ने संघ की वंदना का जाप किया। गोडसे ने देखा कि जिस संघ के लिए वह प्राण दे रहा था, उस संघ ने सार्वजनिक तौर पर उससे मुँह मोड़ लिया। वैसे ही जैसे खुद को वीर कहनेवाले सावरकर ने अपनी योजना के अनुसार गाँधी की हत्या हो जाने के बाद उसे करनेवाले अपने शिष्य से अदालत में, सार्वजनिक रूप से आँख भी नहीं मिलाई।
क्या यह चरित्र बल का प्रमाण है? जब हम जिसपर विश्वास करते हैं उसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार न कर पाएं तो निश्चय ही वह अनैतिक है। 30 जनवरी हर वर्ष आरएसएस को यह चुनौती देती है: या तो इसकी जिम्मेवारी लो या इसके पीछे के विचार से खुद को दूर करो। एक साथ गाँधी वध कहते हुए गाँधी को माथा झुकाते तस्वीर खींचना चालाकी तो है, वीरता कतई नहीं।
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