“चुनाव के पहले तक का वक्त आनंदपूर्ण होता था, बहसों से भरा हुआ और एक क़िस्म के जश्न जैसा। तब भी जब दशकों तक प्रायः एक पार्टी का ही शासन हुआ करता था यह ख़ासा रंग भरा हुआ करता था। अब तो हरेक चीज़ और सबकुछ इतनी घटिया और घृणित है कि हम इसमें जश्न मनाने जैसा कुछ भी नहीं पाते। मैं सिर्फ़ उम्मीद करता हूँ कि एक समाज के तौर पर अगले 12 हफ़्ते हम इस अरुचिकर कटुता को झेलकर पार कर पाएँ।”
चुनाव अब आनंदपूर्ण जश्न क्यों नहीं होते?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 18 Mar, 2024

चुनाव सिर्फ़ सरकार बनाने के लिए नहीं होता। हर चुनाव जनता का निर्माण भी करता है। लेकिन क्या ऐसा हो रहा है?
लोक सभा चुनाव की घोषणा के कोई 1 महीना पहले पत्रकार यशवंत देशमुख ने अपना अफ़सोस ज़ाहिर किया। देशमुख को सत्ता विरोधी पत्रकारों में नहीं गिना जाता। जो वे कह रहे हैं वह इस देश के अनेकानेक लोग महसूस करते रहे हैं लेकिन उसे इस तरह कहा नहीं गया। देशमुख को सत्ता विरोधी पत्रकारों में नहीं गिना जाता इसलिए उनकी बात की साख होनी चाहिए। वरना सत्ता विरोधी होने के कारण ही आपकी किसी बात का, वह कितनी ही तथ्यपूर्ण क्यों न हो, कोई मोल नहीं रह जाता। जैसे चुनाव आयोग की चुनाव के घोषणा वाले पत्रकार सम्मेलन में पत्रकार ऐश्लिन मैथ्यूज़ ने मुख्य चुनाव आयुक्त से सवाल किया कि वे अनुचित भाषा के लिए विपक्षी नेताओं की तो तुरत फुरत और कसरत से तम्बीह करते हैं लेकिन वे सत्ताधारी दल के नेताओं, जैसे प्रधानमंत्री या गृहमंत्री को उनकी आपत्तिजनक भाषा पर कुछ नहीं कहते। चुनाव आयुक्त ने इस सवाल को जवाब देने लायक़ भी नहीं समझा। लेकिन सारे लोग, यशवंत देशमुख जैसे लोग भी उनके सवाल से सहमत तो होंगे ही। फिर भी उनका सवाल इसलिए ख़ारिज कर दिया गया कि वे ‘नेशनल हेराल्ड’ से संबद्ध हैं जो कांग्रेस पार्टी से जुड़ा हुआ अख़बार है।