“चुनाव के पहले तक का वक्त आनंदपूर्ण होता था, बहसों से भरा हुआ और एक क़िस्म के जश्न जैसा। तब भी जब दशकों तक प्रायः एक पार्टी का ही शासन हुआ करता था यह ख़ासा रंग भरा हुआ करता था। अब तो हरेक चीज़ और सबकुछ इतनी घटिया और घृणित है कि हम इसमें जश्न मनाने जैसा कुछ भी नहीं पाते। मैं सिर्फ़ उम्मीद करता हूँ कि एक समाज के तौर पर अगले 12 हफ़्ते हम इस अरुचिकर कटुता को झेलकर पार कर पाएँ।”
लोक सभा चुनाव की घोषणा के कोई 1 महीना पहले पत्रकार यशवंत देशमुख ने अपना अफ़सोस ज़ाहिर किया। देशमुख को सत्ता विरोधी पत्रकारों में नहीं गिना जाता। जो वे कह रहे हैं वह इस देश के अनेकानेक लोग महसूस करते रहे हैं लेकिन उसे इस तरह कहा नहीं गया। देशमुख को सत्ता विरोधी पत्रकारों में नहीं गिना जाता इसलिए उनकी बात की साख होनी चाहिए। वरना सत्ता विरोधी होने के कारण ही आपकी किसी बात का, वह कितनी ही तथ्यपूर्ण क्यों न हो, कोई मोल नहीं रह जाता। जैसे चुनाव आयोग की चुनाव के घोषणा वाले पत्रकार सम्मेलन में पत्रकार ऐश्लिन मैथ्यूज़ ने मुख्य चुनाव आयुक्त से सवाल किया कि वे अनुचित भाषा के लिए विपक्षी नेताओं की तो तुरत फुरत और कसरत से तम्बीह करते हैं लेकिन वे सत्ताधारी दल के नेताओं, जैसे प्रधानमंत्री या गृहमंत्री को उनकी आपत्तिजनक भाषा पर कुछ नहीं कहते। चुनाव आयुक्त ने इस सवाल को जवाब देने लायक़ भी नहीं समझा। लेकिन सारे लोग, यशवंत देशमुख जैसे लोग भी उनके सवाल से सहमत तो होंगे ही। फिर भी उनका सवाल इसलिए ख़ारिज कर दिया गया कि वे ‘नेशनल हेराल्ड’ से संबद्ध हैं जो कांग्रेस पार्टी से जुड़ा हुआ अख़बार है।
यशवंत देशमुख पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता। वे न सिर्फ़ सत्ता के विरोधी नहीं हैं बल्कि उसमें ‘सकारात्मकता’ देख पाने की क्षमता उनमें है। इसलिए उनकी बात को ऐश्लिन मैथ्यूज़ की तरह अनसुना नहीं करना चाहिए। उनकी शिकायत और तकलीफ़ पर विचार करना उचित होगा।
उन्हें उन वक्तों के चुनाव प्रचार की भी याद है जब देश में एक ही दल कांग्रेस पार्टी का शासन हुआ करता था। उनके मुताबिक़ उस वक्त वह घटियापन, घिनौनापन प्रचार में न था जिसकी शिकायत देशमुख आज के चुनाव प्रचार के प्रसंग में कर रहे हैं। वे पिछले 10 वर्षों में चुनाव अभियान के दौरान इस्तेमाल की जानेवाली भाषा का स्तर इतना गिर गया है, उसमें इतनी कटुता और घृणा भर गई है कि उसे 12 हफ़्तों तक झेलना मुश्किल है।
यह कैसे हुआ? इस सवाल का जवाब देशमुख ने यह कहकर दिया कि कुछ लोग किसी भी क़ीमत पर जीतना चाहते हैं और जो हारते हैं वे अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहते। इस हालत के लिए दोनों बराबरी से ज़िम्मेवार हैं।
इस जवाब में संतुलनवाद है जो सच्चाई से बचने की कोशिश करता है। लेकिन एक पाठक ने थोड़े व्यंग्य में देशमुख को कहा कि नागरिकों में 24 घंटे कटुता भरते रहनेवाले पत्रकार अब किसी तरह ये 12 हफ़्ते पार कर लेना चाहते हैं। जो घृणा और कड़वाहट आप जैसे पत्रकारों ने फैलाई है, वह बरसों तक देश के लोगों में रहेगी।
इस व्यंग्यपूर्ण टिप्पणी के जवाब में देशमुख ने 2 रुपए के सिक्के की एक तस्वीर लगा दी। यानी यह सवाल दो टके के लिए पूछा गया है। इस तरह देशमुख ने वही किया जिसकी शिकायत वे कर रहे थे। सवाल में व्यंग्य था लेकिन क्या उसमें कोई दम नहीं? क्या एक वरिष्ठ पत्रकार होने के नाते उन्हें व्यंग्य के बावजूद इसका उत्तर नहीं देना चाहिए था? ऐसा न करके उन्होंने इसकी खिल्ली उड़ा दी।
टी वी चैनल कड़वाहट और घृणा फैला रहे हैं, इसका प्रमाण इस बात से मिल जाता है कि ख़ुद न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टेण्डर्ड्स अथॉरिटी को बार बार प्रमुख टी वी चैनलों पर घृणा फैलाने के लिए जुर्माना लगाना पड़ा है। और यह किसी एक चैनल की बात नहीं है।
एक दूसरे पाठक ने लिखा कि देशमुख को मालूम है कि यह शैतानियत कैसे और क्योंकर इस समाज के पोर पोर में भर गई है और कौन इसके लिए ज़िम्मेदार है। मीडिया उसकी वाहवाही में जुटा है और जयगान गाने में व्यस्त है। फिर इस कटुता की शिकायत क्यों? व्यंग्य को छोड़ भी दें तो देशमुख की शिकायत पर गौर करने की ज़रूरत तो है ही।
यशवंत देशमुख को ठीक ही इसकी फ़िक्र है कि चुनाव अभियान के ये 12 हफ़्ते कैसे पार होंगे जब कीचड़, पत्थर की बरसात हो रही होगी। लेकिन यह तो सोचना होगा ही कि ये 12 हफ़्ते जब देशमुख जैसे भले लोगों पर इतना भारी पड़ रहे हैं तो इस देश के मुसलमानों और ईसाइयों के लिए पिछले 10 साल से हर साल 12 महीने गुज़ारना कैसा अनुभव रहा है।
टी वी चैनल और मीडिया के दूसरे मंच दिन रात मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा का प्रचार करते हैं और मुसलमान इसे झेलते हैं। सोशल मीडिया के सारे मंचों से खुलेआम मुसलमानों को गाली गलौज दी जाती है, इस्लाम के ख़िलाफ़ घृणापूर्ण टिप्पणियाँ की जाती हैं और इसे स्वतंत्र अभिव्यक्ति के नाम पर उचित ठहराया जाता रहा है। हिंदुओं के पर्व त्योहारों के जुलूसों में खुलेआम मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा का प्रचार करनेवाले गाने बजाए जाते हैं। बड़ी बड़ी सभाएँ अलग अलग शहरों में होती हैं जिनमें मुसलमानों को मारने काटने के लिए हिंदुओं को उकसाते हुए भाषण दिए जाते हैं और नारे लगाए जाते हैं। हिंदुओं के धार्मिक नेता अपने ‘सत्संगों’ में मुसलमानों के ख़िलाफ़ अपमानजनक टिप्पणियाँ करते हैं और उनपर उनके हज़ारों भक्त ताली बजाते हैं और हँसते हैं।
भारतीय जनता पार्टी के नेता, जिनमें प्रधानमंत्री और दूसरे बड़े नेता शामिल हैं, कभी खुलकर और कभी प्रच्छन्न रूप से मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा भरे बयान देते ही रहते हैं। चुनाव क़रीब आते ही उनके इस तरह के भाषणों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है। भाजपा के नेताओं में होड़ सी लग जाती है कि कौन कितनी चालाकी से और कितने अधिक हिंसक तरीक़े से यह घृणा फैला सकता है।
मुसलमानों और एक हद तक ईसाई पिछले 10 सालों से अहर्निश इस घृणा को झेल रहे हैं। फिर भी वे कैसे अपना विवेक बनाए हुए हैं? यह प्रश्न क्या कभी यशवंत देशमुख ने किया है?
चंडीगढ़ में अपने युवा मित्रों से बात कर रहा था। एक ने बतलाया कि उनके कुछ सहपाठी मिलकर पार्टी कर रहे थे। उनमें एक मुसलमान था। उसे कहा जाने लगा कि चूँकि वे लोग यानी मुसलमान गोमांस खाते हैं, उनकी मस्जिदों पर पेशाब किया ही जाना चाहिए। उस मुसलमान मित्र को समझ में नहीं आया कि उसके मित्र उसके साथ यह कैसे कर सकते थे। इस घटना से उसे गहरा सदमा पहुँचा जिससे वह अब तक नहीं उबर पाया है।
लगभग हर मुसलमान के पास इस तरह के क़िस्से हैं। वे कैसे इस कटुता और घृणा को झेलकर अपना होश बनाए हुए हैं?
चुनाव सिर्फ़ सरकार बनाने के लिए नहीं होता। हर चुनाव जनता का निर्माण भी करता है। जनता-भाव का भी। जब दूसरे से, भारत के मामले में मुसलमानों से घृणा ही हिंदू जनता-भाव का आधार बन जाए तो क्या सिर्फ़ 12 हफ़्तों की चिंता काफी होगी?
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