दिल्ली पुलिस के अधिकारी मनोज कुमार तोमर रैडिकल हैं या नहीं? उन्हें रैडिकल किसने बनाया? क्या उन्हें निलंबित करने के साथ इसकी जाँच चल रही है कि आख़िर तोमर साहब इस कदर मुसलमान द्वेषी कैसे हो गए कि दोज़ानू नमाज़ियों को ठोकर मारने में उन्हें ज़रा भी हिचक नहीं हुई? या यह विचार का विषय ही नहीं है? या यह पूछने पर कहा जाएगा कि यह तिल को ताड़ बना देना है?
बात छोटी सी थी। तोमर को सड़क पर लोगों को नमाज़ पढ़ते देख ग़ुस्सा आगया और उस ग़ुस्से में उन्होंने नमाज़ियों को हटाने के लिए ठोकर मारी। ग़ुस्सा नमाज़ पढ़ने पर नहीं, इस बात पर आया कि उन्होंने इसके लिए सड़क घेर रखी थी और यातायात प्रभावित हो रहा था। यह देखकर उन्हें क्रोध आ गया। बस, बात इतनी ही थी। हाँ! इन्हें सड़क से हटाने के लिए उन्हें ठोकर न मारनी चाहिए थी।
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फर्ज कीजिए तोमर ठोकर न मारते और सिर्फ़ हाथों का इस्तेमाल करते? तब भी क्या लोगों को इतना ही बुरा लगता? या कहा जाता कि एक पुलिस अधिकारी होने के नाते उन्होंने अपने कर्तव्य निर्वाह में बल प्रयोग ही तो किया है?
लेकिन तोमर ने नमाज़ पढ़ते हुए सजदे में झुके लोगों को ठोकर मारी। एक बार नहीं। कई बार। ऐसा लगता है तोमर को नमाज़ के इस दृश्य से इतनी चिढ़ हुई कि उसे ठोकर मार कर ही वह व्यक्त कर सकता था।आमतौर पर मुसलमानों के साथ हिंसा को जायज़ मानने वालों को भी यह कुछ ज़्यादती सी लगी। इस कृत्य के ख़िलाफ़ आसपास के लोगों का क्रोध भड़क उठा। दिल्ली पुलिस ने तोमर को निलंबित करने में देर नहीं की।
क्या यह निलंबन पर्याप्त है? क्या दिल्ली पुलिस को यह चिंता न होनी चाहिए कि उसके एक अधिकारी में मुसलमानों के ख़िलाफ़ चिढ़ या नफ़रत इस कदर भर गई है कि वह एक नाक़ाबिले मंज़ूर हरकत कर सकता है? क्या यह एक रैडिकल दिमाग़ नहीं है?
मनोज कुमार तोमर और चेतन शर्मा में कितना फ़ासला है? चेतन शर्मा भी एक पुलिस अधिकारी था। रेलवे पुलिस में कार्यरत जिसने पिछले साल जुलाई में जयपुर मुंबई सेंट्रल एक्सप्रेस ट्रेन में 3 मुसलमान मुसाफ़िरों को बिला वजह मार डाला था। वह गिरफ़्तार है। लेकिन हमने उस हत्याकांड के बाद यह उत्सुकता नहीं देखी कि आख़िरकार चेतन शर्मा इस कदर रैडिकल कैसे हो गया कि उसने चुन चुनकर मुसलमान मुसाफ़िरों को मारा?
तोमर के कृत्य के पक्ष में अब तक काफ़ी कुछ कहा और लिखा जा रहा है। हाँ! उसे ठोकर न मारनी थी लेकिन सड़क जाम कर रहे नमाज़ियों को हटाने का दायित्व तो एक पुलिस अधिकारी होने के नाते उसका था ही। बहस जितनी तोमर पर होनी थी उससे ज़्यादा नमाज़ के चलते होनेवाले सड़क जाम की समस्या पर हो रही है। यह जानने के बावजूद कि भारत में सड़कें सिर्फ़ जुमे की नमाज़ से नहीं जाम होतीं।
दिल्ली में रहने वालों को मालूम है कि हर मंगलवार को क़रोल बाग या कश्मीरी गेट के पास के हनुमान मंदिर के पास की सड़क को पार करना कितना जानलेवा है। 5 मिनट की दूरी कई बार 15 से 30 मिनट में तय की जाती है। इसकेअलावा हर वृहस्पतिवार को साईं बाबा मंदिर के पास की सड़क के गुजरने के ख़याल से पसीना आ जाता है। साल भर, किसी न किसी मौक़े पर लगने वाले भंडारे, जो सड़क के किनारे कनात लगाकर किए जाते हैं जिनके चलते ट्रैफ़िक जाम हो जाता है। हर रोज़ झंडेवालान के मंदिर के क़रीब से गुजरने का अनुभव क्या है? ऐसे सैकड़ों उदाहरण दिल्ली और दूसरे शहरों से दिए जा सकते हैं। हर ऐसे मौक़े पर खीझ होती है लेकिन कोई नास्तिक भी नहीं सुझाव नहीं देगा कि इन सबको डंडे मार कर भगा देना चाहिए।
ऐसे हर मौक़े पर हम बर्दाश्त करते हैं। लेकिन जुमे की नमाज़ ज़रूर एक बहस का मसला बनी रहती है। मसला क्या सड़क पर नमाज़ पढ़ने का है? याद कीजिए, गुड़गाँव में ख़ाली पड़ी ज़मीन पर, जिसका सड़क और ट्रैफ़िक से कोई रिश्ता नहीं, जुमे की नमाज़ पढ़ने पर हिंदुत्ववादियों ने कैसा हंगामा खड़ा किया था? नमाज़ियों को ठोकर मारने की इस घटना से हम हतप्रभ इसलिए हैं कि हमें याद नहीं रह गया है कि गुड़गाँव में इन नमाज़ियों पर कितनी बार हमला किया गया था। उन मामलों में पुलिस ने हमलावरों के साथ क्या सलूक किया? सरकार ने क्या किया? हरियाणा सरकार के मंत्रियों ने धमकी के स्वर में कहा कि नमाज़ सिर्फ़ मस्जिद में पढ़ी जानी चाहिए। खुली ज़मीन पर नमाज़ पढ़ने के पीछे उनके मुताबिक़ साज़िश है ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने की।
जो लोग जुमे नमाज़ के वक्त वहाँ इकट्ठा होकर हनुमान चालीसा पढ़ने लगे या भजन कीर्तन करने लगे, उनके दिमाग़ में मुसलमान विरोधी घृणा किस रास्ते आई? या मुझे याद आया, मेरी एक छात्रा ने 22 जनवरी के बाद बतलाया कि वह जब एक कोने में नमाज़ पढ़ रही थी तो कुछ लोग आ गए और कहा कि यह सब यहाँ नहीं चलेगा। उसे यह उस परिसर में कहा गया जिसमें 22 जनवरी को घंटे घड़ियाल के साथ भजन कीर्तन और भंडारा हुआ और वह भी तब जब इम्तहान चल रहा था।अधिकारियों ने न तो माइक बंद करवाया न शोर शराबा।
फिर मसला न तो सड़क जाम का है और न सार्वजनिक असुविधा का। मामला सीधा है: राजकीय दिमाग़ का मुसलमान विरोधी घृणा से प्रदूषित होना। मनोज तोमर या चेतन शर्मा जैसे अधिकारियों का रैडिकल हो जाना। वे उसी समाज के अंग हैं या उसी की पैदाइश जिसकी नसों में दिन रात, टी वी, व्हाट्सएप, सोशल मीडिया के ज़रिए मुसलमान विरोधी घृणा का ज़हर भरा जा रहा है। हज़ारों हज़ार सरस्वती शिशु मंदिर, जिनमें पढ़ने वाले लाखों बच्चे और कई पीढ़ियाँ मुसलमानों की प्रत्येक गतिविधि को अगर घृणा नहीं तो शंका की निगाह से देखने की आदी बना दी गई है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाएँ जहाँ हिंदू राष्ट्रवाद कब मुसलमान विरोध के साथ घुलमिल जाता है, यह कई बार ख़ुद स्वयंसेवकों को भी नहीं पता चलता।
स्वयंसेवक यह सवाल ख़ुद से नहीं करते कि उनके प्रातः स्मरणीय गाँधी से वे सब सहज भाव से घृणा क्यों करते हैं और हालाँकि गोडसे की जयंती वे नहीं मनाते लेकिन उसे मन ही मन, और अब तो मुखर रूप से हिंदू उद्देश्य का शहीद कैसे मानते हैं?
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इस देश में माओवादी साहित्य या ‘इस्लामी’ साहित्य बरामद करके वामपंथी या इस्लामी रैडिकलाइज़ेशन’ का हव्वा खड़ा किया जाता है लेकिन गोडसे , सावरकर या गोलवलकर की किताब को शिक्षाप्रद माना जाता है।
अब लगभग हर हिंदू घर हिंदुओं को रैडिकल बनाने के अभियान का निशाना और केंद्र है। मनोज तोमर या चेतन शर्मा कोअपवाद नहीं मानना चाहिए।
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