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जेएनयू परिसर।फोटो साभार: @MayukhDuke

जेएनयू: वाम, दक्षिणपंथी या उदार विचार, सब साथ रह सकते हैं?

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनाव संपन्न हो गए हैं। 4 साल के बाद होनेवाले इन चुनावों में संयुक्त वामपंथी मोर्चे को जीत हासिल हुई है। ‘जे एन यू’ फिर से लाल हुआ’ जैसे नारे लिखे जा रहे हैं। लेकिन हर पद पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के उम्मीदवार कुछ ही अंतर से हारे हैं। इसलिए वे इसे अपनी जीत बतला रहे हैं क्योंकि आपस में मतभेद रहनेवाले वामपंथी उनके डर से एक साथ आए फिर भी उनके और ए बी वी पी के बीच फ़र्क महज़ कुछ सौ मतों का ही रहा। उनका तर्क है कि अगर पहले की तरह वे अलग अलग चुनाव लड़ते तो निश्चय ही ए बी वी पी को विजय हासिल होती। 

जे एन यू के छात्र संघ के चुनाव को लेकर बाहरी दुनिया में उत्सुकता और उत्तेजना असाधारण है। इस बार यह और अधिक थी। आख़िर ये चुनाव एक लंबे इंतज़ार के बाद हो रहे थे। इस बीच जे एन यू में बहुत कुछ बदला है। परिसर के बाहर भी। जे एन यू को आम तौर पर लोग, या कहें हिंदू समाज में बहुमत संदेह और घृणा से देखने लगा है। इसे मुसलमानों, वामपंथियों, देशद्रोहियों, आतंकवादियों के गढ़ के रूप में चित्रित किया जाने लगा है और इसने जनमत को प्रभावित किया है। पहले लोग अपने बच्चों को जे एन यू भेजने में शान का अनुभव करते थे, लेकिन अब इसे वे एक तरह की मजबूरी मानते हैं।

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यह अपने आप नहीं हुआ। 2016 से भारतीय जनता पार्टी और इसके सहयोगी संगठन जे एन यू के ख़िलाफ़ भयंकर दुष्प्रचार कर रहे हैं। उनके साथ  बड़ा मीडिया और सिनेमा जे एन यू की एक ख़ौफ़नाक तस्वीर लोगों के बीच प्रसारित करने में लगा हुआ है। जे एन यू के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया गया है। जे एन यू के अध्यापक फ़िल्मों के किरदार बन गए हैं और ख़ुद जे एन यू भी एक चरित्र बन गया है। भारत में किसी विश्वविद्यालय पर शायद ही फ़िल्म बनी हो। जे एन यू को इसका भी गौरव है। हाल में जे एन यू नाम से ही एक फ़िल्म बनाई गई है। इस फ़िल्म का पूरा नाम है जहाँगीर नेशनल यूनिवर्सिटी। इस नाम से ज़ाहिर है कि फ़िल्मकार फ़िल्म देखने के पहले किस प्रकार का अगढ़ अपने दर्शकों में भरना चाहता है। जहाँगीर भारत का ही एक बादशाह था। लेकिन  यहाँ उसके हिंदुस्तानीपन पर नहीं उसके मुसलमान होने पर ज़ोर है।

यह नाम देखकर 2016 में अहमदाबाद के अपने एक मित्र का फ़ोन याद आ गया। वे एक विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। उनके ड्राइवर ने एक रोज़ उनसे कहा कि दिल्ली में कोई जिन्ना नेशनल यूनिवर्सिटी है। फिर उसने बतलाया कि उस यूनिवर्सिटी के छात्रों को काफी रियायती दर पर खाना मिलता है। जो थाली बाहर 180 की होगी उसके लिए उन्हें सिर्फ़ 18 रुपए देने पड़ते हैं। मेरे मित्र चौंक गए। लेकिन हम सबको मालूम है कि उन दिनों यह प्रचार शुरू किया गया था कि जे एन यू के छात्र भारत के करदाताओं के पैसे पर न सिर्फ़ राजनीति करते हैं बल्कि देश विरोधी राजनीति करते हैं।

यह दुष्प्रचार 9 फ़रवरी, 2016 को जे एन यू में हुई एक छोटी सभा को लेकर हुए हंगामे के बाद शुरू हुआ। यह सभा अफ़ज़ल गुरू की फाँसी की बरसी के दिन कश्मीर के सवाल पर होनी थी। ए बी वी पी ने इसका विरोध किया। आयोजकों और ए बी वी पी में टकराव हुआ। आरोप लगा कि सभा में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का नारा लगाया गया। 
आज के कांग्रेस नेता कन्हैया उस घटना के समय छात्र संघ के अध्यक्ष थे। सभा के आयोजकों में उमर ख़ालिद, अनिर्बान भट्टाचार्य, रामा नागा, आदि छात्र थे। इल्ज़ाम लगाया गया कि कन्हैया समेत इन सबने भारत विरोधी नारे लगाए।

ज़ी टी वी ने इसे काफी भड़काऊ तरीक़े से प्रसारित किया। बाद में उसके एक पत्रकार ने यह कहते हुए इस्तीफ़ा दिया कि चैनल ने वीडियो में जाल किया था और वह घटना का सच्चा चित्रण नहीं था। लेकिन बाक़ी चैनलों ने भी इसे लेकर उत्तेजनापूर्ण प्रसारण जारी रखा।

रातों रात जे एन यू और इसके छात्र नेता पूरे देश में चर्चा के विषय में बदल गए। तत्कालीन गृह मंत्री ने बयान दिया कि कन्हैया, उमर ख़ालिद के रिश्ते पाकिस्तान के दहशतगर्दों से हैं। इस घटना के बाद ही मीडिया और भाजपा ने ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ का आविष्कार किया। जे एन यू ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ वालों की पनाहगाह है। वहाँ यौन स्वच्छंदता है। यानी हर तरह का दुराचार जे एन यू के छात्र और अध्यापक करते हैं।

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भाजपा और मीडिया ने जे एन यू, ख़ासकर इसकी छात्र राजनीति पर हमला ही बोल दिया। जो भी उनके साथ खड़ा हुआ उसे ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ में डाल दिया गया। कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी छात्रों के प्रति समर्थन जतलाने जे एन यू गए। उन्हें भी ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ का सदस्य घोषित कर दिया गया।
जे एन यू के ख़िलाफ़ इस दुष्प्रचार का असर हुआ। दिल्ली और दिल्ली के बाहर भी जे एन यू के छात्रों को हिंसा का सामना करना पड़ा। दिल्ली में ऑटो और टैक्सीवालों ने जे एन यू सवारी ले जाने से इंकार करना शुरू कर दिया।

इसके साथ ही जे एन यू के कुलपति ने विश्वविद्यालय को तहस नहस करना शुरू कर दिया। जे एन यू मुख्य रूप से मानविकी और समाज विज्ञान पर ज़ोर के लिए ही प्रसिद्ध रहा है। उसमें इंजीनियरिंग, प्रबंधन आदि के संस्थान खोलने के साथ अध्यापकों की बहाली में खुलेआम आर एस एस या ए बी वी पी से जुड़े लोगों की नियुक्ति करके जे एन यू की तथाकथित वामपंथी शक्ल को बदलने की कोशिश रंग लाई है। जे एन यू में छात्रों के दाख़िले की नीति भी बदल दी गई। इस नीति के कारण ही अत्यंत पिछड़े इलाक़ों के और तक़रीबन पूरे भारत के साधनहीन परिवारों से छात्र जे एन यू में आए। आप इस परिसर में सारी भारतीय भाषाएँ सुन सकते थे। गाँवों, क़स्बों से युवा जे एन यू पहुँचे। इस प्रवेश नीति को ही बदल दिया गया। 

जे एन  यू भारत में आर एस एस की बौद्धिक वर्चस्व की महत्वाकांक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा रहा है। इसलिए उसे नष्ट करना या उसपर क़ब्ज़ा करना आर एस एस का पुराना सपना रहा है। यह छात्रों के प्रवेश को नियंत्रित करके या अध्यापकों की बहाली में अपने लोगों को भरकर किया जा सकता है।

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इसके साथ ही पिछले सालों में जे एन यू में छात्रों पर कई बार गुंडों द्वारा शारीरिक हमले किए गए। आरोप है कि इन हमलों में ए बी वी पी के सदस्य शामिल थे। लेकिन पुलिस ने इनपर कार्रवाई तो दूर, इनकी जाँच भी क़ायदे से नहीं की।

जे एन यू परिसर बौद्धिक चर्चाओं के लिए जाना जाता है। प्रशासन ने हर जगह पर पाबंदी लगाना शुरू कर दिया। इस तरह छात्रों की सक्रियता को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया। 

इस माहौल में छात्र संघ का यह चुनाव हुआ। जे एन यू छात्र संघ के चुनाव अपनी सादगी के साथ प्रतिद्वंद्वी छात्र संगठनों में बौद्धिक शास्त्रार्थ के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। वही ए बी वी पी जो दिल्ली विश्वविद्यालय में चुनाव में लाखों रुपए ख़र्च करती है, जे एन यू में हाथ से लिखे पोस्टरों और पैदल प्रचार से कम चलाती रही है। यह सब कुछ बदल दिए जाने की कोशिश की जा रही थी। इसीलिए आशंका थी कि इस बार प्रशासन ने काफी हीला हवाला करके चुनाव होने की इजाज़त तो दे दी लेकिन क्या वे क़ायदे से हो पाएँगे। क्योंकि पहली बार जे एन यू में ऐसी कुलपति हैं जो सत्ता पक्ष से अपनी प्रतिबद्धता का खुलेआम ऐलान करती हैं और उदार विचारों पर खुलकर हमला करती हैं।

ख़ैर! चुनाव हुआ। यह नहीं कि प्रशासन ने धाँधली की कोशिश न की। मतदान के पहले रात 2 बजे वाम मोर्चे के एक उम्मीदवार को अयोग्य घोषित कर दिया गया। यह साफ़ बेईमानी थी लेकिन मतदान हुआ और नतीजे आ गए। वाम मोर्चे की जीत हुई।

एक पद पर एक नए संगठन बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (बापसा) का उम्मीदवार विजयी रहा। यह वही पद था जिसके लिए वाम प्रत्याशी की उम्मीदवारी रद्द कर दी गई थी। वाम मोर्चे ने इस पद के तुरत फुरत अपना समर्थन बापसा को घोषित किया। सारे पदों पर ए बी वी पी कम अंतर से दूसरे नंबर पर रही।

इस जीत का उतना महत्त्व नहीं जितना इस चुनाव का है। वाम विचार, दक्षिणपंथी विचार या मध्यवर्ती उदार विचार: क्या सब साथ रह सकते हैं? परस्पर वाद विवाद, विचारों की प्रतियोगिता ही जे एन यू की ख़ासियत रही है। धनबल और बाहुबल नहीं। जे एन यू अपनी परंपरा को जारी रख पाए, हम यही कामना कर सकते हैं। 

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अपूर्वानंद
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