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होली में हुड़दंग! 

होली की छुट्टी ख़त्म होने को है। लेकिन अभी भी सोशल मीडिया की मेहरबानी से वह लौट आती है। एक तस्वीर जिसमें एक ऑटो पर बैलून फेंका जाता है और वह असंतुलित होकर उलट जाता है। कितने लोग घायल होते हैं, किस तरह घायल होते हैं, मालूम नहीं। दूसरी तस्वीर जिसमें नदी घाट की सीढ़ियों पर एक युवा दंपति पर भीड़ रंग फेंक रही है। युवती मना करती है, फिर भी रंग फेंका जाता है। युवक मना करता है तो और उत्साह से रंग और पानी फेंका जाता है। भीड़ सीढ़ियों पर हँस रही है, दोनों की परेशानी के मज़े ले रही है। युवक उत्तेजित होकर भीड़ की तरफ़ बढ़ता है, पत्नी उसका हाथ पकड़ती है। भीड़ रंग या पानी फेंकना जारी रखती है। एक तीसरा वीडियो है जिसमें दूसरी और तीसरी मंज़िल के मकानों से बच्चे नीचे लोगों को रंग या पानी भरे बैलून से मार रहे हैं। नीचे से आपत्ति जताने पर बच्चों के पिता या अभिभावक आपत्ति करनेवाले लोगों को ही फटकार रहे हैं। उनका कहना था कि होली में बच्चे यह करेंगे ही।

ऐसे वीडियो और तस्वीरें सैंकड़ों की तादाद में हैं जिनमें भीड़ रंग के बहाने औरतों के साथ अश्लील हरकतें कर रही है। ख़ासकर, महिला पत्रकारों के साथ बदतमीज़ी की तस्वीरों के साथ उन तस्वीरों को देखकर तकलीफ़ होती है जिनमें विदेशी औरतों के साथ फूहड़, अश्लील हरकतें की जा रही हैं।

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मुसलमान औरतों और पुरुषों को ज़बरदस्ती रंग लगाने या उनके साथ रंग के बहाने हिंसा की वारदातों की ख़बरें देश के अलग-अलग हिस्सों से सुनने और देखने को मिलीं। पिछले साल और इस साल भी पढ़ने को मिला कि उत्तर प्रदेश में कई जगह मस्जिदों को ढँकना पड़ता है क्योंकि होली खेलनेवालों को मस्जिदों में रंग फेंकने में ख़ास मज़ा आता है।

बचपन और बाद में हम होली के बाद अख़बारों में पढ़ा करते थे कि होली के दिन कितने लोग घायल हुए, कितनों की जान गई। होली एक मौक़ा था जिसमें रंग की आड़ में मालूम नहीं कितनी अदावतों का हिसाब किताब किया जाता था। अब अख़बार होली के बाद इन खबरों को छापते हैं या नहीं, मालूम नहीं। 

होली में जबरन रंग लगाना आम चलन है। होली में ज़बरदस्ती और अश्लीलता आम है। यह एक ऐसा मौक़ा है जब लोगों के मन में छिपी हुई यौनेच्छाओं को व्यक्त करने को सामाजिक अनुमति दी जाती है। लेकिन इसका शिकार प्रायः औरतें होती हैं। इसे परिपाटी कहकर इसका समर्थन किया जाता है।
रंग लगाना, रंग फेंकना सांस्कृतिक अधिकार माना जाता है। किसी को रंग से एलर्जी हो सकती है, किसी के लिए वह घातक हो सकता है, यह कहने पर लोग हैरान हो जाते हैं। जिसे एलर्जी हो वह घर के भीतर बैठे!

भारत में अलग-अलग धर्मों के विविध प्रकार के पर्व त्योहार हैं। चोट पहुँचाने की बात हो तो बहुत सारे लोग मुहर्रम में मुसलमानों के द्वारा ख़ुद को चोट पहुँचाने के उदाहरण देने को उद्यत हो जाते हैं। लेकिन हमने यह नहीं देखा कि मुसलमान किसी दूसरे को कोड़े या चाबुक लगाते हों या औरों को अपने साथ शामिल करने को मजबूर करते हों। ईसाइयों का या सिखों का भी कोई ऐसा पर्व नहीं देखा। होली भी भारत में हर जगह ऐसी नहीं। बिहार, उत्तर प्रदेश या हिंदी भाषी इलाक़ों की होली ख़ास है। होली और हुड़दंग या अलग-अलग तरह की हिंसा इन इलाक़ों की होली की विशेषता है।

क्यों होली के इस पक्ष पर कभी सामूहिक रूप से विचार नहीं किया गया? क्या हम यह मानते हैं कि जो बच्चे या बड़े एक दिन त्योहार के बहाने दूसरों को तकलीफ़ पहुँचाने में मज़ा लेते हैं वे बाक़ी जीवन में सभ्य होंगे? इस तकलीफ़ की शिकायत करनेवाले को ही दुत्कारा जाता है कि वह एक दिन इस समुदाय के आनंद के लिए क्या इतना भी बर्दाश्त नहीं कर सकता! हम बचपन में भी सुनते थे कि मुसलमान क्यों रंग नहीं लगाने देते। मानो हमें मज़ा देना दूसरे का फ़र्ज़ है। 

वक़्त-बेवक़्त से और

क्या होली के पहले प्रशासन यह चेतावनी देता है कि होली में किसी और के साथ ज़बरदस्ती नहीं की जानी चाहिए? एक वीडियो देखा जिसमें एक पुलिस अधिकारी चेतावनी दे रही हैं कि 4 बजे के बाद सब घर चले जाएँ। इसपर कई लोग उस अधिकारी पर ही नाराज़ हो गए। लेकिन सड़क सबकी होती है। होली मनानेवालों की और न मनानेवालों की भी। उनमें हिंदू भी हो सकते हैं। यह अधिकार किसी को कैसे और क्योंकर मिल जाता है कि वह अपनी ख़ुशी के लिए दूसरों के साथ ज़बरदस्ती करे? इस उल्लास का मूल्य और स्तर क्या है?

इन प्रश्नों पर विचार करना आवश्यक है। क्योंकि  सामूहिक उल्लास की गुणवत्ता पर हमने कभी विचार नहीं किया है। एक समय था, आज से 80, 90 साल पहले का समय जब इन सवालों पर चर्चा होती थी। अब मानो सारे प्रश्नों का समाधान मिल गया है। लेकिन प्रश्न मात्र होली का नहीं है। दीपावली में भी गाड़ियों के नीचे पटाखे चलाने या बिना यह ख़याल किए कि इससे अनेक लोगों को असुविधा हो सकती है। खूब शोरवाले पटाखों के इस्तेमाल को भी रिवाज या परिपाटी कहकर उचित ठहराया जाता है। राम नवमी जैसे अवसर पर जान बूझकर मस्जिदों के आगे रुककर बाजा बजाए बिना या मुसलमानों को अपमानित करनेवाले गानों और नारों के बिना राम भक्ति पूरी नहीं होती या हिंदुओं को पूरा आध्यात्मिक आनंद नहीं मिलता।

बहुत सारे लोग मानते हैं कि यह सिर्फ़ एक रोज़ की बात है और इसे इतना तूल देने की ज़रूरत नहीं। कई लोग ऐसी चर्चा से ही भड़क उठते हैं और कहते हैं कि यह सब कहना हिंदू विरोध है। क्या सचमुच?

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अपूर्वानंद
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