“क्या आपने यह कहा कि नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) मुसलमान-विरोधी था?” पत्रकार के इस प्रश्न का उत्तर देने में पल गँवाए बिना जवाब आया, “नहीं! हमने कहा कि यह संविधान-विरोधी था।” “क्या आपने यह नहीं कहा?” “नहीं, हमने सारे भारतीयों को कहा कि यह क़ानून संविधान-विरोधी है।”
इस प्रश्नोत्तर में भारत की राजनीतिक और नैतिक उलझन छिपी है। प्रश्नकर्ता ने यह न पूछा कि आख़िर यह क़ानून संविधान-विरोधी क्यों है। इसका उत्तर देने में उलझन सुलझाई जा सकती थी। बिना घुमाए-फिराए इसका जवाब यह है कि यह क़ानून संविधान-विरोधी इसलिए है कि यह मुसलमान-विरोधी है। इसलिए संविधान-विरोधी है कि यह नागरिकता हासिल करने का एक रास्ता बनाता है जिससे होकर मुसलमान पहचान भारतीय नागरिकता तक नहीं पहुँच सकती। यह नागरिकता की संवैधानिक अवधारणा के ख़िलाफ़ है। हमारा संविधान नागरिकता हासिल करने में किसी धार्मिक पहचान को बाधा नहीं मानता। यह नया क़ानून इसीलिए संविधान-विरोधी है कि यह एक ऐसी राह बनाता है जिसपर हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध सबका स्वागत है, लेकिन जो मुसलमान पहचान के आगे रुकावट खड़ी कर देता है। इस वजह से यह संविधान-विरोधी है।
बिना इस व्याख्या के यह कहना कि यह क़ानून संविधान-विरोधी है एक अमूर्तन है जिसे कोई ठीक ठीक समझ नहीं सकेगा। एक दूसरा उदाहरण लें। सर्वोच्च न्यायालय ने तीन वर्ष पहले अनुसूचित जाति और जनजाति के उत्पीड़न से जुड़े क़ानून को शिथिल कर दिया था। इसे संविधान-विरोधी बताया गया और बाद में संसद ने न्यायालय के क़दम से पैदा हुई फाँक को भरा। लेकिन न्यायालय का निर्णय इसीलिए संविधान के विरुद्ध माना गया था कि वह अनुसूचित जाति और जनजाति के हितों की हिफाजत के मसले की गंभीरता को कम करता था।
न्यायालय के इस क़दम का व्यापक विरोध हुआ। लेकिन वह सिर्फ़ दलितों ने किया। उस विरोध में तथाकथित उच्च जातियों के लोग शामिल नहीं हुए। कई जगहों पर ख़ुद को उच्च जाति माननेवालों ने दलित प्रदर्शनकारियों पर हमले किए और पुलिस के साथ मिलकर उनका दमन किया। क्यों? दलित उनके ख़िलाफ़ तो सड़क पर न थे? वे सरकार से अपनी माँग कर रहे थे। इसे “उच्च जातियों” के लोगों ने अपना विरोध क्यों माना?
यह आश्चर्य की बात न थी कि सीएए के ख़िलाफ़ जो विरोध प्रदर्शन शुरू हुए उनमें मुसलमान 99% से भी अधिक थे। हिंदू ही क्यों, अन्य मतावलंबी भी इस विरोध में शामिल होने में तत्पर न दीखे। ईसाई भी नहीं जो मुसलमानों के बाद इस देश की सबसे प्रताड़ित अल्पसंख्यक आबादी है।
सीएए के प्रतीकात्मक अर्थ को मुसलमानों ने समझा। यह उनकी धार्मिक पहचान के इस वतन पर दावे को ठुकराने वाला क़दम था। एक तरह से उनकी अस्मिता पर हमला था।
ज़ाहिर था, इस अपमान को उन्होंने महसूस किया और वे इस देश पर अपना दावा जताने सड़क पर उतरे। वे भी यही कह रहे थे कि वे इस क़ानून का विरोध इस वजह से कर रहे हैं कि यह संविधान-विरोधी है।
संविधान आख़िर क्या है और क्या करने की कोशिश करता है? यह एक राष्ट्र के निर्माण का आधार है। एक तरह का अनुबंध पत्र। उन बहुत सारे समुदायों के बीच अनुबंध जो अनेक मामलों में (जैसे धर्म, भाषा, जातीयता आदि) एक दूसरे से अलग हैं। यह उन सबको एक धरातल प्रदान करता है जिसपर वे एक दूसरे के अगल-बगल बराबरी के अहसास के साथ खड़े होंगे। सिर्फ़ अगल-बगल खड़े न होंगे, बल्कि एक दूसरे से जुड़ाव महसूस भी करेंगे। एक दूसरे के प्रति ज़िम्मेदारी महसूस करेंगे।
संविधान
भारतीय संविधान को एक अत्यंत महत्त्वाकांक्षी मुहिम के तौर पर देखा जाना चाहिए। यह भिन्न-भिन्न समुदायों को ‘एक जन’ में बदलने का सपना है। लेकिन ऐसा एक जन जिसमें सारी पहचानें नुमाया रहेंगी। किसी का किसी में विसर्जन नहीं होगा। कोई अव्वल और कोई दोयम नहीं होगा।
संविधान निर्माण की प्रक्रिया निर्दोष न थी। उसकी बहसों के ब्योरे से मालूम होता है कि जब मुसलमानों ने आनुपातिक प्रतिनिधित्व की माँग की तो कैसे उनकी आवाज़ दबाई गई और आदिवासियों के प्रतिनिधि जयपाल सिंह मुंडा को साबित करना पड़ा कि वे इस संविधान सभा में सबके समकक्ष खड़े होकर बोल सकते हैं। जयपाल सिंह ने कहा, “हमारे लोगों का सारा इतिहास शोषण का और उनके (संसाधनों के दूसरों के द्वारा) हड़पने का इतिहास रहा है ...फिर भी मैं मानकर चलता हूँ कि पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने वचन के पक्के हैं। मैं आपके वचन पर विश्वास करता हूँ कि हम एक नया अध्याय शुरू करने जा रहे हैं, स्वाधीन भारत का नया अध्याय जिसमें अवसर की बराबरी होगी, किसी की उपेक्षा न होगी।”
संविधान एक हिंसक पृष्ठभूमि में रचा जा रहा था। लाखों हिन्दुओं और मुसलमानों के ख़ून और आँसुओं, क्रोध और तकलीफ की पृष्ठभूमि। भारत ने एक भले समाज का सपना देखा जिसमें किसी तरह का भेदभाव न होगा, कोई ऊँच-नीच न होगी।
जो संख्या के लिहाज से ताक़तवर हैं, जो ऐतिहासिक कारणों से सांस्कृतिक पूँजी के कारण प्रभुत्वशाली रहे हैं, वे उसके बल पर इस राष्ट्र के विधाता न हो जाएँ, इसका इंतज़ाम किया जाना था। बराबरी की भावना, जो इस देश के लिए अजनबी थी, उसे स्थापित किया जाना था।
भारत के मुसलमानों की आशंका काफ़ी पहले प्रेमचंद ने समझ ली थी। उसी तरह दलितों की चिंता को भी उन्होंने समझा था। प्रेमचंद ने लिखा था कि मुसलमान डरते हैं कि स्वराज मिलने के बाद बहुसंख्यक हिंदू उन्हें पीस डालेंगे। उन्होंने कांग्रेस से भी शिकायत की कि मुसलमानों का विश्वास जीतने के लिए और उनका सहयोग लेने के लिए उसने पर्याप्त प्रयास नहीं किया।
लेकिन इसके बावजूद भारत के स्वाधीनता के अभियान में एक भले, अच्छे समाज का सपना देखा गया। यह ऐसा समाज होगा जिसमें किसी को हीनता का बोध नहीं कराया जाएगा, जिसमें हर विभिन्नता के साथ सबमें एक दूसरे के प्रति लगाव होगा।
बराबरी, आज़ादी और इन्साफ़
संविधान ऐसा ही अच्छा समाज बनाने की यात्रा के रास्ते को रौशन रखने की मशाल है। वह एक जीवित संवाद भी है। जनता के अलग-अलग तबक़ों के बीच संवाद। यह लचीला है, वक़्त के तकाजों और नई समझ को स्वीकार करता है। लेकिन कुछ बुनियादी उसूलों से डिगना इसे कबूल नहीं। वे उसूल हैं बराबरी, आज़ादी, इन्साफ़ के जिन्हें एक दूसरे के साथ मेलजोल करते हुए हासिल किया जाना है।
कोई भी क़दम जो ग़ैरबराबरी, वह वास्तविक हो या भावनात्मक, पैदा करता है, संविधान-विरोधी है। लेकिन हमें साफ़-साफ़ कहना होगा कि किस क़िस्म की ग़ैरबराबरी या भेदभाव है और भारतीय जन के किस हिस्से के ख़िलाफ़ वह है, जिसके कारण वह संविधान की आत्मा के भी विरुद्ध हो पड़ता है।
आदिवासी की सुरक्षा को ख़त्म करनेवाला कोई भी क़दम संविधान-विरोधी होगा क्योंकि वह आदिवासियों को वंचित करता है। उसी तरह अगर दलितों की स्थिति को कमज़ोर करनेवाला कोई क़दम उठाया जाए तो वह संविधान-विरोधी होगा। मुसलमानों को किसी भी तरह हीनता बोध पैदा करने वाला क़दम भी इसी प्रकार संविधान-विरोधी होगा।
सीएए का विरोध
हर प्रसंग में हमें बताना होगा कि कोई क़ानून, कोई सरकारी क़दम क्यों संविधान-विरोधी है। सीएए इसलिए संविधान-विरोधी है कि वह मुसलमान-विरोधी है।
यह बात मुसलमानों को बताने की ज़रूरत न थी और न है। सीएए का स्वतःस्फूर्त विरोध उत्तर प्रदेश, दिल्ली, कर्नाटक और दूसरी जगहों पर मुसलमानों ने किया। उन्हें इस क़ानून से बुरा लगा, जिल्लत महसूस हुई और वे सड़क पर उतरे। उनका भीषण दमन किया गया। सच यही है कि उनके अपमान को हिन्दुओं और बाक़ियों ने उसी तरह महसूस न किया। संविधान ने जनता के तबक़ों में एक दूसरे के लिए जो जुड़ाव पैदा करने का संकल्प लिया था, वह दृढ़ न रहा।
यह बहुत सामान्य सी बात कि जो बात आपके पड़ोसी को बुरी लगे, आपको भी खलनी चाहिए, भुला दी गई।
पुणे में जब मैंने अपनी गाड़ी के ड्राइवर से पूछा कि मुसलमान जो धरने पर बैठे हैं सीएए के ख़िलाफ़, उसके बारे में उनका क्या ख्याल है तो उन्होंने शान्ति से उत्तर दिया कि यह मुसलमानों की समस्या है और उन्हें उससे कोई लेना देना नहीं है। उस उत्तर में सीएए के प्रश्न पर मुसलमानों के मन में उद्वेलन के प्रति उदासीनता थी।
हर जगह लेकिन उदासीनता न थी। ज़्यादातर जगह मुसलमानों की बेचैनी को लेकर नफ़रत दिखलाई पड़ी। अधिकतर हिंदुओं ने न सिर्फ़ इसे अपना मामला नहीं माना, बल्कि मुसलमानों से समझने की कोशिश भी न की कि उन्हें क्यों बुरा लग रहा है। जब मुसलमान अकेले इसका विरोध करने उतरे तो उन्हें संदेह से देखा गया और उनपर दमन का स्वागत किया गया। कुछ जगह उस दमन में हिंदुओं ने पुलिस का साथ दिया।
ऐसा हिंदुओं ने क्यों किया? मुसलमान उनका विरोध तो नहीं कर रहे थे? फिर हिंदू क्यों उनके ख़िलाफ़ हो गए?
राजनीतिक दल इस संबंध में हिंदुओं से साफ़-साफ़ बात करने से कतराते रहे। सिर्फ़ यह कहना कि क़ानून संविधान-विरोधी है, कुछ भी साफ़ नहीं करता था। हिंदुओं की गोलबंदी इस क़ानून के ख़िलाफ़ नहीं की गई।
क्या हिंदुओं से यह नहीं कहा जा सकता था कि कोई भी क़ानून जो मुसलमान द्वेष पर टिका है, उसे हिन्दुओं को भी अस्वीकार करना चाहिए? चूँकि राजनीतिक दलों में और बुद्धिजीवियों में भी प्रेमचंद और गाँधी जैसी नैतिक स्पष्टता और साहस नहीं है, उन्होंने संविधान की आड़ लेकर बचना चाहा।
उसी प्रकार एक दूसरे नए नेता ने कहा कि यह कहना ग़लत है कि उमर खालिद या सफूरा या इशरत जैसे युवाओं को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है कि वे मुसलमान हैं। उन्होंने कहा कि जो भी सरकार-विरोधी है, उसे उस वजह से, बिना धर्म और उपनाम देखे, निशाना बनाया जा रहा है। वे जानते हैं कि यह सच नहीं है। दिल्ली, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में यूएपीए और दूसरे क़ानूनों में गिरफ्तार युवाओं में मुसलमानों के अलावा एकाध ही दूसरे नाम हैं और वे भी इसलिए कि उन्हें धर्मनिरपेक्ष यानी मुसलमान हमदर्द माना जाता है। वे पूरे हिंदू नहीं माने जाते, बल्कि कुलद्रोही समझे जाते हैं। क्विंट में आदित्य मेनन ने ठीक लिखा है कि गिरफ्तार मुसलमान अलग-अलग राजनीतिक विचारों के हैं। यानी वे एक नहीं, लेकिन उनमें एक बात समान है कि वे सरकार के इस विभाजनकारी क़ानून का विरोध कर रहे हैं और मुसलमान हैं। यूएपीए का इस्तेमाल करनेवालों की पहचान क्या साफ़ नहीं है? क्या यह साज़िश नहीं है कि मुसलमानों में हर प्रकार की राजनीतिक आवाज़, वह वामपंथी हो या सामाजिक न्यायवादी या कांग्रेसी या जमात से जुड़ी, खामोश कर दी जाए? जो यह कहने से बचता है वह नैतिक दुर्बलता का शिकार है।
राल्फ फॉक्स ने कहा था कि गद्य चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारने का नाम है। जो राजनीति ठीक गद्य नहीं बोल सकती, वह और कुछ करे इंसाफ़ और मुहब्बत के रास्ते पर समाज की रहबर नहीं हो सकती।
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