“क्या आपने यह कहा कि नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) मुसलमान-विरोधी था?” पत्रकार के इस प्रश्न का उत्तर देने में पल गँवाए बिना जवाब आया, “नहीं! हमने कहा कि यह संविधान-विरोधी था।” “क्या आपने यह नहीं कहा?” “नहीं, हमने सारे भारतीयों को कहा कि यह क़ानून संविधान-विरोधी है।”
मुसलमान-विरोध संविधान का विरोध है
- वक़्त-बेवक़्त
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- 21 Sep, 2020

सीएए इसलिए संविधान-विरोधी है कि वह मुसलमान-विरोधी है। क्या हिंदुओं से यह नहीं कहा जा सकता था कि कोई भी क़ानून जो मुसलमान द्वेष पर टिका है, उसे हिन्दुओं को भी अस्वीकार करना चाहिए? चूँकि राजनीतिक दलों में और बुद्धिजीवियों में भी प्रेमचंद और गाँधी जैसी नैतिक स्पष्टता और साहस नहीं है, उन्होंने संविधान की आड़ लेकर बचना चाहा।
इस प्रश्नोत्तर में भारत की राजनीतिक और नैतिक उलझन छिपी है। प्रश्नकर्ता ने यह न पूछा कि आख़िर यह क़ानून संविधान-विरोधी क्यों है। इसका उत्तर देने में उलझन सुलझाई जा सकती थी। बिना घुमाए-फिराए इसका जवाब यह है कि यह क़ानून संविधान-विरोधी इसलिए है कि यह मुसलमान-विरोधी है। इसलिए संविधान-विरोधी है कि यह नागरिकता हासिल करने का एक रास्ता बनाता है जिससे होकर मुसलमान पहचान भारतीय नागरिकता तक नहीं पहुँच सकती। यह नागरिकता की संवैधानिक अवधारणा के ख़िलाफ़ है। हमारा संविधान नागरिकता हासिल करने में किसी धार्मिक पहचान को बाधा नहीं मानता। यह नया क़ानून इसीलिए संविधान-विरोधी है कि यह एक ऐसी राह बनाता है जिसपर हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध सबका स्वागत है, लेकिन जो मुसलमान पहचान के आगे रुकावट खड़ी कर देता है। इस वजह से यह संविधान-विरोधी है।