‘राज्य दफा हो जाए!... राज्य की समूची अवधारणा का मूलोच्छेद कर दो, मुक्त चयन और आत्मिक बंधुता को ही किसी एकता की एकमात्र सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शर्तें होने की घोषणा करो, और तभी तुम एक ऐसी आज़ादी की शुरुआत करोगे जिसकी कोई सार्थकता होगी।’
भगत सिंह: ...जो मुक्त चिंतन को बर्दाश्त न कर सके, तो वह भाड़ में जाए
- वक़्त-बेवक़्त
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- 23 Mar, 2021

आज यानी 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाया गया था। भगत सिंह भगत सिंह कैसे बने? एक सवाल कौंधता है। भगत सिंह के विचारों में इतनी स्पष्टता कैसे आई? किताबों से? किताबों से उनका गहरा लगाव था। भगत सिंह के मित्रों में से एक शिव वर्मा ने लिखा है कि भगत सिंह हमेशा एक छोटा पुस्तकालय लिए चलते थे। भगत सिंह की माँ ने भी कहा है- भगत सिंह जब भी घर आता था, उसकी जेबें किताबों से ठुँसी रहती थीं।
‘मनुष्य ने समाज में प्रवेश इसलिए नहीं किया कि वह पहले से भी बदतर हो जाए, बल्कि इसलिए कि उसके अधिकार पहले से बेहतर ढंग से सुरक्षित हों। उसके प्राकृतिक अधिकार ही उसके सभी नागरिक अधिकारों की आधारशिला हैं।’
‘...सरकारों को मानवता सिखा दो। ये उनकी खूँखार सज़ाएँ ही हैं जो मानव जाति को भ्रष्ट करती हैं।’
‘....किसी ने इस सीधी-सरल बात पर ग़ौर नहीं किया कि मनुष्य अपने आपको किसी विरोध के लिए बिना इस विश्वास के एकजुट नहीं करते कि कोई न कोई ऐसी चीज़ है जिसका उन्हें विरोध करना है और न किसी भी संगठित समाज में व्यापक विरोध एक ऐसी चीज़ है जो गहरी छानबीन की दरकार रखती है।’
ये सारे उद्धरण मुझे याद आए जब मुझे फ़ोन आया, ‘क्या आप भगत सिंह पर बोलने आएँगे, सर?’ भूल गया फ़ोन करनेवाले का नाम क्या था। लेकिन यह शाहीन बाग़ के उस अस्थायी पुस्तकालय के संचालक नौजवानों में से एक का था, इतना याद है। जब पहुँचा तो एक बस स्टैंड के शेड के नीचे जगह घेर कर किताबें रखी देखीं। दो चार मोढ़े, दरी और कुछ युवक और युवती किताबें लिए बैठे, पन्ने पलटते हुए। अजब सा मंजर था। सामने शुभा मुद्गल के गाने की तैयारी चल रही थी। उस आलोड़न के बीच इस पुस्तकालय के क़रीब किताबों की वजह से खामोशी का एक जज़ीरा!