भाषा अपने आप में संसार है। या उससे आगे सृष्टि। वह इस संसार को देखनेवाली आँख भर नहीं। वह माध्यम मात्र नहीं अभिव्यक्ति का। इसलिए जब किसी की प्रशंसा में कहा जाए कि उसकी भाषा पारदर्शी है तो उसका अर्थ यही है कि वह इतनी सधी हुई है कि अहंमुक्त हो चुकी है। जैसे बड़े व्यक्तित्वों के साथ एक समय के बाद होता है। उनका व्यक्तित्व पारदर्शी लगता है। उसमें एक अनायासता और स्वाभाविकता होती है। भाषा की इस अनायासता या उसकी निरहंकार प्रकृति से धोखा हो जाता है।