भाषा अपने आप में संसार है। या उससे आगे सृष्टि। वह इस संसार को देखनेवाली आँख भर नहीं। वह माध्यम मात्र नहीं अभिव्यक्ति का। इसलिए जब किसी की प्रशंसा में कहा जाए कि उसकी भाषा पारदर्शी है तो उसका अर्थ यही है कि वह इतनी सधी हुई है कि अहंमुक्त हो चुकी है। जैसे बड़े व्यक्तित्वों के साथ एक समय के बाद होता है। उनका व्यक्तित्व पारदर्शी लगता है। उसमें एक अनायासता और स्वाभाविकता होती है। भाषा की इस अनायासता या उसकी निरहंकार प्रकृति से धोखा हो जाता है।
प्रेमचंद 140 : 31वीं कड़ी : समाजोन्मुख-आत्मोन्मुख-भाषोन्मुख
- साहित्य
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- 20 Sep, 2020

प्रेमचंद मुक्तिबोध के लिए बड़े इसलिए हैं कि वे हमें सिर्फ़ समाजोन्मुख नहीं, आत्मोन्मुख भी करते हैं। उसके बिना सभ्यता और नैतिकता की सहयात्रा संभव नहीं। याद कीजिए कि प्रेमचंद ने भी कहा था कि मानव सभ्यता की यात्रा मनुष्य को ख़ुद को समझने की, शक्ति अर्जित करने की यात्रा है। पढ़िए, प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर सत्य हिन्दी की विशेष शृंखला में 31वीं और अंतिम कड़ी।
रचनाकार रचना करता है। इसमें रचने की क्रिया को हम अक्सर भूल जाते हैं। प्रेमचंद ने कहीं अपनी भाषा के रचाव के बारे में अलग से कुछ नहीं लिखा। लेकिन पाठक के रूप में हमें हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि जब हम कहते हैं कि लेखक प्रति संसार रच रहा है, तो वह होता भाषा का संसार है। लेखक भाषा के पार सिर्फ अर्थ तक पहुँचने की हड़बड़ी पसंद नहीं करता। यह जो दुनिया गढ़ी है उसने भाषा की, वह चाहता है कि आप उसे देखें। आपकी आँख शब्द, वाक्य पर अटकनी चाहिए। भाषा से आपका रंजन होना चाहिए। यह भाषा लेकिन कैसे सिरजी जाती है?