आदिवासी मामलों के विशेषज्ञ और अनुसूचित जाति और जनजाति आयुक्त रहे डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा बस्तर के आदिवासियों को समझाया करते थे कि अगर कोई लेखपाल कानूनगो काग़ज लेकर आए और कहे कि यह खेत और जंगल तुम्हारा नहीं है तो कह देना कि काग़ज तुम्हारा खेत हमारा। वे व्यंग्य में यह भी कहा करते थे कि अच्छा हुआ कि आदिवासियों ने हम लोगों जैसी पढ़ाई नहीं की वरना वे भी हमारी तरह भ्रष्ट और शोषक होते। वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में मानव शास्त्र के प्रोफेसर वीरेंद्र प्रताप यादव का उपन्यास `नीला कार्नफ्लावर’ इसी तरह मानवशास्त्रीय ज्ञान के विरुद्ध एक विद्रोह है। पूर्वी और पश्चिमी यूरोप के बीच में स्थित एक दबे कुचले देश सोमेट्र का निवासी मार्टिन अपने देश से बाहर नीदरलैंड में मानवशास्त्र की पढ़ाई करने निकलता है और उपन्यास के आखिर में जब वह फील्ड सर्वे करके और मोनोग्राफ लिखने के बाद यह देखता है कि उसके ज्ञान का इस्तेमाल आमेजन के वर्षावन में रहने वाले आदिवासियों के जीवन को तबाह करके प्रकृति के दोहन के लिए किया जा रहा है तो वह वर्षों की मेहनत से पाए ज्ञान और उसके सहारे हीहो और नुआ समुदाय पर तैयार किए गए मोनोग्राफ को ही आग के हवाले कर देता है।