इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में हम जिस तरह सूचनाओं के सांप्रदायिक बंदीगृह में कैद हो गए हैं उसमें मानवता, विश्व बंधुत्व, अहिंसा और न्याय जैसे मूल्यों की चर्चा एक उबाऊ और पिछली सदी की बकवास हो कर रह गई है। पिछली सदी के आखिरी दशक में उभरी वैश्वीकरण की जिस अवधारणा ने वैश्विक समुदाय के सदस्यों को खुले आकाश में विचरण करने का स्वप्न दिखाया था, वह तो लहूलुहान होकर ध्वस्त हो चुकी है। अब उत्तर-आधुनिक मनुष्य जाति, धर्म, लिंग, राष्ट्र, भौतिकता और प्रौद्योगिकी के तमाम कटघरों को ही मुक्त और अनंत आकाश मान कर चल रहा है। इन श्रेणियों ने किसी को अंडा सेल में कैद कर रखा है तो किसी को बैरक में। वे उसी दायरे में अपनी हिंसा को बढ़ाते हुए सभ्यता की नई ऊँचाई हासिल करने का दावा कर रहे हैं। हिंसा और नफ़रत का कारोबार जो जितने जोर से कर रहा है उसकी आमदनी और सत्ता उतनी ही बढ़ती जा रही है। बल्कि मनुष्य इसी मामले में सार्वभौमिक रह गया है।
असंभव नहीं अनिवार्य है अहिंसक समाज
- विचार
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- 24 Oct, 2024

बहराइच से ग़ज़ा तक मुंबई से ओटावा तक कहीं धर्म के नाम पर हिंसा हो रही है तो कहीं राष्ट्र के नाम पर। आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है और क्या इसका समाधान नहीं है?
बहराइच से ग़ज़ा तक मुंबई से ओटावा तक कहीं धर्म के नाम पर हिंसा हो रही है तो कहीं राष्ट्र के नाम पर। कहीं हिंसा से धर्म की छाती जुड़ा रही है तो कहीं राष्ट्र की मूँछें ऊंची हो रही हैं। हिंसा की इन घटनाओं का प्रमुख अभिकर्ता राज्य है। कहीं वह अपने दायित्व से घंटा भर या एक दो किलोमीटर पीछे हटकर घटनाओं को घटित होने देता है तो कहीं राष्ट्रीय अवकाश के बहाने आतंकवादी कार्रवाई का पता ही नहीं लगा पाता। उसकी ताकतवर खुफिया एजेंसियां जवाब दे जाती हैं। इस तरह कहीं पुलिस को मुठभेड़ करने का बहाना मिलता है और बुलडोजर चलाने की भूमिका तैयार होती है तो कहीं आतंकवाद के सफाए के नाम पर निरपराध महिलाओं- बच्चों और अस्पतालों- स्कूलों पर बमबारी का वातावरण निर्मित किया जाता है। राष्ट्रों, राज्यों और उनके साथ जुड़े आतंकी और आपराधिक समूहों के चंगुल में व्यक्ति यानी मनुष्य मकड़ी के जाल में फंसे हुए कीड़े की तरह होकर रह गया है।
लेखक महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार हैं।