इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में हम जिस तरह सूचनाओं के सांप्रदायिक बंदीगृह में कैद हो गए हैं उसमें मानवता, विश्व बंधुत्व, अहिंसा और न्याय जैसे मूल्यों की चर्चा एक उबाऊ और पिछली सदी की बकवास हो कर रह गई है। पिछली सदी के आखिरी दशक में उभरी वैश्वीकरण की जिस अवधारणा ने वैश्विक समुदाय के सदस्यों को खुले आकाश में विचरण करने का स्वप्न दिखाया था, वह तो लहूलुहान होकर ध्वस्त हो चुकी है। अब उत्तर-आधुनिक मनुष्य जाति, धर्म, लिंग, राष्ट्र, भौतिकता और प्रौद्योगिकी के तमाम कटघरों को ही मुक्त और अनंत आकाश मान कर चल रहा है। इन श्रेणियों ने किसी को अंडा सेल में कैद कर रखा है तो किसी को बैरक में। वे उसी दायरे में अपनी हिंसा को बढ़ाते हुए सभ्यता की नई ऊँचाई हासिल करने का दावा कर रहे हैं। हिंसा और नफ़रत का कारोबार जो जितने जोर से कर रहा है उसकी आमदनी और सत्ता उतनी ही बढ़ती जा रही है। बल्कि मनुष्य इसी मामले में सार्वभौमिक रह गया है।