क्या आप उस “योद्धा” स्त्री को जानते हैं जो बाल विधवा थीं पर उनका दोबारा विवाह हुआ? उनकी औपचारिक शिक्षा नहीं थी लेकिन शादी के बाद उन्होंने घर में रहकर पढ़ाई लिखाई की और वह स्वाधीनता आंदोलन की तरफ़ आकृष्ट हुईं, स्त्रियों की सभाएँ संबोधित करने लगीं। फिर दो माह के लिए जेल भी गयीं और हिंदी की एक प्रखर कहानीकार बनीं लेकिन उन्हें भुला दिया गया, उनका मूल्यांकन नहीं हुआ और उनकी स्मृति को सुरक्षित रखने का कोई प्रयास नहीं हुआ न कोई आयोजन हुआ। वे अपने पति के साये में ओझल हो गईं।
आज पहली बार उनकी याद में एक समारोह किया जा रहा है, स्त्री दर्पण की पहल पर।
यह स्त्री और कोई नहीं बल्कि शिवरानी देवी थीं। हिंदी के उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द की पत्नी। प्रेमचन्द ने ही उन्हें योद्धा स्त्री की संज्ञा दी थीं। हिंदी समाज “प्रेमचन्द घर में“ पुस्तक की लेखिका शिवरानी के बारे में थोड़ा बहुत जानता रहा लेकिन कहानीकार शिवरानी देवी के बारे में वह अल्पज्ञात रहा। आखिर क्यों? क्या इसलिए कि उनकी कहानी की किताबें बाजार में उपलब्ध नहीं थीं, पुस्तकालयों में नहीं थीं, पाठ्यक्रम में नहीं थीं और हिंदी के आलोचकों ने उनको बहस के केंद्र में नहीं रखा, उनकी चर्चा नहीं की या उनकी नजर में वे चर्चा के योग्य नहीं थीं।
राष्ट्रीय आंदोलन के लेखकों में सबसे अधिक चर्चा प्रेमचन्द की हुई और आज भी हिंदी की पूरी बहस प्रेमचन्द के इर्द गिर्द घूमती है। प्रेमचन्द ऐसे वट वृक्ष के समान हैं कि उनके बहुत सारे समकालीन लेखकों का आज तक सम्यक मूल्यांकन ही नहीं हुआ। ऐसे में जाहिर है कि शिवरानी देवी जैसी लेखिका भी उपेक्षित रह जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं, पर प्रेमचन्द के निधन के बाद शिवरानी जी ने कुछ साल तक “हंस” पत्रिका का संपादन किया जिसका दोबारा प्रकाशन राजेन्द्र यादव ने किया। राजेन्द्र यादव हर साल प्रेमचन्द पर आयोजन करते रहे पर उनके समय में शिवरानी की कभी चर्चा नहीं हुई, पोस्टर बैनर पर उनका नाम और तस्वीर भी नहीं। और तो और प्रेमचन्द के पुत्रों ने भी अपने पिता को ही नायक बनाया। अमृत राय की प्रेमचन्द की जीवनी ”कलम के सिपाही” में भी शिवरानी देवी को वो तवज्जो नहीं दी गयी जिसकी वह अधिकारी थीं। इन सवालों पर विचार होना चाहिए।
दरअसल, हमारे हिंदी इलाके में जो नवजागरण हुआ उसमें स्त्री प्रश्नों को रेखांकित ही नहीं किया गया और नवजागरण में उनकी भागीदारी को इतिहास में दर्ज ही नहीं किया गया। शायद यह भी कारण रहा है कि शिवरानी ही नहीं, बल्कि उस दौर की अन्य महिला रचनाकरों पर ध्यान ही नहीं दिया गया क्योंकि हिंदी अकादमिक जगत और आलोचना पुरुष प्रधान रहा। उसने इन महिला रचनाकारों की सुध नहीं लीं जबकि ये महिला कथाकार उस दौर की पत्रिकाओं में छपती रहीं लेकिन बाद में उनके संचयन भी नहीं निकले। नवजागरण कालीन कवयित्रियों के संचयन तो निकले पर उस दौर के महिला कथाकारों के नहीं निकले। शायद यह भी कारण है कि बाद की पीढ़ी के लेखक इन रचनाकरों से अनभिज्ञ रही।
अब शिवरानी देवी के तीन कहानी संग्रह अरसे बाद उपलब्ध हुए हैं तो लोगों की दिलचस्पी जागी है। उनका पहला कहानी संग्रह “नारी हृदय“ 1933 में सरस्वती प्रेस से आया जिसे प्रेमचन्द ने खुद छापा। प्रेमचन्द के निधन के बाद 1937 में उनका दूसरा संग्रह ”कौमुदी” आया। ये दोनों उपलब्ध नहीं थे। अब उनकी कुछ असंकलित कहानियों का संग्रह “पगली” आया है।
उनकी किताब से पता चला कि उन्होंने स्वास्थ्य कारणों से प्रेमचन्द को आज़ादी की लड़ाई में जेल नहीं जाने दिया बल्कि वह खुद गयीं। प्रेमचन्द को बिना बताए वे कांग्रेस की सभाओं में जाती थीं। जब वह लखनऊ में विदेशी कपड़ों के बहिष्कार में पिकेटिंग के दौरान जेल गयीं तो प्रेमचन्द घर में नहीं थे बल्कि वे गोरखपुर गए थे जबकि बच्चे अकेले थे।
दरअसल, शिवरानी देवी पर रिसर्च करने की आज ज़रूरत है। उन्होंने जो लेख संपादकीय लिखे, उन्हें खोजकर उनका मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। लेकिन हिंदी समाज इतना आत्ममुग्ध है कि वह इन बातों पर ध्यान नहीं देता। कोविड काल में क्षमा शंकर पांडेय ने शिवरानी पर पहली आलोचनात्मक किताब लिखी तो किसी ने नोटिस ही नहीं लिया। आउटलुक में केवल एक छोटी समीक्षा आयी लेकिन अन्य पत्रिकाओं ने ध्यान ही नहीं दिया। क्षमा शंकर पांडेय कोविड में चल बसे पर किसी ने सुध नहीं ली।
उम्मीद की जाती है कि हिंदी समाज शिवरानी की फिर खोज ख़बर लेगा और प्रेमचन्द से अलग करके उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व पर विचार करेगा।
शिवरानी जी का मूल्यांकन अपनी समकालीन महिला कथाकारों सुभद्राकुमारी काटजू, कमला देवी चौधरी, सरस्वती देवी, सत्यवती मलिक, होमवती देवी, राजकुमारी सिन्हा, आशालता सिंह, सरला देवी, लीलावती झंवर, गोपाल देवी, सावित्री देवी गर्ग, सुंदरी देवी, सुशीला भार्गव, राजकुमारी बैजल जैसी कहानीकारों के आलोक में होना चाहिए।
शिवरानी देवी की सबसे अधिक कहानियाँ ‘चाँद’ में आईं और सुजीत जी के अनुसार ‘हंस’ में उनकी क़रीब 18 कहानियाँ मिलती हैं जो आरंभिक दोनों कहानी संकलनों में हैं। इसके अलावा अभी कुछ और कहानियों के होने की संभावना है। इसके लिए सुधा माधुरी जैसी अन्य पत्रिकाओं को भी खंगालने की ज़रूरत है।
अपनी राय बतायें