कहानियों को आधार बनाकर नाटक होते रहते हैं। ये कोई नई बात नहीं है। हिंदी रंगमंच पर ये कम से कम पिछले साठ -सत्तर बरसों से हो रहा है। पर अक्सर होता ये है कि अलग-अलग कहानियों की प्रस्तुतियां होती हैं। यानी दर्शक के सामने कहानी भर होती है। पर दो या उससे अधिक कहानियों को एक साथ मिलाकर एक नाटक करने के प्रयास बहुत कम होते हैं। अगर ऐसा हो तो हम सिर्फ एक या दो या तीन कहानियां भर नहीं देखते। हमारे सामने एक नया नाटय- रस आ जाता है। राजेश तिवारी इसी तरह के अपवाद- स्वरूप निर्देशक की तरह हैं। पिछले शनिवार दिल्ली के श्रीराम सेंटर में उनके निर्देशन में हुआ `नन्ही जान के दो हाथ’ एक ऐसा प्रयोग था जिसमें दो कहानियों को इस तरह मिलाया गया कि वे अलग-अलग लगी ही नहीं। यहां इस्मत चुगतई की दो कहानियों - `नन्हीं सी जान’ और `दो हाथ’ एकरूप हो गईं। इसमें जो नाट्य-रस निर्मित हुआ वो कहानी-रस से अतिरिक्त था।
पर बात इतनी भर नहीं है। राजेश, जिन्होंने खुद इस नाट्यरूप को लिखा, ये ध्यान रखा कि इसमें इस्मत चुगतई की रचनाओं का मूल मंतव्य न सिर्फ बना रहे बल्कि उसे विस्तारित भी किया। कहानियों की बात काफी दूर तलक चली गई। ये कैसे हुआ, इसे समझने के लिए पहले इन कहानियों पर बात कर ली जाए। `नन्ही सी जान’ एक ऐसी कहानी है जो मजाकिया रहस्य कथा की तरह है जिसमें एक लड़की पर ये आरोप लगता है कि उसने एक नन्ही जान को मार दिया। पर ये नन्ही जान कौन है? क्या वो मानव- जान है, क्या किसी बच्चे या बच्ची की जान है?
सचाई जाने बिना हंगामा खड़ा हो जाता है और इस बात के कयास लगाए जाने लगते हैं कि जान लेने वाली को क्या सजा मिलेगी, क्या उसे पुलिस में दिया जाएगा, उस पर मुक़दमा चलाया जाएगा या और भी कार्रवाई होगी? आखिर में `खोदा पहाड़ और निकली चुहिया’ की तरह मालूम होता है कि सारा शोर इस बात को लेकर था कि मुर्गी के एक बच्चे को मारा गया था। वो भी गलती से। पुरी कहानी चुहल से भरी है।
दूसरी कहानी `दो हाथ’ एक सफाई कर्मचारी परिवार और एक संपन्न मुस्लिम परिवार के संबधों के साथ-साथ सामाजिक विभाजन और यौन शुचिता संबंधी विचारों को लेकर है। इसमें एक वृद्धा सफाई कर्मचारी (प्रियंका) के बेटे राम अवतार (मनीष) की शादी गोरी (शुचि) नाम की लड़की से होती है। राम अवतार फौज में सफाई कर्मचारी है। जिस दिन वो गोरी को ब्याह कर लाता है उसी रात उसे फौज से बुलावा आता है और गोरी को ठीक से देखे बिना वो उसे अपनी मां के हवाले कर युद्ध के मोर्चे पर चला जाता है। फिर वो तीन साल के बाद लौट कर आता है तो पाता है उसकी पत्नी गोरी एक बच्चे की मां बन चुकी है क्योंकि इस बीच गोरी का अपने देवर रतिराम से संबंध हो जाता है। अब आसपास के लोगों द्वारा ये सवाल उठाया जाता है कि क्या राम अवतार इस बात से नाराज होगा, गोरी को छोड़ देगा? लेकिन नहीं, राम अवतार उस बच्चे को अपना लेता है और आसपास वाले हक्के बक्के रह जाते हैं।
`नन्हे हाथ’ में मुख्य रूप से दो विमर्श हैं। एक तो इसमें दलितों के सबसे नीचे के पायदान वाले- यानी सफाई कर्मचारियों की बदहाली को दिखाया गया है। उनकी ज़रूरत सबको होती है किंतु जिनको सम्मान नाम की चीज का लेशमात्र भी नहीं मिलता। पूरी कहानी में, तथा पूरे नाटक में भी, कोई राम अवतार को उसके नाम से नहीं बुलाता। उसे रामअवतरवा नाम से बुलाया जाता है- सामने भी और पीछे भी। उसकी मां और पत्नी को तो और भी तीखे दंश झेलने पड़ते हैं। गोरी पर पुरुषों की ललचायी नज़र रहती है और जिन घरों में वो काम करती है उनकी महिलाओं को लगता है कि उनके पति कहीं उसके चंगुल में न फंस जाए।
दूसरा विमर्श इस बात को लेकर है कि गोरी के बच्चे को लेकर राम अवतार का नजरिया समाज में प्रचलित रवैये से अलग क्यों है?
राजेश तिवारी अपनी इस प्रस्त्तुति में इस्मत चुगतई के दृष्टिकोण को आगे बढ़ाते हैं और अपने अभिनेताओं व दृश्य-रचनाओं के माध्यम से दोनों कहानियों को मिलाते हुए जज्बाती लम्हों को गहराई देते हैं। वैसे, वे जज्बाती लम्हें कहानियों में हैं पर शब्द की सीमा होती है। उनको पढ़ने का आनंद है पर मंच पर वही शब्द तब दर्शक के भीतर भावोद्रेक पैदा करते हैं जब वे अच्छे दृश्य के रूप में आते हैं और अभिनेता उनको आकार देते हैं। राजेश में छोटे-छोटे प्रसंगों को प्रभावशाली दृश्य में बदलने की गजब की काबिलियत है। वे `डिटेलिंग’ पर इतना ध्यान देते हैं कि एक छोटा सा प्रसंग भी बड़ा वक्तव्य बन जाता है। इसकी शुरुआत नाटक में तभी हो जाती है जब राम अवतार गोरी को शादी करके लाता है और कस्बे के शोहदे उसे और गोरी पर फब्तियां कसना शुरू करते हैं।
हमारे यहां गाँवों-कस्बों में एक प्रचलित मुहावरा है- गरीब की लुगाई सबकी भौजाई। इस दृश्य में होता ये है कि गरीब राम अवतार की लुगाई उन शोहदों पर भारी पड़ जाती है और उनको व बाकी लोगों को भी औकात बता देती है। जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता है हंसी के फव्वारे भी छूटते हैं और समाज और परिवारों में फैली विद्रूपताएं भी उभरती रहती हैं। इस नाटक में इस्मत चुगतई (इंदु) भी एक चरित्र हैं जिससे दर्शक शुरू से अंत तक ये महसूस करता रहता है कि वो पात्रों को ही नहीं कहानीकार को भी देख रहा है।
नाटक की संगीत और प्रकाश योजना भी भावनात्मक लम्हों को दिल के अंतरतम में उतारने वाली है। इस प्रस्तुति में कुछ प्रतीक भी हैं। नवजात बच्चों के प्रति स्नेह दिखाने के लिए पुतलों का उपयोग भी इसी मक़सद से हुआ है।
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