ऑटिज़्म (माफ करेंगे इसके लिए मुझे कोई सटीक हिंदी शब्द नहीं मिला लेकिन ये मनोवैज्ञानिक तौर पर कुछ अलग मानसिक क्षमता वालों के लिए प्रयोग में लाया जाता है) को लेकर हाल के बरसों में कला जगत में- यानी फिल्मों से लेकर नाटकों में - संवेदनशीलता उभरी है। कुछ साल पहले आमिर खान केंद्रित `तारे जमीन पर’ इसी तरह की फिल्म थी जिसमें ये दिखाया गया था कि कुछ बच्चे अलग तरह से सामान्य होते हैं और हो सकता है कि जिसकी पढ़ाई में मन न लगे, या माता-पिता की नज़र में फिसड्डी हो, वो बतौर पेंटर अच्छा हो। ये वाली समझ और संवेदनशीलता नाटकों में भी आ रही है। इसी हफ्ते दिल्ली के कमानी सभागार में आद्यम थिएटर फेस्टिवल के दौरान खेले गए नाटक `द क्यूरियस इंसीडेंट ऑफ़ द डॉग इन द नाइट- टाइम’ में भी ये चेतना देखने को मिली। ये अतुल कुमार द्वारा निर्देशित नाटक है।
वैसे ये नाटक इंग्लैंड और अंग्रेजी के उपन्यासकार मार्क हेडन के इसी नाम की इसी रचना का नाट्य रूंपातर है। अंग्रेजी में इसका रूपांतर साइमन स्टीफेंस ने किया है। ये हाल के बरसों में इंग्लैंड और अमेरिका के नाट्य समारोहों में खेला जा चुका है। पर अतुल कुमार ने जो नाटक किया वो मुंबई के केंद्र में रूपांतरित है यानी इसमें जगहों के नाम आते हैं वो मुबंई की है। संवाद मुख्य रूप से अंग्रेजी में हैं पर हिंदी में भी है, खासकर मुंबइया हिंदी में। हालांकि नाटक संवाद से अधिक एक्शन में है।
ये क्रिस्टोफर डिसूजा (धीर हीरा) नाम के बच्चे की कहानी है। क्रिस्टोफर कुछ अलग तरह का स्कूली बच्चा है। वो अपने पिता के साथ रहता है। उसे बताया गया है कि उसकी माँ मर चुकी है। क्रिस्टोफर गणित में बहुत तेज है लेकिन लोगों से मिलने, जुलने या बतियाने में कुछ अलग तरह का है। मुंबई के जिस इलाक़े में वो रहता है वहां पड़ोस में एक रात एक कुत्ते को मार दिया जाता है। थोड़ा सा हंगामा मचता है, पुलिस आती है। क्रिस्टोफर जानना चाहता है कि कुत्ते को किसने मारा। क्यों मारा? अपनी तरफ से वो तहकीकात शुरू करता है कि कुत्ते का हत्यारा कौन? और ये क्या? उसे दो चीजें पता चलती हैं- एक तो कुत्ते को उसके पिता ने मारा था और दूसरे उसकी मां जिंदा है तथा किसी और के साथ रहती है।
फिर क्रिस्टोफर लोकल ट्रेन से अपनी मां से मिलने जाता है और उस यात्रा के दौरान वो कई वाकयों से गुजरता है। उसके पास एक चुहिया है जिसे ट्रेन में ले जाने में कुछ परेशानियाँ होती है। पर अंतत: उसकी मां उसे मिल ही जाती है। इस सब हादसों के दौरान गणित से उसका प्रेम बना रहता है, हालांकि उसका आत्मविश्वास हिल गया है। फिर भी परीक्षा में गणित में उसे `ए प्लस’ मिलता है।
मगर हम हास्य वाले इस पक्ष को छोड़ दें और इस नाटक का गंभीर विश्लेषण करें तो ये नाटक (और मूल उपन्यास भी) ये कहता है कि जिसे हम, समाज का बड़ा हिस्सा सामान्य नहीं समझता वो भी अलग तरह की विशिष्ट होता है।
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अतुल कुमार आज के उन भारतीय निर्देशकों में हैं जिनकी राष्ट्रीय के अलावा अंतरराष्ट्रीय पहचान भी है। इस नाटक के माध्यम से उन्होंने एक ऐसे मसले को छुआ है जिसकी सामाजिक ज़रूरत भी है और जिसे करने में चुनौतियां भी हैं। सबसे बड़ी चुनौती तो ये है कि ऑटिज्म जैसे विषय अकुशल निर्देशकों के हाथों में ढीले-ढीले और बोरियत भरे भी हो सकते हैं। लेकिन नहीं। इस प्रस्तुति में कोई ऐसा लम्हा नहीं है जो दर्शकों के सीट से बांधे नहीं रखता और उनके भीतर एक संवेदनशील हृदय विकसित नहीं करता।
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