इस बार त्रिवेणी नाट्य समारोह का समापन दादी पदमजी की पुतली प्रस्तुति `रूमियाना’ से हुआ जो सूफी शायर जलालुद्दीन रूमी के जीवन दर्शन से प्ररित है। हालाँकि ये लगभग तीन साल पुरानी प्रस्तुति है और कई जगहों पर दिखाई जा चुकी है। फिर भी इसमें ताजगी थी। सूफी संत रूमी की शायरी का संग्रह विशाल है और लगभग एक घंटे के शो में उनको समेटना बहुत कठिन है। लेकिन समानांतर रूप से ये भी सही है कि इस महान सूफी संत की हर रचना में इतना कुछ है कि एक को भी पढ़ या सुन लें तो ये अंदाजा हो जाता है कि एक छोटे से अंश में विराट समुद्र समाया हुआ है।
`रूमियाना’ में रूमी की शायरी भी है, पुतलियां भी हैं, एनिमेशन भी है, अभिनेता भी हैं, संगीत भी है। दूसरी तरह से कहें तो ये पुतली केंद्रित एक मल्टीमीडिया प्रोडक्शन है। और ये सारा कुछ रूमी की एक कविता को समझने और समझाने की कोशिश के सिलसिले में है। या ये कहें कि उसे व्याख्यायित करने की प्रक्रिया में जीवन सत्य पाने का प्रयास है। कविता का अंग्रेजी में शीर्षक है- `हू इज एट माई डोर’। हिंदी में इसका मुक्त अनुवाद `कौन दरवाजे पर दस्तक दे रहा है’ नाम से किया गया है। ये कविता गुरु-शिष्य के बीच सवाल-जवाब के रूप में है। पर सवालों और जवाबों की इस प्रक्रिया में ज़िंदगी के मायने खुलते जाते हैं। पर क्या वो पूरी तरह खुल पाते हैं? शायद नहीं और शायद हां।
`हां’ इसलिए कि जब कोई जीवन के दार्शनिक अर्थ को जानना शुरू करता है तो ये शुरुआत ही ज्ञान की तरफ़ ले जाती है और `नहीं’ इसलिए कि जीवन के दार्शनिक अर्थ को पूरी तरह जान पाना संभव नहीं क्योंकि वो तो ऐसी सतत और अविराम प्रक्रिया है जो कभी समाप्त नहीं होती। रूमी की शायरी और दर्शन को समझना भी एक अनवरत प्रकिया है। लेकिन यहाँ ये भी पता चलता है कि रूमी को समझ लेना दुनिया के हर धर्म को जानना है- सिख गुरुओं को जानना है, बौद्ध धर्म को जानना है और शांति की बात करने वाले उपनिषदों को जानना है। सिख धर्म ने `एक ओंकार सतनाम’ की जो बात कही गई है वो मनुष्यता को जानने और उसका सम्मान करने की है। बहुधर्मिता को सम्मान देने की है।
आपको लग सकता है कि बात कुछ धार्मिकता और आध्यात्मिकता की तरफ़ चली जा रही है। पर यही दादी पदमजी की इस प्रस्तुति की खूबी है। दादी इस वक़्त देश के बड़े पपेटीयर हैं (पपेटीयर का कोई हिंदी समतुल्य उपलब्ध नहीं है इसलिए इसका प्रयोग कर रहा हूं। पपेट के लिए हिंदी में कठपुतली शब्द है लेकिन पपेट सिर्फ काठ से नहीं बनते इसलिए ये अपर्याप्त है। वैसे तो भारतीय कठपुतली का भी एक लंबा और शानदार इतिहास है लेकिन आज दुनिया भर में पपेट कला में इतने प्रयोग हो रहे हैं कि दंग रह जाना पड़ता है। फिलहाल जो बात यहां प्रासंगिक है वो ये कि पपेट को बाल मनोरंजन के दायरे से बाहर निकालकर उसे वृहत्तर सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक मसलों से जोड़ने की कोशिशें हो रही हैं और ऐसा करनेवालों में भारत में दादी पदमजी प्रमुख हैं।

कला किसी न किसी स्थान में जन्म लेती है। इसलिए उसका रिश्ता किसी खास भौगोलिक स्थान से होता है। यानी किसी देश या क्षेत्र से। पर धीरे-धीरे उसका सौंदर्य दूर-दूर तक पहुँचने लगता है, उसके गुणग्राहक बढ़ने लगते हैं और समय के साथ-साथ वो सार्वदेशिकता की ओर अग्रसर होने लगती है। विचार और चिंतन में भी यही होता है। रूमी के साथ भी यही हुआ। वे आज के अफ़ग़ानिस्तान के बाल्ख में लगभग आठ सौ साल पहले पैदा हुए और उनका निधन आज के तुर्की में हुआ। पर आज वो दुनिया के सर्वाधिक पढ़े जानेवाले शायरों में हैं। उनके अनुवाद दुनिया की कई भाषाओं में हो चुके हैं। अब वे पुतली कला के माध्यम से वहाँ भी पहुँच रहे हैं जहां के बारे में कुछ साल पहले कल्पना भी मुश्किल थी। यही कला की ताक़त है। वो सिर्फ़ भूगोल में यात्रा नहीं करती बल्कि आध्यात्मिकता के उस लोक में भी चली जाती है जहां के बारे में पहले से सोचना कठिन होता है। पुतलियाँ भी संदेशवाहक होती हैं। वो भी संत या सूफी हो सकती हैं। `रूमियाना’ की पुतलियाँ भी सूफी हो गई हैं।
दादी के पास कई विधाओं के कलाकारों की एक अच्छी टीम है। `रूमियाना’ में संदीप पिल्लई (संगीत), शाह अहमद (स्क्रिप्ट), मोहित मुखर्जी और टी जोशुआ चिन (दोनों अभिनेता), विवेक कुमार, उमंग गुप्ता, कुमारी यादव (पपेटीयर), शमशुल, नारायण शर्मा (नर्तक), शाश अहमद (एनिमेशन) और पवन वाघमारे (प्रकाश परिकल्पना) जैसे सहयोगियों ने दादी की सोच को जो आकार दिया वो एक संश्लिष्ट प्रभाव छोड़ता है और दिल को छूता है।
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