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नज़ीर की शायरी में जो उल्लास है...

जब किसी बड़े व्यक्ति पर आधारित कोई सफल नाटक होता है तो उसकी याद हमेशा बनी रहती है। नाटक की भी और व्यक्ति की भी। लेकिन साथ-साथ ये भी होता है कि उस व्यक्ति के बारे में कई तरह की जिज्ञासाएँ भी सक्रिय हो जाती हैं। सहृदय समाज के मन में ये प्रश्न उठने लगते हैं कि जिस शख्स को लेकर नाटक हुआ, उसने और क्या क्या किया? फिर इसी कड़ी में ये भी संभावना बनती जाती है कि उस व्यक्ति को केंद्र मे रखकर कोई और भी नया नाटक हो। नज़ीर अकबराबादी (1735-1830) के साथ भी यही हो रहा है। 

सन् 1954 में हबीब तनवीर ने `आगरा बाज़ार’ नाम का जो नाटक किया था वो नज़ीर अकबराबादी की शख्सियत पर ही आधारित था। जिसे कहते हैं न - छा जाना, वही इस नाटक के साथ हुआ। `आगरा बाज़ार’ हिंदी भाषी इलाके में छा गया और और आज भी छाया हुआ है। हबीब तनवीर अब नहीं रहे लेकिन `आगरा बाज़ार’ अभी भी हो रहा है और कई बार इसे देख चुके दर्शक भी इसे फिर से देखने जाते हैं। हबीब तनवीर द्वारा स्थापित `नया थिएटर’ भी इसे करता है और दूसरे निर्देशक भी इसे खेलते हैं। 

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पर जैसा कि पहले कहा गया, `आगरा बाज़ार’ ने नज़ीर अकबराबादी के बारे में कई जिज्ञासाएं भी जगा दीं। नज़ीर के नए प्रशंसक भी बनने लगे। उसी का नतीजा है कि रंगकर्मी रजनीश बिष्ट ने `नज़ीर कथा कीर्तन’ नाम से एक नया नाटक तैयार किया है। ये नाटक अभी चल रहे `त्रिवेणी नाट्य समारोह -2025’ में पहले ही दिन खेला गया। ये `आगरा बाज़ार’ किस्म का नाटक नहीं है। इसमें उस तरह के चरित्र भी नहीं हैं। बल्कि इसमें आम नाटकों जैसे चरित्र या किरदार भी नहीं हैं। नज़ीर एक किरदार के रूप में इसमें हैं पर मंच पर उनकी भूमिका बतौर चरित्र बहुत कम हैं। ये संगीतात्मक नाटक है और इसमें नजीर के लिखे नज्म और अशआर ही किरदार हैं। उनकी संगीतात्मक प्रस्तुतियां ही इसमें हुई हैं। कई तरह के वाद्यों के साथ गायकों- गायिकाओं- अभिनेताओं की टोली ने नज़ीर की रचनाओं को मंच पर रंगारंग तरीके से लाया। साथ ही इस शायर की रचनाओं के मर्म को भी। पर सवाल तो ये भी उठता है न कि नज़ीर का रचनाओं का मर्म क्या है?

जवाब आसान भी है और कठिन भी। आसान इसलिए कि नज़ीर के एक जानेमाने शायर हैं। कठिन इसलिए कि उनकी रचनाओं की संख्या इतनी बड़ी है कि डेढ़ -दो घंटे की प्रस्तुति में उनको समेटना मुश्किल है। उनकी लगभग छह हजार से अधिक रचनाएं हैं। वे अपने जमाने में भी लोगों की जुबां पर बस गए थे। यानी उनके लिखे को तरबूज और ककड़ी बेचने वाले भी गाते थे और मिठाई बेचनेवाले भी। होली खेलने वाले भी उनको गाते रहे हैं। आज भी गाते हैं। खुदा को माननेवाले भी नजीर को गुनगुनाते हैं और शिव तथा कृष्ण के भक्त भी। गुरु नानक के प्रशंसक भी। जिसे मोटे तौर पर गंगा जमुनी तहजीब कहते हैं नज़ीर उसके आरंभिक प्रवक्ताओं में रहे हैं। और आज भी हैं।

रजनीश बिष्ट द्वारा निर्देशित इस नाटक में उनकी कई ऐसी रचनाएं गायन के माध्यम से मंच पर आईं जिनमें भारतीय जनजीवन के कई रंग उभरते हैं। इस शायर ने सिर्फ मनुष्य की सक्रियताओं को ही सामने नहीं लाया बल्कि अलग अलग तरह की चिड़ियों की आवाजों को भी अपनी शायरी में जगह दी। ये आवाजें - चहचहाटें- भी दर्शकों ने त्रिवेणी परिसर में सुनी। 
नाटक के दौरान ऐसा समा बंध गया मानो कोई बड़ा लोक उत्सव हो रहा है। दर्शक भी कलाकारों के साथ ही नाचने लगे। ऐसा हो भी क्यों न, नज़ीर एक लोकशायर जो ठहरे। उनकी रचनाओं का लोक और बाहर का लोक एकमेव हो जाता है।

पर थोड़ा ठहरकर नज़ीर के अवदान को समझने की कोशिश करें तो ये कहना पड़ेगा कि वे सिर्फ़ लोकशायर भर नहीं है। सामंतवाद के उस दौर में सामाजिक जीवन में बराबरी का बोध नहीं के बराबर था। भारत में ही नहीं दुनिया भर में उस तरह की राजनैतिक विचारधारा भी नहीं थी जिसमें समाज के हर वर्ग को मनुष्यता के नाम पर एक समान समझा जाए।  नज़ीर ने `आदमीनामा’ लिखा  उसकी आरंभिक पंक्तियां इस तरह हैं- 

दुनिया में पादशाह है सो है वो भी आदमी

और मुफ़्लिस- ओ- गदा है सो है वो भी आदमी

ज़रदार- ए- नवा है सो है वो भी आदमी

नेमत जो खा रहा है सो है वो भी आदमी 

टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी

habib tanvir aagra bazaar natak nazir akbarabadi - Satya Hindi
इन पंक्तियों या इस नज्म को लिखे जाते समय दुनिया में धन-दौलत, ताकत, सत्ता आदि के आधार पर आदमी आदमी में फर्क किया जाता था। आज भी किया जाता है पर वैचारिक स्तर पर नहीं। लेकिन तब बादशाह और गरीब किसी स्तर पर एक ही तरह के मनुष्य हैं ये बतानेवाली विचारधारा नहीं थी। उस वक्त समाजवाद की धारणा का उदय जैसा कुछ हो रहा था। नज़ीर के जीवन के प्रौढ़ काल के समय फ्रांसीसी राज्यक्रांति हुई थी पर उसका असर मुख्य रूप से यूरोप तक सीमित था। तब साम्यवाद की परिकल्पना भी सामने नहीं आई नहीं थी। कार्ल मार्क्स का जन्म (1818 में) तो हो गया था पर मार्क्सवाद नाम की कोई चीज नहीं थी। प्रगतिशील लेखक संघ जैसे किसी लेखक संघ की स्थापना नहीं हुई थी जो लेखकों से कहे कि मनुष्य की सामाजिक- आर्थिक स्थिति को बदलने का भाव रखनेवाले साहित्य का सृजन हो। 
ऐसे समय में नज़ीर ने `आदमीनामा’ की रचना की। समझा जा सकता है कि वैचारिकता की दृष्टि से साहित्य के माध्यम से उन्होंने क्या किया?

बेशक नजीर के पहले भारत में बड़े साहित्यकार हुए। उनके बाद भी। पर इस बात को स्वीकार करना पड़ेगा कि नज़ीर इन सभी मूर्धन्यों के बीच भी विशिष्ट इसलिए हैं कि उनके लिखे के माध्यम से समाज में कई नवीन धारणाएं सामने आईं जो आज भी प्रासंगिक हैं और आगे भी रहेंगी। इनमें एक धारणा सेकुलरिज्म भी है। नज़ीर-साहित्य में जीवन का उल्लास भी है, इहलौकिकता भी, सामाजिक बराबरी के प्रति आग्रह भी है, रोटी का स्वाद भी। और इन सबके साथ मृत्यु नाम रूपी सत्य का साक्षात्कार भी है। नज़ीर मृत्यु को बंजारा कहते हैं और अपनी `बंजारानामा’ नाम के नज्म में वे लिखते हैं- 

तू बधिया लादे बैल भरे जो पूरब पश्चिम जावेगा

या सूद बढ़ाकार लावेगा या टोटो घाटा पावेगा

कज़्ज़ाक अजल का रस्ते में जब भाला मार गिरावेगा

धन-दौलत नाती पोता क्या इक कुनबा काम ना आवेगासब ठाट बड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

नज़ीर जीवन के शायर है, पर वे जीवन के अटल सत्य मृत्यु के भी शायर है। जब जब जीवन के सार की बात होगी तब तब नज़ीर का बात होगी। धर्म के मुहावरे में नहीं बल्कि रोजमर्रे की शैली में उन्होंने जीवन के दार्शनिक पहलू को भी उन्होंने उजागर किया। उनका काव्य तो पहले से लोगों की जुबान पर था पर हबीब तनवीर ने नए परिप्रेक्ष्य में उसके महत्त्व को प्रतिपादित किया। और इसी का नतीजा है कि नज़ीर की कथा आज के रंगकर्मियों द्वारा गाई जा रही है।

 

 

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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