दुनिया में शब्दों की संख्या में इजाफा हो रहा है। हर भाषा में। इसलिए हर भाषा में शब्दकोषों की संख्या भी बढ़ रही है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है कि जैसे जैसे शब्द बढ़ रहे हैं वैसे वैसे अर्थ की अहमियत कम होती जा रही है। अर्थ और शब्द के रिश्ते टूट रहे हैं। जो कहा जा रहा है या जो लिखा जा रहा है उसकी अर्थ से दूरी बढ़ती जा रही है। सिर्फ सार्वजनिक जीवन में ही नहीं बल्कि घरों में भी। पति-पत्नियों के बीच संवाद टूट रहे हैं और दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। बोलचाल है पर संवाद नहीं है। ऐसे ही मसलों को लेकर पिछले दिनों दिल्ली के एलटीजी गैलरी में एक नाटक हुआ जिसका नाम था- `द अदर पर्सन‘। नाम अंग्रेजी में था पर पूरा नाटक हिंदी में। निर्देशित किया संदीप शिखर ने। संदीप बंगलूरू में सक्रिय रंगकर्मी हैं। जिस रंगमंडली ने इसे आयोजित किया है वो है `समर्थ रेपरटरी कंपनी’, जो दिल्ली में सक्रिय है। वैसे समर्थ रंगमंडली के कर्ताधर्ता और निर्देशक संदीप रावत हैं। लेकिन संदीप इस बार दूसरी भूमिका में थे। इस बार उन्होंने अभिनय किया, निर्देशन नहीं। और इस क्रम में ये दिखाया है कि वो एक बेहतर निर्देशक ही नहीं, अच्छे अभिनेता भी हैं।
भाषा और समाज में असंगतियाँ
- विविध
- |
- |
- 24 Mar, 2025

नाटक ‘द अदर पर्सन’ का प्रभावशाली मंचन किया गया। जानिए इस नाटक के विचारोत्तेजक संदेश और दर्शकों की प्रतिक्रियाएं।
`द अदर पर्सन’ मराठी नाटककार युगंधर देशपांडे का लिखा हुआ है। हिंदी अनुवाद नाटक के निर्देशक संदीप शिखर का है। एक सवाल उठ सकता है कि नाटक हिंदी में हुआ तो नाम अंग्रेजी में क्यों रखा? इसका जवाब शायद ये है कि अंग्रेजी में `अदरनेस’ का एक विशेष वैचारिक अर्थ है और इसका एक इतिहास भी है। लेकिन अगर हिंदी में इसका अनुवाद `अन्य’ या `दूसरा’ किया जाए तो `अदरनेस’ वाला अर्थ नहीं आता है। शायद इसीलिए निर्देशक और अनुवादक ने नाटक का नाम अंग्रेजी वाला रहने दिया। हालांकि मेरी धारणा है कि अगर `अन्य’ या `दूसरा’ का उस अर्थ में प्रयोग करने लगें जिस तरह अंग्रेजी वाले `अदर’ का करते हैं तो धीरे धीरे वो अर्थ भी आ जाएगा। मगर लोग, या कहें कि अनुवादक - निर्देशक, समझते हैं कि कौन इस झमेले में फंसे, अंग्रेजी के शब्दों से ही काम चला लो।