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भाषा और समाज में असंगतियाँ

दुनिया में शब्दों की संख्या में इजाफा हो रहा है। हर भाषा में। इसलिए हर भाषा में शब्दकोषों की संख्या भी बढ़ रही है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है कि जैसे जैसे शब्द बढ़ रहे हैं वैसे वैसे अर्थ की अहमियत कम होती जा रही है। अर्थ और शब्द के रिश्ते टूट रहे हैं। जो कहा जा रहा है या जो लिखा जा रहा है उसकी अर्थ से दूरी बढ़ती जा रही है। सिर्फ सार्वजनिक जीवन में ही नहीं बल्कि घरों में भी। पति-पत्नियों के बीच संवाद टूट रहे हैं और दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। बोलचाल है पर संवाद नहीं है। ऐसे ही मसलों को लेकर पिछले दिनों दिल्ली के एलटीजी गैलरी में एक नाटक हुआ जिसका नाम था- `द अदर पर्सन‘। नाम अंग्रेजी में था पर पूरा नाटक हिंदी में। निर्देशित किया संदीप शिखर ने। संदीप बंगलूरू में सक्रिय रंगकर्मी हैं। जिस रंगमंडली ने इसे आयोजित किया है वो है `समर्थ रेपरटरी कंपनी’, जो दिल्ली में सक्रिय है। वैसे समर्थ रंगमंडली के कर्ताधर्ता और निर्देशक संदीप रावत हैं। लेकिन संदीप इस बार दूसरी भूमिका में थे। इस बार उन्होंने अभिनय किया, निर्देशन नहीं। और इस क्रम में ये दिखाया है कि वो एक बेहतर निर्देशक ही नहीं, अच्छे अभिनेता भी हैं।

`द अदर पर्सन’ मराठी नाटककार युगंधर देशपांडे का लिखा हुआ है। हिंदी अनुवाद नाटक के निर्देशक संदीप शिखर का है। एक सवाल उठ सकता है कि नाटक हिंदी में हुआ तो नाम अंग्रेजी में क्यों रखा? इसका जवाब शायद ये है कि अंग्रेजी में `अदरनेस’ का एक विशेष वैचारिक अर्थ  है और इसका एक इतिहास भी है। लेकिन अगर हिंदी में इसका अनुवाद `अन्य’ या `दूसरा’ किया जाए तो `अदरनेस’ वाला अर्थ नहीं आता है। शायद इसीलिए निर्देशक और अनुवादक ने नाटक का नाम अंग्रेजी वाला रहने दिया। हालांकि मेरी धारणा है कि अगर `अन्य’ या `दूसरा’ का उस अर्थ में प्रयोग करने लगें जिस तरह अंग्रेजी वाले `अदर’ का करते हैं तो धीरे धीरे वो अर्थ भी आ जाएगा। मगर लोग, या कहें कि अनुवादक - निर्देशक, समझते हैं कि कौन इस झमेले में फंसे, अंग्रेजी के शब्दों से ही काम चला लो।

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इस नाटक में कुल छह किरदार हैं जिनकी भूमिकाएँ क्रमश: हरनूर कौर सुखेजा, वंदना भूषण, नैना दर्पण, फाजिल, अरुण कुमार सिंह और संदीप रावत ने निभाई है। किसी किरदार का नाम मंच पर नहीं लिया जाता है। दर्शकों को ये तो पता चलता है कि फलां डॉक्टर है। रिसेप्सनिस्ट है, पार्सल पहुंचाने वाला है, शब्दकोष छापने वाला है। किंतु चरित्रों की कोई वैयक्तिक और सामाजिक पहचान नहीं उभरती है। नाटक की शुरुआत में होता ये है कि एक पार्सल पहुँचाने वाला एक ऐसे घर पर सामान लेकर पहुँचता है जहां एक औरत रहती है। लेकिन वो औरत कौन है? पार्सल वाले से पूछने पर वो इतना बताती है कि वो एक अजनबी के साथ रहती है और जिसके साथ वो अपने बिस्तर का आधा हिस्सा भी बांटती है। इसका क्या मतलब है? क्या वो शख्स उसका पति है जो उसके लिए अब अजनबी हो चुका है। अर्थ निकलता है और नहीं भी निकलता है क्योंकि पूरा नाटक उस एबसर्ड या असंगत शैली में लिखा और खेला गया है जो एक जमाने के यूरोप में काफी प्रचलित था। ऐसा लगता है कि नाटककार देशपांडे सेमुअल बेकेट और युजीन आयोनेस्को से प्रभावित रहे हैं। बेकेट के `वेटिंग फोर गोदो’ और यूजीन आयोनेस्को के `रिनोरोरेस’ की छाप इस नाटक पर है। 

आयोनेस्को के नाटक में जिस तरह गैंडे का संदर्भ है उसी तरह इस नाटक में गायों और हाथियों के संदर्भ आते हैं। कई बार कहा जाता है कि ट्रैफिक सिग्नलों पर गायें इस तरह खड़ी हैं कि यातायात बाधित हो गया है और कहीं आना और जाना दूभर हो गया है। समकालीन राजनीति से जुड़े कुछ मुद्दे भी प्रसंगवश आते हैं लेकिन संवादों में।  संवाद भी बेहद चुटीले हैं पर अर्थगर्भी भी हैं। इनमें व्यंग्य भी हैं जिसके निशाने पर आज की राजनीति है। भारतीय राजनीति। पर ये सब संकेतों में है।

बार बार कहा जाता है कि भाषा असफल हो गई है लेकिन शब्दकोष बनाने या छापने वाला अपनी बात कहता जाता है। निर्देशक और नाटककार इस बात की ओर भी इंगित करते हैं कि भाषा के अधिकाधिक इस्तेमाल के बावजूद या शायद इसी कारण हम अपने आसपास अर्थों को खोते जा रहे हैं। प्राइवेसी यानी निजता ख़त्म होती जा रही है। रिश्तों की गरमाहट ख़त्म होती जा रही है। पति-पत्नी ही नहीं, डॉक्टर और पेशेंट के बीच के संबंध का भी कोई मतलब नहीं रह गया है। क्या कहीं कोई संभावना बची है? मानवीय जीवन में अर्थवत्ता की? नाटक के दर्शक इस बारे में भी मनमाना मतलब निकाल सकते हैं क्योंकि निर्देशक और अभिनेता जो करते और कहते हैं उनमें एकार्थीपन नहीं है। बहुलार्थता है।
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`द अदर पर्सन’ की मंच सज्जा भी बहुत प्रयोगशील है। मंच तीन हिस्सों में बँटा हुआ है। बीच वाले हिस्से से एक सड़क का भान होता है जिसमें ट्रैफिक सिग्नल वाली लाल, हरी और पीली बत्त्तियों का एक स्तंभ है। उसके बाईं और दायीं तरफ़ के हिस्सों मे कार्य-व्यापार होता है। कुर्सियां और कुछ अन्य फर्नीचर के माध्यम से जो माहौल बनता है वो भी अमूर्त का आभास करानेवाला ही है। पर जो भी है, जितना भी है वो यही संकेत करनेवाला है कि हमारा समाज, हमारी सभ्यता और हमारा वर्तमान - जिन स्थितियों में है उनमें परस्पर संबंध गड़बड़ा गए हैं, उनकी संगतियां खत्म हो गई हैं। संवाद तो अधिकतर हिंदी में है लेकिन कुछ स्थलों पर बुंदेली के वाक्य प्रयोग भी है। इससे कुछ स्थलों पर हंसी भी आती है।

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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