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‘के2-18बी’ ग्रह की प्रतीकात्मक तस्वीर।

कैसे पकड़ में आए एक अदद ज़िंदा ग्रह

धरती से बाहर कहीं और जीवन है या नहीं, यह सवाल दो स्तरों पर खोजबीन का सबब बना हुआ है। एक तो हमारे अपने सौरमंडल के भीतर, जिसके लिए सबसे ज़्यादा उम्मीद मंगल ग्रह के अलावा बृहस्पति ग्रह के चांद यूरोपा से बांधी गई है। ये वे जगहें हैं, जो भौतिक रूप में हमारी खोजबीन के दायरे में हैं। इनपर उतर कर हमारे यान खोजबीन शुरू भी कर चुके हैं। दूसरा स्तर पृथ्वी से कई प्रकाशवर्ष दूर स्थित तारों के इर्दगिर्द घूमने वाले ग्रहों का है, जो अगले कुछ सौ सालों तक शायद दूरबीनी प्रेक्षणों तक ही सिमटा रहे। लेकिन जीवन की कोई बड़ी समझ इन दूर के प्रेक्षणों पर ही खड़ी हो सकेगी। इस सिलसिले में ताजा खबर ‘एस्ट्रोफिजिकल जर्नल लेटर्स’ में छपी यह रिसर्च है कि दूर के ग्रहों पर जीवन के चिह्न मिथाइल क्लोराइड और मिथाइल ब्रोमाइड के रूप में खोजना कहीं बेहतर रहेगा। 

सबसे ज्यादा चर्चा का संदर्भ अभी सन 2015 में केपलर टेलीस्कोप द्वारा 124 प्रकाशवर्ष दूर खोजा गया एक ग्रह ‘के2-18बी’ बना हुआ है। नाम के बारे में स्पष्ट कर दें कि यहां ‘के’ केपलर के लिए आया है। केपलर टेलीस्कोप द्वारा प्रेक्षित 18वें तारे के इर्दगिर्द घूमने वाले ग्रहों में भीतर से दूसरा। बहुत दूर के तारों के इर्दगिर्द घूमने वाले ग्रहों को ढूंढकर उनके बारे में कोई ठोस निष्कर्ष निकालना वैसा ही होता है, जैसे रात में दस किलोमीटर दूर किसी घर पर जल रहे तेज बल्ब पर मंडरा रहे पतिंगों को नंगी आंखों से न सिर्फ देख लेना, बल्कि उनमें किसी एक को चुनकर उसकी नस्ल और लिंग भी तय कर देना। यह लगभग असंभव काम अभी भरोसे के साथ किया जाने लगा है। जैसे, 2019 में के2-18बी के वातावरण में जलवाष्प और 2023 में कार्बन डायॉक्साइड और मीथेन होने की पुष्टि की गई।

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सतह का क्या

ग्रह के बारे में थोड़ी और बात की जाए तो इसकी त्रिज्या धरती की ढाई-तीन गुनी और वजन इसके साढ़े आठ से दस गुने तक होने का अनुमान लगाया गया है। इसका तारा हमारे सूरज की तुलना में छोटा और नया है। इसकी त्रिज्या सूरज की 45 फीसदी और आयु लगभग पौने तीन अरब साल है। इस तारे की सतह का तापमान भी सूरज के आधे से थोड़ा ही ज़्यादा है। यह हिसाब-किताब इस ग्रह को अपने तारे के ‘गोल्डिलॉक जोन’ में अवस्थित करता है। यानी पानी इसकी सतह पर बहने की स्थिति में हो सकता है। उसका हमेशा भाप या बर्फ बनकर रहना ज़रूरी नहीं है। ग्रह-सतह के तापमान का अनुमान 23 डिग्री सेल्सियस से 27 डिग्री सेल्सियस के बीच का लगाया गया है। जीवन की दृष्टि से यह खुद में एक शानदार स्थिति है, लेकिन धरती जैसी ठोस सतह वहां है या नहीं, इसमें थोड़ी दुविधा है।

अभी जब पानी की भाप, कार्बन डायॉक्साइड, मीथेन और थोड़ा ही पहले हाइड्रोजन सल्फाइड जैसे किसी न किसी रूप में जीवन से जुड़े पदार्थों के दस्तखत वहां के पर्यावरण के स्पेक्ट्रम में देखे जा चुके हैं, तब क्या बैक्टीरिया या किसी और रूप में वहां जीवन की उपस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है? यह बहुत बड़ी समस्या है। जीवन के एक ही बुनियादी रूप से हमारा परिचय है और उसके बारे में दो मोटी बातें हम यह जानते हैं कि इसके होने के लिए ग्रह पर पानी होना चाहिए, और हो सके तो ऑक्सीजन भी। लेकिन धरती पर ऐसे सूक्ष्म जीव भी रहते हैं, जिन्हें जिंदा रहने के लिए ऑक्सीजन की जरूरत नहीं होती। बरसाती खुजली के लिए जिम्मेदार सूक्ष्म जीवों का वर्गीकरण हमने ‘अनारोबिक’ (ऑक्सीजन पर निर्भर न रहने वाले) के रूप में ही कर रखा है। ऐसे में किसी ऐसे स्पेक्ट्रम सिग्नेचर की तलाश जरूरी है, जिसका जीवन से जुड़ाव पक्का हो और जिसकी सूक्ष्म मात्रा भी आसानी से पहचानी जा सके।

ऊपर जिन मिथाइल क्लोराइड और मिथाइल ब्रोमाइड का जिक्र किया गया है, उनके साथ दोनों शर्तें लागू होती हैं। एक तो इनकी पैदाइश किसी जैविक सिस्टम से ही होती है, दूसरे इनका स्पेक्ट्रम बहुत सूक्ष्म उपस्थिति में भी पहचाना जा सकता है। 
सूरज की कक्षा में घूम रही बहुत महंगी और काफी लंबा समय लगाकर बनी जेम्स वेब वेधशाला की नजर अभी के2-18बी पर है। ऐसा कुछ उसको वहां दिख गया तो यह भारी चर्चा का विषय बनेगा।

फिल्मों से आगे

हॉलीवुड की फिल्मों ‘इंटरस्टेलर’ और उससे पहले ‘सोलारिस’ या ‘अवतार’ में हमने पर्दे पर बहुत दूर के सौरमंडलों की यात्रा की है। इन फिल्मों की प्रेरणा धरती पर मंडरा रहे पर्यावरणीय और नाभिकीय खतरों से ही आई है। हकीकत में इनको कुछ ज्यादा ही दूर की कौड़ी कहना ठीक रहेगा। जिस तरह के संकट हम अपने ग्रह के सामने खड़े कर रहे हैं, वे अगले दो-तीन सौ वर्षों में ही धरती पर मानव जीवन को असंभव बना देने के लिए काफी हैं और जिन तकनीकों की कल्पना इन फिल्मों में की गई है, उनके विकास के लिए तो शायद हजार साल भी कम पड़ जाएं।

विविध से और

बहरहाल, पृथ्वी को छोड़कर कहीं और, यानी सूरज के अलावा किसी और तारे के इर्द-गिर्द मंडराने वाले किसी सुरक्षित ग्रह पर जा बसने की बात अभी विज्ञान के अजेंडे पर नहीं है। जीवन के लिए उपयुक्त स्थितियों वाला ग्रह ढूंढ निकालना भी फिलहाल हमारी खोज का केंद्र बिंदु नहीं है। इस काम के लिए जैसी तकनीक की जरूरत है, वह अभी से एक सदी नहीं तो कम से कम पचास साल दूर जरूर है। अभी तो तारा भौतिकी (एस्ट्रोफिजिक्स) से जुड़े वैज्ञानिकों की सबसे बड़ी मुश्किल पिछले दो सौ वर्षों से स्वीकृत कांट और लाप्लास के ग्रह निर्माण सिद्धांत से परे जाने की है।

1992 तक सौरमंडल के बाहर एक भी ग्रह ब्रह्मांड में नहीं खोजा जा सका था। यह कुफ्र 1992 में ही टूटा। धरती से 50 प्रकाशवर्ष दूर एक विशाल गर्म ग्रह 51 पेगासी बी की खोज के साथ, जिसे बाद में ‘डिमिडियम’ नाम दिया गया। इसके बाद खोज की रफ्तार देखिए कि अभी पिछले हफ्ते, 20 मार्च 2025 तक 5862 परा-ग्रहों की पुष्टि पुख्ता तौर पर की जा चुकी थी। ये 4373 ग्रहमंडलों में आते हैं, जिनमें से 985 ग्रहमंडलों में एक से ज्यादा ग्रह दर्ज किए गए हैं।

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तारा-भौतिकीविदों की परेशानी समझने से पहले एक नजर उनकी मानसिकता पर डालनी जरूरी है। ये बंदे एक से एक शानदार तारों, अरबों सूर्यों के वजन वाले ब्लैकहोलों, आपस में टकराकर सोने के बादल रच देने वाले न्यूट्रॉन सितारों, नीहारिकाओं और ब्रह्मांड की शुरुआत करने वाली ‘बिग बैंग’ जैसी सिर चकरा देने वाली घटनाओं के अध्येता हैं। तारों पर मच्छरों की तरह मंडराने वाले धुंधले-मंदे ग्रह उनके लिए कभी सोच-विचार का विषय नहीं रहे।

लेकिन एक वैज्ञानिक के लिए अपवाद हमेशा नियम से ज्यादा दिलचस्पी की चीज होते हैं क्योंकि नए नियमों की खोज का सुराग वहीं से मिलता है। खोज का पलड़ा यहीं तारों से हटकर बुरी तरह ग्रहों की तरफ झुक जाता है। ब्लैक होल और न्यूट्रॉन सितारों जैसी चमत्कारिक चीजें अपने सारे चमत्कार के बावजूद प्राय: किसी गुलाम की तरह भौतिकी के नियमों का पालन करती हुई दिखती हैं। 

6000 के आसपास जो ग्रह अब तक खोजे जा सके हैं, तकरीबन वे सब के सब ग्रह विज्ञान के सर्व-स्वीकृत कांट-लाप्लास मॉडल की बखिया पहले दिन से ही उधेड़ रहे हैं।

नया ग्रह-सिद्धांत चाहिए

ग्रह निर्माण का यह सर्वमान्य सिद्धांत बताता है कि तारा बनने के क्रम में बचा पदार्थ उसके घूर्णन तल में ही ग्रहों के रूप में संघनित होता है। तारे के सबसे नजदीक छोटे, ठोस चट्टानी ग्रह, बीच में विशाल गैसीय ग्रह, सबसे ज्यादा दूरी पर जमे हुए, बर्फीले लेकिन गैस जायंट्स से छोटे ग्रह, फिर धूल और बहुत छोटे पिंडों का बादलनुमा एक विरल ढांचा। लेकिन जो ग्रह अबतक खोजे गए हैं, उनमें साठ फीसदी ‘सुपर-अर्थ’ की श्रेणी में आते हैं। सुपर-अर्थ यानी अपने तारे के बहुत करीब घूमने वाले, बेहद गर्म, धरती के कई-कई गुना वजनी ठोस चट्टानी ग्रह, जिनपर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। के2-18बी भी एक सुपर-अर्थ ही है, हालांकि यह उतना ज्यादा गर्म नहीं है।

संख्या के लिहाज से इसके बाद हॉट जुपिटर्स का नंबर आता है। यानी बृहस्पति के आकार के या उससे भी कई गुना वजनी, अपने तारे से तकरीबन सटे-सटे घूमते हुए बेहद गरम गैसीय ग्रह। तीसरी श्रेणी सुपर-नेपच्यून्स की और चौथी मिनी नेपच्यून्स की है। सुपर-नेपच्यून्स हमारे अपने नेपच्यून की तुलना में बहुत बड़े और अपने तारे से बहुत ज्यादा दूर पाए जाने वाले, जमी सतहों वाले विशाल ग्रह हुआ करते हैं। हमारे सौरमंडल की तरह इन ग्रहों में से ज्यादातर की कक्षाएं अपने तारे के घूर्णन तल में भी नहीं हैं। ऐसी चीजें हमारे सौरपरिवार में नहीं आतीं, सो नए ग्रह मिलने के साथ एक ऐसा सिद्धांत बनाने की ज़रूरत पेश हो रही है, जिससे ग्रह-निर्माण का सिर-पैर समझा जा सके। मजबूत टेलीस्कोप जैसे-जैसे ग्रहों का कैटेलॉग बड़ा कर रहे हैं, वैसे-वैसे इस ग्रह-सिद्धांत का खाका भी उभरता जा रहा है।

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चंद्र भूषण
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