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विनोद कुमार शुक्ल पर बहस: ‘इतनी उदासीनता कहाँ से आती है?’

इन दिनों एक ‘ग़ैर-ज़रूरी’ बहस चल रही है। बहस मुफ़्त के सोशल मीडिया पर ज़्यादा है और हमारे समय के लब्ध-प्रतिष्ठित कवि, कथाकार और उपन्यासकार 88-वर्षीय विनोद कुमार शुक्ल पर केंद्रित है। बहस शुक्ल जी को हाल ही में ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने की घोषणा के साथ प्रारंभ हुई है।

बहस के मूल में एक ऐसा सवाल है जो इस तरह के अवसरों पर कई बार पहले भी उठाया जा चुका है और आगे भी उठाया जाता रहेगा! मानवाधिकारों की लड़ाई में सक्रिय एक कार्यकर्ता ने सोशल मीडिया पर जारी अपनी एक पोस्ट में सवाल उठाया था कि :’शुक्ल जी के ठिकाने से महज़ सौ किलोमीटर दूर बस्तर में जल-जंगल-ज़मीन की रक्षा में लगे आदिवासियों/माओवादियों के ख़िलाफ़ सरकार का क्रूर दमन चक्र चल रहा है। कई लोग मारे गए हैं, कई गिरफ़्तार किए गए हैं। जो लड़ रहे हैं वे तेलुगू/अंग्रेज़ी में शानदार साहित्य भी रच रहे हैं। लेकिन शुक्ल जी के पूरे साहित्य से यह ‘झंझावात’ ग़ायब है।’ जो सवाल पूछा गया उसकी ‘पंचलाइन’ यह थी कि :’इतनी उदासीनता कहाँ से आती है?’

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उठाए गए सवाल के कई जवाब हो सकते हैं! एक तो यही कि लेखक, पत्रकार और साहित्यकार, आदि को भी एक सामान्य नागरिक के रूप में स्वीकार करने से इंकार करते हुए उनसे वे सब अपेक्षाएँ की जाने लगतीं हैं जो किसी भौगोलिक बस्तर की तरह ही उसके उस यथार्थ से सर्वथा दूर होती हैं जिसमें वह साँस लेना चाहता है!  

दूसरा जवाब यह हो सकता है कि जिस ‘झंझावात’ को शुक्ल जी सौ किलोमीटर की दूरी से नहीं देख पा रहे हैं (या होंगे) क्या उसे वे पत्रकार,लेखक और साहित्यकार भी ठीक से देख कर अभिव्यक्ति प्रदान कर पा रहे हैं जो ठीक बस्तर की नाभि में विश्राम कर रहे हैं? अपवादों में नहीं जाएँ तो अगर सैंकड़ों की संख्या में संघर्षरत आदिवासी/माओवादी मारे गए या गिरफ़्तार हुए तो उसके पीछे के कई कारणों में क्या एक इन्हीं लोगों में किसी की मुखबिरी या सत्ता में भागीदारी नहीं रहा होगा? 

कवि/कथाकार/उपन्यासकार और पत्रकार-संपादक को भी अगर एक सामान्य नागरिक मान लिया जाए तो परेशानी कुछ कम हो जाएगी! ऐसा सामान्य नागरिक जो आए-दिन निरपराध लोगों के ख़िलाफ़ सड़कों पर अत्याचार होते हुए तो देखता है पर कनखियों से यह सुनिश्चित करते ही कि उसका कोई अपना तो शिकार नहीं बन रहा नज़रें बचाकर निकल लेता है! 
कुछ समुदायों में तो बच्चों को घुट्टी के साथ सीख दी जाती है कि सड़क पर कहीं झगड़ा चल रहा हो तो रुकने का नहीं!

बरसों पहले (शायद) पत्रकार बरखा दत्त ने किसी अंग्रेज़ी अख़बार में चंडीगढ़ के आसपास की किसी घटना का ज़िक्र करते हुए क्षोभ जताया था कि एक नागरिक जब आत्मदाह कर रहा था सैंकड़ों की भीड़ चुपचाप खड़ी देख रही थी, कोई उसे बचाने नहीं दौड़ा। हक़ीक़त यह है कि वही भीड़ अब ऐसी घटनाओं के वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर शेयर करने लगी है। हो सकता है कि ऐसी ही किसी भीड़ में कोई साहित्यकार, कवि या लेखक भी मौजूद होता हो जिसे आत्मदाह में भी किसी नई रचना के लिए कथानक नज़र आ जाता हो। या कोई ऑफिस-गोअर होता हो जो यह कहते हुए भाग्य को कोसता हो कि कहाँ फँस गया, आधा घंटा लेट हो गया!

एक रिपोर्टर-संपादक के तौर पर अपने पचपन-साठ साल के लंबे पत्रकारिता जीवन के कई क़िस्से मुझे याद हैं पर उनमें भी डेढ़-दो साल पहले महाकाल और कालिदास की नगरी उज्जैन में जो हुआ वह लगातार विचलित करता रहता है। सतना के किसी गाँव की बारह साल की बलात्कार-पीड़ित बालिका लहू-लुहान हालत में रात के वक्त घंटों तक उज्जैन की सड़कों पर दौड़ती मदद के लिये गुहार लगती रही पर कोई दरवाज़ा नहीं खुला। जो खुले थे वे मदद की पुकार सुनते ही बंद हो गए। माना जा सकता है कि कोई एक तो कवि, कथाकार, उपन्यासकार क़िस्म का व्यक्तित्व सड़क के आसपास के घरों में बसता होगा!

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नागरिक जब तमाशबीन हो जाता है तो साहित्यकार भी या तो सामान्य नागरिक बन जाता है या उदासीनता उसे ओढ़ लेती है। उस स्थिति में उसे अत्यंत नज़दीक का भी वह सब नहीं नज़र आता जिसे वह ईमानदारी से देखने की नियत रखता है या जिसे अपनी रचनाओं में जीना चाहता है।

हम चाहें तो ज्ञानपीठ की घोषणा के बाद शुक्ल जी ने अपनी मार्मिक प्रतिक्रिया में जो कहा उस पर यक़ीन करते हुए बहस को बंद कर सकते  हैं। शुक्ल जी ने कहा : 'मुझे लिखना बहुत था। बहुत कम लिख पाया। मैंने देखा बहुत, सुना भी मैंने बहुत, महसूस भी किया लेकिन लिखने में थोड़ा ही लिखा। कितना कुछ लिखना बाक़ी है जब सोचता हूँ तो लगता है बहुत बाक़ी है! इस बचे हुए को मैं लिख पाता! अपने बचे होने तक अपने बचे लेखक को लिख नहीं पाऊँगा तो क्या करूँ? बड़ी दुविधा में रहता हूँ!'

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श्रवण गर्ग
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