कोलकाता के ब्रिगेड मैदान की सभा में उपस्थित लाखों के जनसमूह को देखकर अगर प्रधानमंत्री ने यह कहा कि उन्होंने अपने जीवन में कई रैलियों को सम्बोधित किया है पर इतनी बड़ी रैली पहली बार देख रहे हैं तो यह भी कहा जा सकता है कि हर तरह की कोशिशों के बावजूद भी अगर बीजेपी बंगाल में सरकार नहीं बना पाती है तो उसे उसकी सबसे बड़ी हार भी मान लिया जाना चाहिए।
वैसे, हाल के एक चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण में कहा गया है कि पश्चिम बंगाल और केरल में वर्तमान सरकारें फिर से सत्ता में आ सकती हैं। हालांकि यह क़तई ज़रूरी नहीं कि चुनाव-पूर्व किए गए या करवाए जाने वाले सभी सर्वेक्षण खरे ही उतरें। ग़लत भी साबित हो सकते हैं। ऐसा कई बार हो भी चुका है।
विपक्षी सरकारें निशाने पर
डॉ. राम मनोहर लोहिया कहते थे कि ज़िंदा क़ौमें पाँच साल इंतज़ार नहीं करतीं। लोहिया का इशारा हुकूमतें बदलने को लेकर जनता के धैर्य की समय-सीमा रेखांकित करने की तरफ़ था। मोदी के साम्राज्य में लोहिया की परिभाषा बदल दी गई है। बीजेपी, विपक्षी सरकारें गिराने के लिए पाँच साल प्रतीक्षा नहीं कर सकती और इस काम के लिए उसे जनता की भी ज़रूरत नहीं है।
चुने हुए विधायकों की वफ़ादारियों में सेंध लगाकर ही इस ‘पोरीबोर्तन’ को अंजाम दिया जा सकता है। तमाम प्रयासों के बावजूद महाराष्ट्र और राजस्थान में प्रयोग विफल हो गए पर मध्य प्रदेश में सफलता मिल ही गई। बंगाल में सरकार को पलटने से पहले तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को तिनका-तिनका किया जा रहा है और कोलकाता की सड़कों पर इस उपलब्धि की गर्व भाव से प्रदर्शनी भी लगाई जा रही है।
पश्चिम बंगाल में घमासान
पश्चिम बंगाल की राजनीति में इस समय जो कुछ भी उथल-पुथल चल रही है उसे लेकर दो सवाल प्रमुखता से चर्चा में हैं : पहला यह कि राहुल गांधी की कांग्रेस, वामपंथी दलों और मुसलिम संगठनों- सभी का घोषित उद्देश्य जब बीजेपी के ‘प्रभाव’ को रोकना है तो फिर वे चुनावी संघर्ष को त्रिकोणीय बनाकर उसके (बीजेपी के) ‘पराभव’ को रोकने में मददगार की भूमिका क्यों निभा रहे हैं?
इतना ही नहीं, नंदीग्राम में अपने ऊपर साज़िशन हमले का आरोप लगाकर पैरों से चोटिल ममता जब कोलकाता के अस्पताल में इलाज के लिए पहुँचीं तो कांग्रेस के अग्रणी और मुँहफट नेता अधीर रंजन चौधरी ने बीजेपी का काम हल्का करते हुए तुरंत प्रतिक्रिया पेश कर दी कि मुख्यमंत्री को इस तरह की नौटंकी करने की आदत है।
कांग्रेस इस समय शरद पवार की एनसीपी और उद्धव की शिव सेना के साथ महाराष्ट्र की सरकार में भागीदारी कर रही है। बीजेपी वहाँ ‘कॉमन एनिमी’ है। पर बंगाल में पवार और उद्धव तो ममता के साथ खड़े हैं लेकिन कांग्रेस उनके विरोध में है।
ममता ने कांग्रेस से अलग होकर ही टीएमसी बनाई थी और नंदीग्राम आंदोलन के ज़रिए ही तीन दशकों से चले आ रहे वामपंथियों के साम्राज्य को ध्वस्त किया था। इसलिए दोनों ही दलों की नाराज़गी ममता से है। दोनों ही मिलकर टीएमसी के ख़िलाफ मैदान में हैं।
कांग्रेस ने ऐसी ही हाराकिरी बिहार में भी की थी। आरजेडी के साथ गठबंधन कर नीतीश के ख़िलाफ़ चुनाव तो लड़ा पर इतनी ज़्यादा सीटों पर ज़बरदस्ती अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए कि न तो वे स्वयं जीत पाए और न ही उन्होंने तेजस्वी की सरकार बनने दी।
बंगाल में भी तेजस्वी और अखिलेश यादव दोनों ही ममता के साथ खड़े हैं। कांग्रेस इस समय हर जगह खलनायक की भूमिका में है। कहा जा रहा है कि 294 में से कम से कम सौ सीटें ऐसी हैं जहां त्रिकोणीय संघर्ष निर्णायक साबित हो सकता है।
दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या टीएमसी छोड़कर बीजेपी में शामिल होने वाले तमाम सांसद और विधायक अंतिम रूप से यह मान चुके हैं कि ममता बनर्जी हारने ही वाली हैं और बीजेपी की सरकार बनने जा रही है? या फिर उनके दल बदलने का कारण यह है कि टीएमसी में ममता की कथित तानाशाही को लेकर असंतोष इतना बढ़ गया था कि तमाम भगोड़े तुलनात्मक दृष्टि से थोड़ी कम तानाशाह और अपेक्षाकृत ज़्यादा प्रजातांत्रिक व्यवस्था में प्रवेश करने के किसी अवसर की साँस रोककर प्रतीक्षा कर रहे थे?
याद किया जा सकता है कि दिनेश त्रिवेदी जैसे साफ़ छवि के व्यक्ति को भी ममता के कोप के कारण ही यूपीए सरकार में अपना मंत्री पद छोड़ना पड़ा था।
कांग्रेस को छोड़ दें तो देश के बाक़ी विपक्ष ने इस समय अपना भविष्य ममता के साथ नत्थी कर रखा है। पंजाब के किसान भी बीजेपी के ख़िलाफ़ प्रचार करने कोलकाता, नंदीग्राम और बंगाल में धान की खेती वाले इलाक़ों में पहुँच चुके हैं।
बीजेपी ने बंगाल को राष्ट्रीय चुनावों जैसा महत्वपूर्ण बना दिया है। माना जा सकता है कि बंगाल के नतीजे न सिर्फ़ ममता का भविष्य तय करेंगे बल्कि यह भी तय करेंगे कि देश को किसी भी तरह के विपक्ष की ज़रूरत बची है या नहीं?
बहस प्रारम्भ की जा सकती है कि अब किसी स्कूटी के बजाय एक व्हील चेयर पर सवार होकर प्रचार करने के लिए मैदान में उतरने वाली ‘घायल ममता’ तमाम अवरोधों के बावजूद अगर चुनाव जीत जाती हैं तो राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों को लेकर प्रधानमंत्री के अगले कदम क्या हो सकते हैं? ममता की हार से उत्पन्न होने वाले परिणामों पर तो किसी भी तरह की बहस की ज़रूरत ही नहीं बची है।
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