वर्षारंभ पर एक नई अवधारणा का उपहार भारतीयों को दिया गया: ‘ऑटोमैटिक पैट्रीअट’। बताया गया कि हिंदू ‘ऑटोमैटिक पैट्रीअट’ होते हैं। यानी हिंदू होने का अर्थ ही ‘पैट्रीअट’ होना है। उसके लिए उसे कुछ अलग से करने की ज़रूरत नहीं होती। वह जीवन भर कुछ भी करता रहे, या न करता रहे, वह ख़ुद ही अपनी तिजोरी भरता रहे या दूसरों की जान लेता रहे, ‘पैट्रीअट’ वह बना रहेगा। दोनों भूमिकाओं में कोई विरोध नहीं है। यह क्या हिंदू की परिभाषा है या उसकी विशेषता? तो फिर ‘पैट्रीअट’ के आगे हिंदू लगाना शब्द का अपव्यय है नहीं?