जैनेन्द्र का आज यानी 2 जनवरी को जन्मदिन है। हिंदी पढ़नेवाले सारे लोगों को याद भी न होगा। मुझे भी कहाँ था? किसी ने ध्यान दिलाया। मेरी किताबों की आलमारी में सबसे ऊपर के खाने में वे प्रतिष्ठित हैं। इसका अर्थ सिर्फ यह है कि उनसे रोज़ाना मुलाकात नहीं की जाती। लेकिन इससे जैनेन्द्र को क्या? वे जो एक भौतिकता से मुक्त एक दूसरी अविनश्वर भौतिकता में स्थिर हैं, उन्हें प्रयोजन से प्रयोजन क्या? वह कृतित्व आश्वस्त है कि उसमें पर्याप्त आकर्षण है। कृतार्थ उसे नहीं होना है। उसके बाद की पीढ़ियाँ भी खोज ही लेंगी उसे, यह यकीन है।
गोर्की की श्रेणी के लेखक
पाठकों के लिए जैनेन्द्र ‘परख’, ‘सुनीता’ और ‘त्यागपत्र’ जैसी कृतियों के कारण लोकप्रिय और चुनौती भी हैं। इस पर ताज्जुब हो सकता है कि प्रेमचंद के सबसे प्रिय जन और लेखक जैनेन्द्र थे। प्रेमचंद उन्हें गोर्की की श्रेणी का लेखक मानते थे।
प्रेमचंद की परंपरा के वाहकों ने लेकिन जैनेन्द्र को उससे बाहर रखा। जैनेन्द्र का प्रेमचंद अनुराग छिपा हुआ नहीं है, लेकिन कथाकार के तौर पर उनकी राह अलग थी। विचारों के नाटक में उनकी दिलचस्पी अधिक थी। प्रेमचंद की थी मनुष्यों की भीड़भाड़ में, उसके शोर-शराबे में।
आज लेकिन आज के समय के दबाव में अपनी दुविधाओं से जूझते हुए जैनेन्द्र के निकट जाता हूँ। उनके कथा साहित्य तक नहीं, विचारों की उनकी दुनिया में। वैसे कहानियों के बारे में, जैसी वे लिखना चाहते थे, जो उन्होंने लिखा, उसे पहले पढ़ लें:
“कसरती कल्पना का ‘रोमांस’ नहीं चाहता। घास के किल्ले जो भींगी धरती में अपने घूँघट में से उंझक कर एक प्रातः काल अनायास उत्सुक, खिलती धूप देखने लगते हैं और फिर क्षण होते न होते एकाएक ही युद्ध के लिए जाते हुए योद्धाओं के असंख्य बूटों के तले कुचलकर वहीं रह जाते हैं—कुछ वैसा ही कोलाहल शून्य, मूक, ‘रोमांस’ भी चाहता है। जगमग नहीं चाहता।”
प्रेमचंद के मित्र
जैनेन्द्र प्रेमचंद के मित्र थे। अज्ञेय के साथी थे। गाँधी का अनुयायी कहना ठीक न हो, लेकिन गाँधी पथ ही उन्हें रुचा। जिस घर में हम रहते हैं, भाषा का हो या राष्ट्र का, उस बेदरोदीवार के घर की नींव में उनका पसीना और खून भी है। जिस समय की संतान जैनेन्द्र थे वह एक राष्ट्र के सृजन का समय था। क्या वे राष्ट्रवादी थे?
“किसी भी प्रकार के बंदपन का समर्थन मेरे पास नहीं है। वाद स्वयं में एक बंद भाव है और जिस शब्द के साथ लगता है, उसके अर्थ को भी कुछ बंद बना देता है। राष्ट्रवाद, जातिवाद, मतवाद में वाद के कारण राष्ट्र, जाति, मत आदि शब्द मानो कुछ कटकर अलग और बंद बन जाते हैं...। ... वादपूर्वक राष्ट्र मानो कुछ बंदपन (एक्सक्लूसिविज़्म) को अपना लेता है। हिन्दू राष्ट्रवाद तो जैसे उसको और सँकरी घेराबंदी दे देता है। ... हिन्दू राष्ट्रवाद... के लिए मेरे मन में तनिक भी आकर्षण नहीं है।”
जैनेन्द्र के अनुसार ब्रिटिश शासन ने भारत में राष्ट्रवाद के लिए कारण उपस्थित किया और उसे मजबूत किया। राष्ट्रवाद की रुचि शासन में है। स्वराज्य के लिए संघर्ष और राष्ट्र निर्माण दोनों जुड़े होकर भी भिन्न हैं। दूसरी प्रक्रिया में वह भाव नष्ट हो गया जो स्वराज्य प्राप्ति में साधक था, यानी प्रेम का भाव। राष्ट्रवाद में लगाव की जगह पार्थक्य अधिक है। दुराव ज़्यादा है।
आगे वे कहते हैं,
“हिन्दू के नाम पर भी सांस्कृतिक स्फूर्ति काम कर सकती और फल ला सकती थी; किन्तु वह कहीं है नहीं। जो है, उसमे और भी संकीर्ण राज्याकांक्षाएँ हैं।”
अपनी बात को एक दूसरे इंटरव्यू में वे और स्पष्ट करते हैं,
“हिन्दू जिसको आप कहिए, उसमें यदि इतनी सांप्रदायिकता आ गई है, और उस कारण इतनी असमर्थता आ गई है कि इसलामी और ख्रिस्ती धाराओं से मेल न हो सके, अनबन ही बनी रहे, तो मैं मानता हूँ कि भारतीयता में अब भी वह क्षमता है कि वह इन धाराओं को ऐसे समा ले ...”
जैनेन्द्र को इसलाम का बाहरीपन कहीं से उसे भारत के लिए दोयम मानने के लिए पर्याप्त तर्क नहीं लगा। बल्कि भारत के लिए वह लाभकर ही है आध्यात्मिक दृष्टि से:
“इसलाम को माननेवाला भारतीय अरब से अपनी स्फूर्ति लाता है, तो बुरा क्या करता है? स्फूर्ति तो उपयोगी चीज है। ... मुसलमान का देश भारत था, तीर्थ अरब था। उस तीर्थता से भारत को नुक़सान क्या था? धर्म भाव आदमी कहीं से भी प्राप्त करे, लाभ तो उसका आस-पास के समुदाय को मिलता है।"
जैनेंद्र आगे पूछते हैं,
"आप क्या इस कारण कि ब्रह्मपुत्र का स्रोत तिब्बत में (और आज चीन में) है, तो आप उसके जल को अपवित्र और विदेशी मानेंगे? ... धर्म का और संस्कृति का स्रोत अमुक प्रांत-प्रदेश या देश में स्थावर होकर गड़ा हुआ हो, यह मोह मूढ़ता का ही है। ... भूमि का महत्त्व स्वयं व्यक्ति से होता है। उसको व्यक्ति और इंसान के ऊपर चढ़ा देना भारी गलती है।”
इसलाम पर यह आरोप उनके समय भी लगाया जाता था कि उसमें आवेश अधिक है। जैनेन्द्र इसका उत्तर बड़े दिलचस्प तरीके से देते हैं। मान लीजिए कि इसलाम में धार्मिक मतावेश ज़्यादा है “तो क्या यह नहीं माना जा सकता कि धर्म पर कुर्बानी करने की शक्ति उनमें ज़्यादा रही? दूसरे कि कुर्बानी में भी अपनी कुर्बानी की तैयारी ज़रूरी होती है।” वे इतिहास के उन क्रूर कृत्यों को इस नाम पर जायज़ नहीं ठहरा रहे जो इसलाम या हिन्दू या दूसरे धर्मों के नाम पर हुए। लेकिन उनका सवाल है कि आप इतिहास से हासिल क्या करना चाहते हैं?
“उनकी याद पोसना और उनके घाव पोसना चाहें, तो पोसे जाइए। लेकिन तब इतिहास की सीवन उधेड़ने में आप पीछे जा रहे होंगे, भविष्य की तरफ बढ़नेवाले नहीं कहे जाएँगे।”
आखिर वैष्णवों और जैनियों में भी तो हिंसक विभेद था, तो क्या आज दोनों इस हिंसक अतीत के बावजूद आपस में संवाद नहीं करते?
“यदि राग-द्वेष से ऐतिहासिक तथ्य को अपना कर वहाँ से अपनी मानसिकता की रचना करेंगे, तो हम अपने प्रति अन्याय ही कर रहे होंगे।”
प्रेमचंद की तरह ही वे हिंदुओं की आत्मकेंद्रीयता के आलोचक हैं,
“... मैं कहूँगा कि इसलाम के सहारे मुसलमान आज भी अधिक हार्दिक और भावुक हैं, उधर विचार और हिसाब के अतिरेक से हिन्दू अधिक स्वलिप्त और स्वनिष्ठ हैं।”
तो भारत कैसे बनेगा? लोकप्रिय विचार सम्मिश्रण का है। जैनेन्द्र इसके विरोधी हैं,
“सिंधु और ब्रह्मपुत्र का क्या हम सम्मिश्रण चाहते हैं? .... मैं मिलाने की कोशिश में कुछ बहुत अर्थ नहीं देखता हूँ। मिलाने में अक्सर रूपाकार को एक बनाने की कोशिश की जाती है। वह चेष्टा बहुधा एकता को सम्पन्न नहीं, खंडित करती है।”
हिन्दू-मुसलमान-ईसाई सम्मिश्रण
भेद की तीव्रता से ही अभेद का आविष्कार होगा। मिश्रण पृथक्करण के सहारे सहज होता है। गाँधी ने ऊपर से हिन्दू-मुसलमान ईसाई आदि के सम्मिश्रण का कोई अभियान नहीं चलाया। यह सबको पता है कि उनकी सर्वधर्म प्रार्थना भी योजना के तहत नहीं बनी थी।
“उनके आश्रम में जैसे जिस-जिस प्रकार के लोग आते चले गए, प्रार्थना में उसी विधि के भजन स्तवन शामिल होते चले गए।”
सीमा को स्वीकार करने से ही सीमा के आर पार हाथ बढ़ाने की इच्छा पैदा होती है। सीमा मिटा देने और एक बृहत्तर में विलीन कर देने का आह्वान धोखा भी हो सकता है। जैनेन्द्र इस धोखे से सावधान करते हैं। साथ ही राज्य निर्भरता के नतीजे को लेकर भी सचेत करते हैं:
“ ... यदि राज्यतंत्र का अवलंबन व्यापक और विस्तृत होगा तो तंत्र को हठात अधिनायकवाद की ओर बढ़ते जाना ही होगा। वह अहिंसा गलत है, जिसका मतलब सिर्फ सह्यवाद रह जाता है।”
तो आज जैनेन्द्र से विदा लें उनके इन शब्दों को इस सदी के तीसरे दशक के लिए पाथेय के रूप में बाँधकर:
“मैं स्वतंत्र कब अनुभव करता हूँ? क्या तब, जब अपने में हूँ और केवल अकेला हूँ? उलटे ठीक यही है, जो घुटन की स्थिति होती है। इस अकेलेपन को लेकर आदमी पागल हो जाता है। ... स्वतंत्रता में जोर इसलिए जब सारा ही ‘स्व’ पर होता है, तो एक बहुत ही नकारात्मक स्थिति बन जाती है।”
... स्वतंत्रता सदा देने में है।... जितना अधिक हमारा शेष के प्रति स्नेह और सामंजस्य का संबंध है, उतने ही हम स्वतंत्र बनते हैं।”
तो जैनेन्द्र की कसौटी पर हम खुद को कस कर देखें कि हम कितने स्वतंत्र हैं।
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