2020 का सूर्य अस्ताचलगामी है। इस साल को कैसे याद करेंगे? वर्ष भारत के लिए आरंभ हुआ था उम्मीद की काँपती हुई लौ की गरमाहट के साथ और विदा ले रहा है फिर से आशा के दीप की ऊष्मा देते हुए। 2019 की समाप्ति में जनतान्त्रिक संभावना की एक रेख आसमान में फूटी थी, जल्दी ही वह मिटा दी गई और पूरे साल उसके खो जाने की चुभन बनी रही लेकिन जाते जाते फिर वह हिम्मत बँधा रहा है: इंसाफ़ और खुदमुख्तारी का ख़याल क़तई गुम नहीं हो गया है। इंसान को उसके पेट के बल झुकाने के लिए मजबूर कितना ही क्यों न किया जाए, उसे याद रहता है कि उसे रीढ़ सीधी रखनी है, कि वह लम्बवत रेंगनेवाला नहीं, गुरुत्वाकर्षण के प्रति सतत सजग और उसके साथ तनाव और संघर्ष में ऊर्ध्वमुख खड़ा रहनेवाला प्राणी है। वह ऐसा प्राणी है जिसे मालूम है ऊर्ध्वमुखता की क़ीमत चुकानी होती है। जो मनुष्य समाज इसे हमेशा के लिए मिल गई अवस्था मान बैठता है, वह इसे खो देता है और उसका अहसास उसे काफ़ी बाद में होता है। वापस खड़े होने की जद्दोजहद ख़ून माँगती है। नागार्जुन याद आते हैं: ‘युग के संकट भारी टैक्स वसूल करेंगे।’ अपने ज़माने और वक़्त को बिना वह कर चुकाए कैसे आप आगे बढ़ सकते हैं?
2020: व्यक्ति ने ख़ुद को साबित किया, संस्थाओं ने घुटने टेक दिए!
- वक़्त-बेवक़्त
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- 28 Dec, 2020

साल का अंत एक बड़ी कूच के साथ हुआ है। दिल्ली चलो, उस नारे के साथ। यह नारा एक याद है। किसी और ने दिया था। सरकार अपनी तरह के लोगों की न थी। लेकिन क्या उस ‘दिल्ली चलो’ का मतलब सिर्फ़ यह था कि दूसरे दीखनेवालों को खदेड़ दिया जाए? या यह कि जिस हिन्दुस्तानी को माना गया था कि उसे सभ्यता की शिक्षा दी जानी है और वह अपना भला बुरा नहीं समझ सकता...