आदमी को तोड़ती नहीं हैं लोकतांत्रिक पद्धतियाँ केवल पेट के बल
...आदमी को तोड़ती नहीं, नपुंसक बना देती हैं!
- वक़्त-बेवक़्त
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- 7 Dec, 2020

संसद में मत-विभाजन में विपक्ष जीत नहीं पाया है। फिर इनका विरोध सड़क पर करना संसद की अवमानना, जनमत की अवहेलना नहीं तो और क्या है? यही बात अभी खेती-किसानी से संबंधित क़ानूनों के बारे में कही जा रही है। जब संसद के दोनों सदनों ने ये क़ानून पारित कर दिए तो सड़क पर उनका विरोध संसद का अपमान नहीं तो और क्या है?
उसे झुका देती हैं धीरे-धीरे अपाहिज
धीरे-धीरे नपुंसक बना देने के लिए उसे शिष्ट राजभक्त देशभक्त देशप्रेमी नागरिक
बना लेती हैं
ये पंक्तियाँ आज नहीं लिखी गई हैं। ‘नपुंसक’ शब्द के प्रयोग से ही मालूम हो जाता है कि यह कविता पिछले वक़्त की है। अगर उस शब्द के लिए कवि को क्षमा कर दें और उसके आशय को स्वीकार कर लें तो फिर ऐसा भ्रम हो सकता है कि यह आज के भारत या आज की दुनिया पर कवि की क्षुब्ध टिप्पणी है। राजकमल चौधरी की कालजयी रचना ‘मुक्ति प्रसंग’ के आख़िरी अंश की ये आरंभिक पंक्तियाँ हैं।
अपाहिज और नपुंसक बना देने का अर्थ है आदमी की उस क्षमता का अपहरण जो उसे व्यक्ति बनाती है। व्यक्ति यानी वह जो ख़ुद को परिभाषित कर सकता है। जो स्वायत्त है और जिसकी सत्ता की वैधता का स्रोत कोई उच्चतर सत्ता नहीं है। धर्म को ऐसी सत्ता माना जाता रहा है और वह अभी भी प्रभुत्वशाली बना हुआ है लेकिन अंतिम सत्ता के पद के लिए धर्म की प्रतियोगिता अब राज्य से है। वह राज्य जो जनतांत्रिक है। घोषित तौर पर अधिनायकवादी नहीं है।