किसान दिल्ली की सरहद पर जमे हुए हैं। वे दिल्ली में संसद के क़रीब जंतर मंतर में इकट्ठा होकर सरकार को बताना चाहते हैं कि क्यों वे उन क़ानूनों के ख़िलाफ़ हैं जो सरकार खेती-किसानी के मामले में ले आई है। आख़िर यह संसद उनकी है और यह राजधानी दिल्ली भी उनके मुल्क की ही है। पहले तो सरकार ने किसानों के क़ाफ़िले के रास्ते में जो भी रुकावट मुमकिन थी, वह डाली। अड़चन पर अड़चन पैदा की लेकिन किसानों के जत्थे सबको पार करते हुए दिल्ली की सीमा तक आ ही पहुँचे। बैरिकेड की तो सारे आन्दोलनकारियों को आदत है और बर्फानी पानी का हमला भी वे झेलते रहे हैं लेकिन पहली बार सबने देखा कि किसानों को न बढ़ने देने को आमादा सरकारों ने सड़कें खोद डालीं। लेकिन किसान किसान ही है। खुदे गड्ढों को उन्होंने अपने हाथों से ही मिट्टी से पाट दिया और आगे बढ़ गए।