किसान दिल्ली की सरहद पर जमे हुए हैं। वे दिल्ली में संसद के क़रीब जंतर मंतर में इकट्ठा होकर सरकार को बताना चाहते हैं कि क्यों वे उन क़ानूनों के ख़िलाफ़ हैं जो सरकार खेती-किसानी के मामले में ले आई है। आख़िर यह संसद उनकी है और यह राजधानी दिल्ली भी उनके मुल्क की ही है। पहले तो सरकार ने किसानों के क़ाफ़िले के रास्ते में जो भी रुकावट मुमकिन थी, वह डाली। अड़चन पर अड़चन पैदा की लेकिन किसानों के जत्थे सबको पार करते हुए दिल्ली की सीमा तक आ ही पहुँचे। बैरिकेड की तो सारे आन्दोलनकारियों को आदत है और बर्फानी पानी का हमला भी वे झेलते रहे हैं लेकिन पहली बार सबने देखा कि किसानों को न बढ़ने देने को आमादा सरकारों ने सड़कें खोद डालीं। लेकिन किसान किसान ही है। खुदे गड्ढों को उन्होंने अपने हाथों से ही मिट्टी से पाट दिया और आगे बढ़ गए।
सिख-मुसलमान साथ नहीं आ सकते तो राष्ट्र कैसा?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 30 Nov, 2020

राष्ट्र का अर्थ है नितांत भिन्न प्रकृति के लोगों की एक दूसरे के प्रति ज़िम्मेवारी की भावना का दृढ़ होना और भिन्न पहचानों के साथ और उनके बावजूद सहभागिता का निर्माण। लेकिन अगर एक बिहारी बंगाली की तकलीफ़ नहीं समझ सकता या एक हिंदू एक मुसलमान का दर्द नहीं साझा कर सकता और एक सिख के बगल में एक मुसलमान नहीं खड़ा हो सकता तो हम किस एक राष्ट्र की बात कर रहे हैं?