यात्रा मंज़िल पर पहुँचने के लिए की जाती है। लेकिन यात्रा सिर्फ़ मंज़िल के बारे में नहीं होती। वह उस रास्ते के बारे में होती है जो उस मंज़िल तक ले जाता है। और जैसे यात्राएँ एक नहीं होतीं, रास्ते भी अलग-अलग तरह के हो सकते हैं। लक्ष्य क्या है, इससे रास्ते की प्रकृति तय होती है। कुछ रास्ते सीधे होते हैं, निर्बाध। लेकिन कुछ दुष्कर होते हैं। दुर्गम। कंटकाकीर्ण। इसलिए हर यात्रा दुस्साहस नहीं होती, एडवेंचर का दर्जा हर सफ़र को नसीब नहीं। उसी तरह हर चलनेवाले को यात्री कहलाने का गौरव नहीं प्राप्त होता। हर यात्रा की कहानी नहीं बन पाती।
प्रोफ़ेसर यशपाल प्रायः कहा करते थे कि यात्रा करते हुए लक्ष्य पर ध्यान रहना चाहिए, लेकिन मार्ग की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। मंज़िल तक जाने के सीधे रास्ते से उतर कर रास्ते के जंगल, बीहड़, नदी, झील के पास भी कुछ वक़्त गुजार लेने का वक़्त अगर आप नहीं निकाल पाते तो आप सच्चे यात्री नहीं हैं।
कहानी उन यात्राओं की बनती है जो बाधाओं से संघर्ष करते हुए की जाती हैं। बाधाएँ कुछ तो स्वाभाविक हैं लेकिन बहुत सी खड़ी की जाती हैं। बाधाएँ क्या स्वतः खड़ी हो जाती हैं या उन्हें खड़ा किया जाता है? ऐसे लोगों के द्वारा जो उस यात्रा, उसके लक्ष्य और कई बार यात्री के ही ख़िलाफ़ होते हैं। तो यात्रा के बीच उनसे भी लड़ना पड़ता है। मार्ग दुर्गम बनाया जाता है। यह सब कुछ यात्रा के पहले ही अनुमान कर लिया जाए, संभव नहीं।
जैसे यात्रा बाधित करने के प्रयास होते हैं, बाधा में ही सुख लेनेवाले तत्त्व होते हैं वैसे ही ऐसे लोग भी होते हैं जो दूसरे की यात्रा को सुगम, सुखकर बनाने में आनंद पाते हैं। इसमें उनका स्वार्थ हो आवश्यक नहीं। यात्रा का उद्देश्य पावन है, इसलिए उस पावन का कुछ अंश मिल जाए, शायद यही वे चाहते हों।
यात्री तो वे ही हैं जो यात्रा के आनंद के लिए यात्रा करते हैं। जैसे असली कला वह है जिसका और कोई उद्देश्य नहीं होता। वह गहरे अर्थ में स्वांतः सुखाय ही है। लेकिन उस सुख का मूल्य उस स्व से भी निर्धारित होता है। वह स्व है कौन?
उससे कितने स्व जुड़े हुए हैं, कितने उसकी अभिव्यक्ति में कृतार्थ अनुभव करते हैं, इससे मालूम होता है कि वह स्व कितना समृद्ध है। लेकिन इसे दूसरी तरफ़ से भी देखा जा सकता है। जो उस स्व से संबंध बना पाते हैं या नहीं इससे उनके बारे में भी पता चलता है।
आप यात्री को उत्सुकता के साथ देखते हैं, उसके साथ कुछ क़दम चलकर उसकी यात्रा को साझा करना चाहते हैं या उसे देखकर आपके मन में आशंका पैदा होती है? क्या हर यात्री जो आपके इलाक़े से गुज़रे आपको शत्रु नज़र आता है या वह जो आपका भेद लेने आया है? उत्सुकता और आशंका में थोड़ा ही फर्क है, लेकिन जिनका प्राथमिक भाव उत्सुकता या स्वागत का न होकर आशंका या निषेध का होता है, वे किसी असुरक्षा के शिकार होते हैं।
क्या यात्री राह में आपके दरवाज़े रुक गया हो तो आप उसकी पूरी जाँच-पड़ताल करके उसे भीतर आने देते हैं? फिलस्तीनी अमरीकी कवि नियोमी शिहाब नाय की एक कविता याद आती है,
अरब कहा करते थे
जब कोई अजनबी तुम्हारे दरवाज़े आए,
उसकी तीन दिन खातिरदारी करो
यह पूछने के पहले कि
वह कौन है
वह कहाँ से आया है
वह कहाँ जा रहा है
इस तरह उसमें ताक़त आ जाएगी
इतनी कि वह जवाब दे सके
या, तुम इतने अच्छे दोस्त बन चुके होगे
कि तुम्हें इसकी परवाह ही न होगी।
हमें मालूम है कि यह खुला स्वागत भाव कवि-कल्पना है। लेकिन क्या इसी कारण इसे यथार्थ नहीं होना चाहिए? उसी तरह क्या सहयात्री वही होगा जो आख़िरी मुकाम तक चले?
सफ़र, मुसाफ़िर और हमसफ़र, इनमें हरेक लफ्ज़ में दूसरे की गूँज है। हमसफ़र की चाह होती ही है। लेकिन कवि गुरु कहते हैं कि कोई तुम्हारी पुकार सुनकर न आए तो अकेले ही चलो। पुकारना है ही और वह तुम्हारा फ़र्ज़ है। यात्रा में सहभाव आवश्यक है। इसलिए पुकारो ज़रूर। अकेले चलने के अहंकार से मुक्त रहना आवश्यक है। अकेले चल पड़ने में एक पराक्रम या छद्म वीरता का भाव है लेकिन यात्रा की सार्थकता उसमें सहभागिता से तय होती है। कितने लोग उस लक्ष्य को अपना पाते हैं और कितने उस पथ पर चलने को प्रस्तुत हैं?
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यह हो सकता है कि तुम्हारी पुकार न सुनी जाए। पुकारनेवाले की कमी भी हो सकती है। उसे दूर करना, ज़्यादा दूर तक पुकार को पहुँचा पाना, यह सब कर्तव्य है। यात्रा से जुड़ा हुआ। लेकिन उस प्रयत्न के बावजूद पुकार अनसुनी रह जा सकती है। वह खो जा सकती है। तब सहयात्री की प्रतीक्षा में यात्रा को स्थगित नहीं किया जा सकता। हो सकता है कि वह यात्रा अपने अस्तित्व के लिए नैतिक अनिवार्यता हो। फिर अकेले पड़ जाने का ख़तरा उठाते हुए यात्रा शुरू कर देनी होती है। जो ठिठक गए, जो संकोच कर गए, उन्हें शर्मिंदा करने के ख्याल से नहीं, इसलिए कि मुझे उस क्षण यह पता है कि अगर मैंने इसे और स्थगित किया तो अपने होने का औचित्य खो बैठूँगा।
सिंघू और टिकरी की सीमा को पार कर दिल्ली आने से रोक दिए गए पंजाब और हरियाणा के यात्रियों के बीच से लौटते हुए सोचता रहा। इनसे पूछा जा रहा है कि इस राह पर तुम्हीं अकेले क्यों? बिहार, बंगाल के किसान क्यों नहीं? चूँकि वे नहीं या सब नहीं तो तुम्हारी यात्रा का क्या मोल?
लेकिन इस यात्रा में किसानों के साथ क़दम मिलाते छात्र हैं, अध्यापक और व्यापारी हैं, वे जो पंजाबी या हरियाणवी नहीं जानते वे भी हैं। इन्हें देखकर पूछा जा रहा है कि ये जो तुम्हारी तरह के नहीं हैं, जो तुम्हारे पेशे के नहीं, वे क्यों इस सफ़र में तुम्हारा साथ देने आए हैं?
ये किसान निःसंकोच पंजाबी में उन्हें समझा रहे हैं कि उनके दिल्ली कूच का मतलब क्या है, क्यों वे घर-द्वार छोड़कर इसकी परवाह किए बिना कि उनकी जीत होगी या नहीं, निकल पड़े हैं?
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यह सफ़र या यह कूच इसलिए लाज़िमी था कि इन्साफ़ का ख़याल ज़िंदा रखा जा सके। जिसे मैं नाइंसाफ़ी मानता हूँ अगर उसके आगे मैं खामोश रह जाता हूँ यह सोचकर कि मैं कमज़ोर हूँ तो अपनी आँख में ही इज़्ज़त गँवा देता हूँ। क्या सबमें एक साथ ही अन्याय का बोध पैदा हो तभी उसे अन्याय कहा जाएगा? और क्या तभी उसके ख़िलाफ़ संघर्ष शुरू होना चाहिए? यह रणनीति का प्रश्न हो सकता है कि संघर्ष कब और कैसे शुरू हो और चले, लेकिन अन्याय को पहचानते हुए भी उसे नाम न देना नैतिक कायरता है। और जिस वक़्त, जिस क्षण उसे पहचाना गया, उसी क्षण उसे चिह्नित न करना चतुराई भले हो, किसी को अपनी निगाह में ऊँचा नहीं करता।
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