यह हिंदू धर्म के बारे में नहीं है। न मंदिर के बारे में। यह उस नफ़रत और हिंसा के बारे में है जो हिन्दुओं के मन में घर करती जा रही है। जिसके चलते अब हिंदू होने का अर्थ गीता का मर्म समझना, शिव, राम या कृष्ण या शक्ति का उपासक होना नहीं है। बल्कि अब हिंदू की परिभाषा है एक ऐसा प्राणी जो मुसलमान, ईसाई और पाकिस्तान से घृणा करता है। उसे वेद नहीं चाहिए क्योंकि वैदिक संस्कृत को पढ़ने और समझने में दांतों पसीना आ जाएगा, उसे उपनिषद् नहीं चाहिए और न गीता क्योंकि गीता का अर्थ क्या है, यह समझने के लिए उसे तिलक, गाँधी और विनोबा से विचार विमर्श भी करना पड़ेगा। उसे अपने पुरखों के द्वारा निर्मित मंदिरों में भी सर झुकाए घुसना और निकलना है, मंदिरों में समय व्यतीत नहीं करना। इस पर अचंभित न होना और न विचार करना कि क्यों लिंगराज-मंदिर में या और मंदिरों में हाथी के ऊपर सवार सिंह की प्रतिमा उत्कीर्ण है। नव ग्रह क्यों प्रत्येक देवी देवता के मंदिर के प्रवेश द्वार पर सिरनामे की तरह जड़ित हैं! 
सूर्य देवता की प्रतिमा को कैसे पहचानें? इस गुत्थी को कैसे सुलझाएँ कि शिव और पार्वती के चित्रों के ऊपर एक दंडधारी बौद्ध भिक्षु की ध्यानरत प्रतिमा पाई जाती है?