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हेमंत सोरेन
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बिहार के छपरा स्थित जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय के 16 अध्यापकों को विश्वविद्यालय के कुलाध्यक्ष ने नाचने के चलते निलंबित कर दिया है। राज्य के सारे विश्वविद्यालयों के कुलाध्यक्ष राज्यपाल हुआ करते हैं। राज भवन ने बतलाया कि शिक्षकों का आचरण उनके पद की मर्यादा के विरुद्ध था। इसलिए उन्हें दंडित किया गया है।
पिछले साल बाबू राजेंद्र प्रसाद की जयंती के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम के समाप्त हो जाने के बाद बेतकल्लुफाना माहौल में इन अध्यापकों ने एक लोकप्रिय गीत पर नृत्य किया। यह कुलाध्यक्ष को नागवार गुजरा। एक जाँच समिति बिठाई गई। उसने जब इस आरोप को गंभीर नहीं पाया तो समिति के सदस्यों को भी निलंबित कर दिया गया। यानी राजभवन ने पहले ही तय कर लिया था कि आरोप ठीक हैं और इसके लिए अध्यापकों को सजा भी मिलनी चाहिए।
चूँकि जाँच समिति ने राजभवन की मर्ज़ी के मुताबिक़ रिपोर्ट नहीं दी तो उसे ही सजा दे दी गई। इसे ही सुल्तानी इंसाफ़ कहते हैं। सुल्तान की मर्ज़ी किसी भी प्रक्रिया और मानदंड की मोहताज नहीं होती।
परिसर में अकादमिक पुनर्जीवन के अलावा उनमें युवोचित उत्साह बहाल करना भी उनकी ज़िम्मेदारी है। उनके आने से जैसे सूखी बेल में पानी पड़ने से वह कुछ हरी हो जाती हैं, वैसे ही परिसरों में कुछ जान आ गई है। लेकिन बिहार के शिक्षा के पहरेदारों को यह क़बूल नहीं है।
क्या संगीत और नृत्य अश्लील कृत्य है? क्या वह अनैतिक है? या क्या अध्यापक का नृत्य करना मर्यादा का उल्लंघन है? क्या अध्यापकों को नियुक्त करते समय उन्हें कोई आचार संहिता दी जाती है जिसमें गाना, नाचना मना है? अगर ऐसा नहीं है तो फिर इन अध्यापकों को नृत्य करने के लिए कैसे दंडित किया जा सकता है?
इससे अलग प्रश्न नैतिकता और मर्यादा की संकुचित समझ का है। आम तौर पर उस इलाक़े में जिसे हिंदी पट्टी कहा जाता है, शरीर को जड़ बना दिया जाता है। देह के भीतर छिपी सारी थिरकन धीरे-धीरे ठंडी पड़ जाती है। नाचना स्वाभाविक नहीं माना जाता। जबकि पूर्वी, उत्तर पूर्वी प्रदेशों में और दूसरी संस्कृतियों में नृत्य करना सम्मान के ख़िलाफ़ नहीं माना जाता।
मुझे अरसा पहले गुवाहाटी में हुआ एक कार्यक्रम याद है जिसमें असम के एक मंत्री ने बाक़ायदा ढोल बजाते हुए नृत्य किया था। हम बिहारी यह देखकर हैरान थे। बिहार का कोई मंत्री किसी सार्वजनिक सभा में गाए या नाचे, यह अकल्पनीय था।
किसी भी सार्वजनिक व्यक्ति को क्यों चेहरा लंबा करके, गंभीरता का लबादा ओढ़कर रहना चाहिए? क्यों अध्यापक या उसकी तरह के व्यक्ति को ख़ुद को सिकोड़ कर रहना चाहिए? अध्यापक युवकों के निरंतर संपर्क में रहते हैं।
युवकोचित उत्साह उनके भीतर हमेशा बना रहना चाहिए। बिहार के बुज़ुर्गवार राज्यपाल महोदय ने जिन्हें निलंबित कर दिया है, वे अध्यापक तो उम्र के लिहाज़ से भी अभी जवान हैं।
शिक्षा का अर्थ सिर्फ़ किताबों में लिखे हुए को व्याख्यानों के ज़रिए छात्रों तक पहुँचा देना ही नहीं है। वह छात्र के व्यक्तित्व को खुलने और खिलने के मौक़े पैदा करने का नाम है। मानवीय इंद्रियों में छिपी संभावनाओं को उद्घाटित करना भी शिक्षा का दायित्व है। कॉलेज या विश्वविद्यालय में आने के पहले समाज के चलते हमारे भीतर जो संकोच होता है, उसे ये परिसर तोड़ते हैं। उसका एक साधन संगीत और नृत्य है।
कुछ लोग यह कह सकते हैं कि लोकप्रिय गाने, फ़िल्मी गाने पर नाचना बुरा है। सिर्फ़ शास्त्रीय संगीत और नृत्य ही गरिमापूर्ण है। लोकप्रिय गीत, अगर किसी को अपमानित नहीं करते, अगर किसी सामाजिक दुराग्रह या पूर्वाग्रह को और मज़बूत नहीं करते तो उनसे क्या मात्र लोकप्रियता के कारण परहेज़ करना चाहिए?
इन सबसे अलग प्रश्न यह है कि राजभवन को क्यों एक विश्वविद्यालय के रोज़मर्रा के व्यापार में रुचि लेनी चाहिए? क्यों उसने विश्वविद्यालय की अपनी जाँच को नहीं माना? क्या राजभवन कुलपति को नज़रअंदाज़ करके निर्णय ले सकता है? ले सकता है, वह हमने देखा। सवाल है, क्या उसे ऐसा करना चाहिए?
बिहार में उच्च शिक्षा मरणासन्न है। क्यों वह इस अवस्था में पहुँच गई? अध्यापकों की नियुक्ति सालों साल न करना एक कारण है। विश्वविद्यालय को ज़रूरी संसाधन, पुस्तकालय, प्रयोगशाला आदि के लिए पैसा न देकर उन्हें मार डाला गया है। परिसरों को निष्प्राण करने का तीसरा तरीक़ा है नाकारा कुलपतियों की नियुक्ति। बिहार में जो बीमारी न थी, यानी, इन नियुक्तियों में भ्रष्टाचार, वह पिछले दो दशक से घर कर गई है। इसके बारे में दबी ज़ुबान बात करते अध्यापक सुने जा सकते हैं। पहले अगर सिर्फ़ जातिवाद का भ्रष्टाचार था तो अब उसमें अर्थ भी जुड़ गया है।
इस बंजर कर दी गई ज़मीन को सिर्फ़ अपने दिल और दिमाग़ के ज़ोर से तोड़ने जो नौजवान पहुँचे हैं, उन्हें इस प्रकार की दंडात्मक कार्रवाई के ज़रिए क़ाबू करने की कोशिश की जा रही है।
किसी समय बिहार में शिक्षक आंदोलन बहुत जीवंत हुआ करता था। अब तक इन अध्यापकों के पक्ष में उसकी किसी पहल की ख़बर नहीं मिली है। इस समय जो नए अध्यापक बिहार पहुँचे हैं, उन्हें अपने इन सहकर्मियों के पक्ष में आवाज़ ज़रूर उठानी चाहिए।
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