भँवरलालजी जैन रास्ता भटक गए थे। पूछने पर वे अपना नाम नहीं बतला पा रहे थे। इस वजह से दिनेश कुशवाह ने उन्हें मारा। फिर उनकी मौत हो गई। बुलडोज़र दिनेश के घर गया। लेकिन परिवार में बँटवारा न होने की वजह से, क्योंकि मकान उसके पिता के नाम से था, बुलडोज़र को वापस लौटना पड़ा।
यह वक्तव्य मध्य प्रदेश के गृह मंत्री के नाम से छपा है। मोहम्मद, उर्फ़ भँवरलालजी जैन की मौत के बाद उठे हाहाकार के बाद और एक व्यक्ति की मृत्यु (हत्या), या अधिक सच यह कहना होगा कि हत्या या मृत्यु के पहले भँवरलाल की पिटाई के वीडियो के वायरल हो जाने के बाद के इस सरकारी बयान को ध्यान से पढ़िए।
इसके साथ ही इलाक़े के पुलिस अधीक्षक का वक्तव्य भी पठनीय है। अभियुक्त दिनेश कुशवाह के पकड़े जाने के बाद उन्होंने बतलाया कि वीडियो में साफ़ देखा जा सकता है कि मृतक, जिसे पीटा जा रहा है, अपना नाम नहीं बतला पता रहा था।
ये दोनों वक्तव्य चिंता के साथ सुने जाने चाहिए। यह स्वाभाविक और उचित माना जा रहा है कि कोई भी किसी से नाम पूछ सकता है, परिचय पत्र माँग सकता है और जिससे पूछा जा रहा है, उसका कर्तव्य है कि वह पूछनेवाले को भ्रमित न करे, उसे अच्छी तरह संतुष्ट करे। वरना प्रश्नकर्ता का क्रोधित होना स्वाभाविक है। यह अधिकार अब भारत में हर किसी को, ख़ासकर हिंदुओं को मिला हुआ है। चाहे तो कोई कह सकता है कि आख़िर किसी को संदिग्ध अवस्था में देख कर कोई अपनी तसल्ली तो करना ही चाहेगा। इसमें ग़लत क्या है? और संदेह बढ़ने पर उसे ग़ुस्सा भी आएगा ही। इसमें अगर उसने कुछ चाँटे लगा दिए तो ऐसी क्या खास बात है? अगर इसके बाद कोई मर जाए तो क्या उसकी ग़लती है?
गृह मंत्री ने कहा कि वीडियो में मारनेवाले की पहचान करके उसके घर बुलडोज़र भेजा गया था। वह मकान गिरा न सका, इसका अफ़सोस बयान में है लेकिन यह दिखलाने या साबित करने की कोशिश है कि प्रशासन ने इंसाफ़ करने की कोशिश की। बुलडोज़र भेजा तो गया था! इस बयान में उस सवाल का उत्तर है जो इस मौत की ख़बर के बाद मध्य प्रदेश सरकार से लोगों ने करना शुरू किया कि क्या दिनेश के घर बुलडोज़र गया था। सवाल भी ख़तरनाक है क्योंकि इससे मालूम पड़ता है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकारों का न्याय का तरीक़ा अब सबने क़बूल कर लिया है और वे सिर्फ़ उसे समानता से लागू करने की माँग कर रहे हैं। मंत्री ने कहा कि एक तकनीकी और क़ानूनी वजह से दिनेश जिस घर में रहता है, वह बच गया क्योंकि वह उसके पिता के नाम था।
बुलडोज़र को जो समानता के तर्क से जायज़ ठहरा रहे हैं, वे मंत्री से पूछ सकते हैं कि अभी मध्य प्रदेश के डिंडोरी में पिछले महीने आसिफ़ खान के पिता का घर बुलडोज़र से ढाहने के समय क्यों यह तथ्य किनारे कर दिया गया था कि वह घर आसिफ़ का नहीं, उसके पिता का था। आसिफ़ ने तो दिनेश की तरह कोई अपराध भी नहीं किया था। उसने क़ानूनी तरीक़े से साक्षी साहू से विवाह किया था। लेकिन इस विवाह के बाद भाजपा के नेताओं की माँग पर आसिफ़ के पिता का घर बुलडोज़र से गिरा दिया गया। सरकार का तर्क था कि गाँव में शांति बनाए रखने के लिए यह किया गया। गाँववाले ऐसा चाहते थे। ज़िलाधिकारी ने शान से इसका ऐलान भी किया। अपने आपराधिक कृत्य का।
लेकिन इस घटना पर देश में वैसी प्रतिक्रिया नहीं हुई जैसी एक जैन के मार डाले जाने पर। क्योंकि पहली घटना में मुसलमान के साथ ऐसा होना कोई अस्वाभाविक नहीं।
जबकि इस दूसरी घटना में मारा जाना था एक मुसलमान को और मारा गया एक जैन। हम कैसी हालत में पहुँच गए हैं कि अब 'ग़लत हत्याएँ' होने लगी हैं। अगर मारा गया इंसान मोहम्मद होता तो फिर वह उतना अस्वाभाविक न होता।
तर्क यह भी दिया जा सकता है कि जो मारा गया वह मुसलमान मोहम्मद ही था, जैन नहीं। क्योंकि दिनेश कभी भँवरलालजी को नहीं मार सकता, उसे मोहम्मद नाम से ही क्रोध आता है।
क्या आप इसके लिए भँवरलाल को दोष नहीं देंगे कि उन्होंने दिनेश को भ्रमित कर दिया? आख़िर दिनेश की ग़लती ही क्या है? ग़लती भँवर की है कि अपना नाम जो वह बतला रहे थे, वह दिनेश को मोहम्मद सुनाई दे रहा था। मोहम्मद इस देश में भाजपा या आर एस एस की विचारधारा से जुड़े लोगों के लिए ग़लत नाम है। इस नाम के लोग ग़लत लोग हैं या उन्हें अपनी मर्ज़ी से कहीं भी आने जाने का अधिकार नहीं। यह एक जैन की ग़ैर इरादतन हत्या है। इरादा मुसलमान को मारने का था।
मारा कौन गया? मारा किसे जाना था? क्या अदालत इसका ख्याल न करेगी कि इरादा क्या था? हर जगह क़ानून में सिर्फ़ क्रिया नहीं देखी जाती, क्रिया के पीछे की मंशा भी देखी जाती है। क़त्ल कई तरीक़े से होते हैं। हर क़त्ल की सजा एक ही नहीं होती। हर क़त्ल पर फाँसी नहीं होती। उम्र कैद भी नहीं। कुछ क़त्ल गैर इरादतन होते हैं। तो क्या यह न देखा जाएगा कि दिनेश कुशवाह की मंशा क्या थी?
क्या अदालत इस बात को खाते में न लेगी कि दिनेश कुशवाह की मंशा तो ठीक थी लेकिन अपनी ग़लती की वजह से भँवरलाल उसके शिकार हो गए?
अगर वे मुसलमान होते तो अदालत की प्रतिक्रिया कुछ वैसी ही हो सकती थी जैसी मोहसिन शेख के हत्यारों को जमानत देते समय बंबई उच्च न्यायालय की थी। मोहसिन शेख को मई, 2014 को पुणे की सड़क पर सबके सामने हिंदू राष्ट्र सेना के लोगों ने मार डाला था। यह नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद किसी मुसलमान की पहली हत्या थी। हत्यारों ने शान से कहा भी था कि उन्होंने पहला विकेट गिराया है। बंबई उच्च न्यायालय ने कहा कि मारे गए व्यक्ति की ग़लती यह थी कि वह ग़लत धर्म का था। यह बात अभियुक्तों के पक्ष में जाती है। उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है और ऐसा लगता है कि (मृतक) के धर्म के कारण वे भड़क गए और उस वजह से उन्होंने हत्या की।
सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही समझा कि यह एक तरह से हत्या को जायज़ ठहराना था। हत्या का कारण मारे गए व्यक्ति का धर्म था। अगर वह सही धर्म का होता तो अभियुक्त नहीं भड़कते और उसकी हत्या न करते। आख़िर उनका दोष कहाँ है? यह तो मोहसिन शेख के धर्म ने उन्हें भी अपराधी बना दिया जिनका कोई अपराधी रिकॉर्ड न था! अदालत ने उनकी जमानत रद्द करते हुए कहा कि अगर बंबई उच्च न्यायालय के तर्क को मान लें तो इसका मतलब यही होगा कि ग़लत धर्म का होना ही ग़लत है। इस तर्क से किसी भी मुसलमान के ख़िलाफ़ हिंसा जायज़ हो जाएगी।
यह तर्क बाद में उन सभी हत्यारों के साथ नरमी से पेश आनेवाले पुलिस अधिकारियों और अदालतों के काम आया। क्या गोकुशी का शक होने पर मैं आपको नहीं मार सकता? क्या गोमांस अपने घर में रखने के शक में मैं आपकी हत्या भी नहीं कर सकता? एक के बाद एक मुसलमानों की हत्या के पीछे उनकी मुसलमानियत ही थी जिससे हिंदुत्ववादी भड़क उठते हैं। बेचारों का क्या दोष?
किसी से रंजिश के कारण उसे मारनेवाला किसी दूसरे को नहीं मारेगा। लेकिन मुसलमान होने के कारण किसी पर हिंसा करनेवाला लगातार मुसलमानों पर हिंसा करता रहेगा। ऐसे व्यक्ति से हर मुसलमान असुरक्षित है। दूसरे, वह भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को चुनौती दे रहा है जो अल्पसंख्यकों को सुरक्षा की गारंटी देता है। ऐसी हत्याएँ यह कहती हैं कि भारत में मुसलमान होना ही मारे जाने के लिए पर्याप्त है।
हो सकता है कि दिनेश कुशवाह को उसकी ‘नेक’ मंशा का लाभ मिल जाए। हो सकता है कि भँवरलालजी के परिजन इसी का अफ़सोस करके रह जाएँ कि काश! वे अपना नाम ठीक बतला देते या आधार कार्ड ही साथ रखते तो यह गलतफहमी न होती और वे मारे न जाते!
एक मित्र ने ठीक ही लिखा कि आइंदा जैन जैसी शारीरिक और मानसिक अवस्थावालों को आधार कार्ड तो साथ रखना ही चाहिए, यह भी तख्ती लटकाकर चलना चाहिए कि मैं मुसलमान नहीं हूँ। मुसलमान को मारो, मुझे नहीं।
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