‘हिंदी’ प्रदेशों के लोग फिर से तमिलनाडु से आहत हो गए हैं। उन्हें इस बार पानी पूरी बेचनेवाला कह दिया कह गया है, ऐसा आरोप है। पानी पूरी खाते हुए तस्वीरें खिंचवाई जा रही हैं। कोई तमिलनाडु के शिक्षा मंत्री को सलाह दे रहा है कि पानी पूरी बेचना कोई शर्म की बात नहीं है, वे उनका अपमान न करें।
पानी पूरी को ‘हिंदी’ इलाक़ों में कुछ जगहों पर गोलगप्पा, कुछ जगह फुचका भी कहते हैं। लेकिन देखा कि अब हर इलाक़े के लोग पानी पूरी शब्द का ही इस्तेमाल कर रहे हैं।
यह जो एक ही वस्तु के लिए इतने नाम हैं, इससे मालूम होता है कि हिंदी एक हिंदी नहीं है। जैसे हम जिसे कद्दू कहते हैं, वह दिल्ली में घीया है और कद्दू कहने से कुम्हड़ा थमा दिया जाता है जिसे हम कुछ जगहों पर कोंहड़ा कहते हैं। अभी भी उसे सीताफल कहने की इच्छा नहीं होती है। लेकिन बिहार के ही सब्ज़ी बेचनेवाले नहीं समझेंगे अगर हम नेनुआ माँगें तोरी की जगह।
तात्पर्य इतना ही है कि हिंदी क्षेत्र पहले भोजपुरी, अवधी, मैथिली क्षेत्र हैं लेकिन अब हम कहते ऐसा नहीं हैं। हालाँकि वे भाषाएँ जीवित हैं और रोज़ाना इस्तेमाल की जाती हैं। उनके अस्तित्व को नज़रअंदाज़ करके संस्कृत को जीवित करने के राजकीय प्रयासों की विडंबना हम देख नहीं पाते।
यह लेकिन विषयांतर है। तमिलनाडु के शिक्षा मंत्री के बयान से आहत हुआ जा सकता है। लेकिन वह दुःख उस बयान की सच्चाई को समझे तभी हम महसूस कर पाएँगे। हाल में एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि हिंदी सीखने के लिए जो प्रलोभन दिया जाता है कि उससे रोज़गार की संभावना बढ़ जाती है, वह झूठा है। इसका प्रमाण यह है कि तमिलनाडु में जो पानी पूरी बेचते हैं, वे हिंदी बोलनेवाले लोग हैं। इस बयान का अर्थ क्या है?
यही न कि उस पानी पूरी बेचनेवाले को हिंदी का कोई लाभ नहीं मिला है। उसे आख़िर एक तमिल प्रदेश में आकर रोज़गार खोजना पड़ा है। हिंदी प्रदेशों के लोग इसी तरह पूरे भारत में रोज़गार की खोज में फैल गए हैं। उन प्रदेशों में जहाँ की मुख्य भाषा हिंदी नहीं है। रोज़गार चल सके, इसलिए वे स्थानीय भाषाएँ ज़रूर सीखते होंगे।
हमने मंत्री का बयान क्यों नहीं सुना? वे कह रहे थे कि रोज़गार और हिंदी का कोई रिश्ता नहीं है। हिंदी इलाक़ों में रोज़गार की क्या स्थिति है? बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आदि में?
रोज़गार और हिंदी
क्या यह सच नहीं कि तमिलनाडु और केरल जैसे प्रदेशों में रोज़गार की हालत इन ‘हिंदी’ प्रदेशों से बेहतर है? और क्या यह सच नहीं कि हिंदी भाषी खुद रोज़गार के लिए अंग्रेज़ी सीख रहे हैं। फिर यह झूठ क्यों कि हिंदी से रोज़गार के अवसर बढ़ जाते हैं?
‘हिंदी’ भाषी क्षेत्रों में सुबह शाम गाँव-गाँव में दौड़ते रहते नौजवानों के जो चित्र हम देखते हैं, वे तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में नहीं दिखते। फिर भी सालों साल न तो पुलिस में भर्ती होती है, न दूसरे सुरक्षा बलों में जिसके लिए दौड़ते दौड़ते ये नौजवान थक और टूट जाते हैं।
तमिलनाडु के मंत्री अपने राज्यपाल को उत्तर दे रहे थे जो राज्य सरकार की द्विभाषा नीति को बदलने की कोशिश कर रहे हैं। राज्यपाल का कहना है कि राज्य सरकार एक और भाषा सीखने का अवसर पैदा नहीं करके राज्य के बच्चों से साथ अन्याय कर रही है। तीसरी भाषा हिंदी ही हो उन्होंने नहीं कहा, लेकिन निहित आशय उनके वक्तव्य का साफ़ था। वह मंत्री ने सुना।उन्होंने द्विभाषा नीति के पक्ष में कहा कि एक भाषा तमिल और एक अंग्रेज़ी सीखने से हमारा काम अच्छा चल रहा है। एक से सांस्कृतिक आत्म विश्वास और दूसरे से रोज़गार की संभावना खुलती है। तीसरी भाषा हिंदी सीखने से क्या लाभ है? रोज़गार तो क़तई नहीं।
हिंदी में रोज़गार कौन पैदा कर रहा है? ज़ाहिर है, वह संघीय सरकार कुछ ऐसी नौकरियाँ पैदा करके कर रही है, जिनमें हिंदी जानना ज़रूरी है। वह ऐसा तमिल और मिजो के लिए क्यों नहीं कर रही? क्या संघीय सरकार पहले हिंदीभाषी क्षेत्रों की सरकार है? फिर वह मात्र हिंदी का प्रचार प्रसार क्यों करती है? सिर्फ़ हिंदी पर उसका पैसा क्यों खर्च होता है?
अगर हिंदी की अनिवार्यता समाप्त हो जाए उन रोज़गारों के लिए तो कौन हिंदी सीखेगा? तो सरकारी बाध्यता के बल पर ही हिंदी का बोलबाला है। अगर वह सहारा हट जाए तो फिर हिंदी का क्या हो?
ये सवाल हैं जो हिंदी से अलग भाषा बोलनेवाले पूछना चाहते हैं। भारत के संसाधन पर पहला अधिकार हिंदी का क्यों? तमिलनाडु के मंत्री ने ज़रा व्यंग्यात्मक तरीक़े से एक कड़वा सच हमें बतलाया। वह यह है कि रोज़गार के लिए बेहतर हो हम तमिल, मलयालम, कन्नड़ सीखें क्योंकि रोज़गार वहाँ हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए भी हम हिंदीवालों को कोई एक दूसरी भारतीय भाषा सीखनी चाहिए। हम क्यों नहीं सीखते? क्या हमीं राष्ट्र हैं जिनमें दूसरे विलीन हो जाएँ?
त्रिभाषा सूत्र
तमिलनाडु के राज्यपाल राज्य के बच्चों को तीसरी भाषा का अवसर नीति के स्तर पर न मिलने से व्यथित हैं। वे ईमानदारी से बतलाएँ कि नीति के अनुसार त्रिभाषा सूत्र का पालन करनेवाले ‘हिंदी’ राज्यों में इतने दशकों में कितने लोग हैं जिन्होंने दूसरी भारतीय भाषा सीखी? धोखा किसने किया? झूठ और पाखंड कौन कर रहा है? साफ़ है कि हिंदी प्रदेशों ने त्रिभाषा सूत्र को छलपूर्वक लागू किया है। इस नीति के कारण ‘हिंदी’ क्षेत्रों में अन्य भाषाओं के अध्यापकों के लिए रोज़गार पैदा होना चाहिए था? क्या वह हुआ है?
फिर हमसे बेहतर और ईमानदार तो तमिलनाडु है जिसने यह ढोंग नहीं किया। दो भाषाएँ ही ईमानदारी से सिखलाने के उपाय किए।
इसके लिए तो किसी तमिलनाडु से शिकायत नहीं की जा सकती। यह स्वीकार करना होगा कि अगर भाषा के प्रति उदासीनता किसी एक क्षेत्र में सबसे अधिक है तो वे ‘हिंदी’ प्रदेश ही हैं। फिर हम हिंदी का नारा क्यों लगाते रहते हैं जब हम न ठीक ठिकाने की हिंदी जानते हैं, न जानना चाहते हैं?
हिंदी राष्ट्रवाद
चूँकि हम भाषा के प्रति असावधान हैं और मात्र हिंदी राष्ट्रवाद के शिकार हैं, हम किसी की बात ध्यान से सुन भी नहीं पाते। तमिलनाडु के मंत्री ने यह नहीं कहा था कि हिंदी बोलनेवाले पानी पूरी बेचते हैं। उन्होंने पानी पूरी बेचने को हीन कार्य भी नहीं बतलाया था। उन्होंने सिर्फ़ इस झूठ पर उँगली रखी थी कि हिंदी में रोज़गार है।
वे यह सिर्फ़ अपने राज्य के लोगों को नहीं कह रहे थे। हमें भी बतला रहे थे कि हिंदी और रोजगार का सीधा रिश्ता नहीं। अगर ‘हिंदी’ इलाक़ों के लोगों को केरल, तमिलनाडु में गोलगप्पे बेचने जाना पड़ता है तो हिंदी को रोज़गार देनेवाली भाषा तो नहीं ही कहा जा सकता। बल्कि बेहतर हो कि हम तमिल आदि सीखें। उससे पानी पूरी का कारोबार भी और चमक जाएगा।
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