भारतीय जनता पार्टी की एक प्रवक्ता ने एक चर्चा में मोहम्मद साहब, इस्लाम और मुसलमानों के बारे में अमर्यादित टिप्पणी की। अमर्यादित, अभद्र, अश्लील, ये शब्द बहुत नाकाफी हैं उसका वर्णन करने के लिए जो उन्होंने किया।
बोलते वक्त उनकी मुद्राओं से, उनके अंदाज से, उनके शब्दों के अलावा, गलाजत बह रही थी।
वह टिप्पणी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के लोगों की इस्लाम और पैगंबर मोहम्मद साहब या मुसलमानों के बारे में उनकी जानकारी की संकीर्णता की एक अभिव्यक्ति है। वह जितना मोहम्मद साहब की शान में गुस्ताखी है, उससे अधिक वह मुसलमानों को अपमानित करने की कोशिश है।
इसलिए अगर मुसलमानों में इसे लेकर नाराजगी है तो आश्चर्य क्यों? वे यही करना चाहती थीं और इसमें वे सफल रही हैं।
कानूनी कार्रवाई का डर
वक्तव्य के वीडियो के सामने आते ही वे हाहाकार करने लगीं कि उसे संपादित किया गया है और यह उनके आशय को विकृत करने के मकसद से किया गया है। इसलिए वे वीडियो प्रसारित करनेवालों के विरुद्ध कार्रवाई की माँग कर रही हैं। लेकिन विकृत कथन का आशय विकृत ही हो सकता है।
उन्हें भय यह है कि भारतीय दंड संहिता के मुताबिक़ धार्मिक वैमनस्य फैलाने के आरोप में उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो सकती है, इसलिए वे अपने बचाव में खुद अपने बयान को संपादित बतला रही हैं।
कायरता क्यों?
यह कायरता क्यों? अगर उन्होंने गाली दी तो उसका परिणाम उन्हें मालूम तो होना ही चाहिए। उन्हें कानून का और जिन्हें वे उत्तेजित करना चाहती थीं, उनकी उत्तेजना का सामना करना ही चाहिए। इसके पहले इसी तरह मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ गाली-गलौज करनेवाले हिंदुत्ववादी संत और नेता बाद में यह कहते पाए गए कि उनकी बात को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया है। अपनी बात पर टिकने की हिम्मत क्यों नहीं?
क्या वे घृणा फैलाने की आज़ादी चाहते हैं? बिना उसकी कीमत चुकाए?
खैर! यह कायरता तो आरएसएस और बीजेपी के लोगों के लिए स्वाभाविक ही है। उसे वे कृष्ण नीति कहते हैं। यानी अपने किए से मुकर जाओ, झुक जाओ, माफी माँग लो क्योंकि असल बात बचे रहना है, सुरक्षित रहना है और इस ताक में रहना है कि कब वे संख्या और दूसरे हिसाब से ताकतवर हो जाएँ तो फिर खुलकर देश और समाज पर अपना कब्जा कायम कर सकें।
यही सावरकर ने जीवन भर किया। उनके अनुयायियों का कहना है कि अगर अंग्रेजों से उन्होंने माफी न माँगी होती तो आखिर गाँधी की हत्या की साजिश कैसे कर पाते? और अगर गोडसे से अपने रिश्ते को मान लिया होता तो आगे और गोडसे तैयार करने का महत्वपूर्ण काम कैसे कर पाते?
यही तर्क अंग्रेज़ी हुकूमत से हुए संघर्ष में आरएसएस की तटस्थता के पक्ष में दिया जाता है। यह कायरता नहीं चतुर रणनीति थी क्योंकि उसे एक हिंदू राष्ट्र के लिए अपने आपको बचाए रखना था। यही तर्क बाद में आपातकाल में माफी माँग कर सरकार को सहयोग देने की आरएसएस की पेशकश के पक्ष में दिया जाता है।
असल बात थी आरएसएस के लिए खुलकर काम करने का अवसर हासिल करने की। इसलिए बाकी भले जेल में हों, माफी माँगकर ही बाहर रहने और अपना काम करने का मौक़ा अगर मिले तो इसमें शर्म की क्या बात है?
सो, अगर अभी बीजेपी प्रवक्ता अपने कहे हुए पर ही नहीं टिक पा रही हैं और उसे स्वीकार करने का दिल, गुर्दा उनके पास नहीं तो ताज्जुब नहीं। वे डर गई हैं और डरना मनुष्य का, खासकर हिंदुत्ववादी राजनीति से जुड़े लोगों का स्वभाव है।
अभी भी बावजूद भारत पर आरएसएस के प्रायः पूरे कब्जे के, कभी-कभी कानून अपना काम करता है। जबतक यह पूरी तरह घोषित न हो जाए कि कानून उन्हें किसी तरह नहीं छू सकता, पुलिस में किसी न किसी सुबोध कुमार सिंह के सक्रिय हो जाने से इनकार नहीं किया जा सकता।
बीजेपी प्रवक्ता को धमकियाँ
कुछ लोग यह कह रहे हैं कि बीजेपी प्रवक्ता को धमकियाँ दी जा रही हैं। यह ठीक नहीं है। निश्चय ही राज्य के अलावा इस अपराध के लिए बीजेपी प्रवक्ता की शास्ति का अधिकार किसी को नहीं। अब तक के राज्य के आचरण से आश्वस्ति नहीं कि यह होगा, फिर भी! इसकी आशंका है कि आगे ध्यान बीजेपी प्रवक्ता की घृणात्मक हरकत से हटाकर कर उनपर आए खतरे पर केन्द्रित कर दिया जाएगा।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तर्क
जिस टीवी चैनल पर उन्होंने यह गाली गलौज की है, उसने भी पूरे मामले को उलटने की ही कोशिश की है। उनके गाली देने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बतलाया जा रहा है। चैनल ने इस बेहूदगी के लिए खेद भी प्रकट नहीं किया है। वह बल्कि यह कह रहा है कि बीजेपी प्रवक्ता को धमकी नहीं दी जानी चाहिए।
जो उन्होंने मोहम्मद साहब के बारे में कहा, वह रोजाना हिंदुत्व से प्रभावित दिमागवाले लोग लिखते या बोलते रहते हैं। वे सब सुरक्षित हैं। और रोज़ वही गलाजत फैला रहे हैं। इसलिए यह कहना कि बीजेपी प्रवक्ता को सुरक्षा चाहिए, मज़ाक ही है।
मुसलमान प्रायः मान चुके हैं कि हिंदुओं में एक बड़ी संख्या का मन मस्तिष्क घृणा और हिंसा से विकृत हो चुका है। वे उनसे शालीनता, सभ्यता और परस्पर सम्मान की उम्मीद नहीं करते। बल्कि अगर ऐसे हिंदू मिलें तो उन्हें आश्चर्य होता है। वे उनके प्रति शुक्रगुजार होते हैं। हिंदुओं में सभ्यता क्या अपवाद है? क्या दूसरे धर्मों के प्रति सम्मान हिंदुओं के लिए अब इतना कठिन भाव है?
हिंदू धर्म को स्वभावतः उदार, खुला और सहिष्णु बतलाने वालों ने मान लिया है कि वे दूसरे धर्मों की आलोचना करेंगे, उनका अपमान करेंगे। अपने धर्म की श्रेष्ठता के मद में चूर इन लोगों ने इसे अपना अधिकार मान लिया है।
उनके भीतर दूसरे धर्मों के प्रति सम्मान तो छोड़ ही दें, उत्सुकता का लेश भी नहीं है। खुद अपने धर्म के बारे में भी वे शायद ही कुछ जानते हैं उसके अलावा जो टीवी चैनलों के सीरियलों में बतलाया जाता है। शायद ही अब कोई रामचरित मानस पढ़ता हो। रामानंद सागर से उनका काम चल जाता है।
अपने धर्म के बारे में सिर्फ इतना जान लेना काफी माना जाता है कि वह महान है। ऐसे छिछले समाज से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह किसी और धर्म के बारे में कुछ भी गहराई से जानने का प्रयास करेगा?
मोहम्मद साहब के बारे में, इस्लाम के बारे में कुछ जानना हो तो ‘हिंदू’ और भारत भारती के रचयिता मैथिलीशरण गुप्त को ही पढ़ लेना भी काफी होगा, अगर और कुछ न पढ़ना हो। वह पढ़कर लेकिन आप गालियाँ नहीं दे सकेंगे।
यह सच है कि आज भी भारत में हिंदुओं का बहुमत बीजेपी के साथ नहीं है। लेकिन उस बहुमत को मुखर होना होगा। उसे साफ़ करना होगा कि इस इस्लाम और मुसलमानद्वेषी राजनीति को वह अपने समाज के लिए घातक मानता है। वरना यह द्वेष और घृणा हिंदू धर्म और समाज को खा जाएगी।
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