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खामोशी की साजिश

“उस कमरे में /जहाँ लोगों ने आम राय से क़ायम कर रखी है/ ख़ामोशी की साज़िश/सच का एक लफ़्ज़/ आवाज़ करता है पिस्तौल की गोली की तरह।” 
जम्मू कश्मीर पर अपनी किताब में पत्रकार अनुराधा भसीन नेपोलिश कवि चेस्लाव मिवोश की इन पंक्तियों को उद्धृत किया है।लेकिन ऐसा वक्त भी आता है जब चारों तरफ़ सच के अल्फ़ाज़ की गोलियों की बौछार हो रही हो तो भी समाज को कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती। उस वक्त उस सच से कोई जगता नहीं, कोई घायल भी नहीं होता।
जम्मू कश्मीर के आख़िरी राज्यपाल सत्यपाल मलिक के दो ऐसे इंटरव्यू आ चुके हैं जिनमें उन्होंने 2019 में पुलवामा में सी आर पी एफ के क़ाफ़िले पर हुए हमले को लेकर कुछ सवाल उठाए हैं और प्रधानमंत्री और सरकार के बारे में कुछ असुविधाजनक बातें कही हैं। लेकिन उनके इन आरोपों को लेकर हिंदी और अन्य भाषाओं के अखबारों, टी वी चैनलों में खामोशी है। कई लोग हैरान हैं कि आखिर इतने बड़े मसलों पर सच जानने में मीडिया की दिलचस्पी क्यों नहीं है? वही ख़ामोशी की साज़िश जिसका ज़िक्र कवि ने किया है।
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लेकिन यह कोई नई बात हो,ऐसा नहीं। मीडिया की रुचि कई महत्वपूर्ण मामलों  में पहले भी सच का पता करने  में नहीं रही है।जैसे, नोटबंदी जैसा बड़ा निर्णय क्यों लिया गया और कैसे, इसके बारे में मीडिया ने  सरकार के सच को आख़िरी सच मानकर प्रचारित भी किया।सरकार उस मामले में ख़ुद अपना स्टैंड बदलती रही, अलग अलग वक्त अलग अलग कारण बतलाती रही लेकिन मीडिया ने अपनी तरफ़ से कोई प्रयास नहीं किया सच पता करने का। बल्कि जिन्होंने किया, उसने उन पर आक्रमण किया।जो हाल मीडिया का, वही सर्वोच्च न्यायालय का है। उसने भी नोटबंदी के मामले में सच जानने  कोशिशों को टाला।  जब सुना तो सरकार की बात  को आख़िरी मानकर फाइल बंद कर दी। खामोशी की साज़िश!
कोरोना महामारी के वक्त लाखों मजबूर सड़कों पर थे। उनके लिए राहत की माँग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अर्ज़ी दाखिल कीगई।सरकार  ने अदालत को कहा कि अभी कोई सड़क पर नहीं है।अदालत  ने कहा कि सरकार ही सच बता सकती है । इसलिएउ सकी बात मानते हुए उसने यहाँ भी फ़ाइल बंद कर दी। जब वह ऐसा कर  रही थी, उस  समय भी भारत  की सड़कों पर मज़दूर पैदल, साइकिल पर अपने ठिकानों के  लिए कड़ी धूप में रास्ता नाप रहे थे। सच आँखों  के सामने था,लेकिन अदालत को उसमें दिलचस्पी नहीं थी। ख़ामोशी की साज़िश!
जब समाज के महाजन सच जानने से ज़्यादा उसे दबाने में रुचि लेने लगे तो उसका विनाश निश्चित है।सच की अपनी ताक़त को लेकर ढेर सारा भ्रम है।यह झूठ है कि सच कभी न कभी तो सामने आ हीजाएगा। सच ख़ुद ब ख़ुद बाहर नहीं आता। सच को बहुत सारे सामानों की ज़रूरत होती है जिनके बिना उसका ज़ाहिर होना मुमकिन नहीं। किसी समाज के बारे में आपको जानना हो तो मालूम करना चाहिए कि सच के बारे में उसकी प्रतिबद्धता कितनी है।वहकितनी ऊर्जा खर्च करना चाहता है सच के लिए।
लेकिन जब हम सच की खोज की बात कर रहे हों तो यह कहना भी ज़रूरी है कि वह सच ऐसा ही हो सकता है जो सबके लिए एक हो।अगर एक ही वस्तु या घटना के संबंध में सच के बारे में समाज में अलग अलग मत हों और किसी प्रकार की तथ्यपरकता संभव न हो फिर सच का अर्थ ही क्या रहा? मसलन क्या हम गुरुत्वाकर्षण के सच को लेकर परस्पर विपरीत मत रख सकते हैं? मनुष्य तक की यात्रा के बारे में हम कितने वैकल्पिक सच की कल्पना कर सकते हैं? इसे लेकर अमेरिका से लेकर भारत तक यह कहा जा रहा है कि हमें मानव विकास के वैकल्पिक सिद्धांतों पर बात करनी चाहिए।आख़िर डार्विन का सत्य ही सत्य क्यों मान लिया जाए? या उसे जानने, न जानने से फ़र्क ही क्या पड़ता है? यही सोचकर भारत की दसवीं कक्षा के पहले इससे जुड़े पाठ को स्कूली किताब से हटा दिया गया।
यह एक विशेष श्रेणी के सत्य की बात है। कोई कह सकता है कि डार्विन के सिद्धांत को न जानने से आपकी ज़िंदगी को फ़र्क नहीं पड़ता। जैसे पृथ्वी सूरज के चारों और चक्कर काटती है या सूरज ही उसके गिर्द घूमता है, इससे यह तय नहीं होता कि आपकी नौकरी रहेगी या नहीं।
अगर इस बात को मान भी लें और एक दूसरे तरह के सच की बात करें जिस पर आज के समाज में हमारे रोज़मर्रा की ज़िंदगी के फ़ैसले टिके हैं, तो मालूम होता है कि हमारा राज्य उसे भी हमसे छिपाना चाहता है।जो सरकार डार्विन के सिद्धांत को स्कूली बच्चों के लिए ग़ैरज़रूरी सच बतलाती है, वही यह बतलाने से इंकार करती है कि कोरोना के समय अलग अलग राज्यों को ऑक्सीजन बाँटने का तर्क क्या था। कोरोना में मरनेवालों की संख्या क्या थी, यह तो शुद्ध आँकड़ों से जाना जा सकता है। लेकिन सरकार ने इस सच के बारे में बात करने वाले को भी राष्ट्रद्रोही ठहराया। ऐसे लोग जो देश को बदनाम करना चाहते थे। जो ख़ामोशी को तोड़ना चाहते थे।
कश्मीर के पुलवामा में 2019 के आम चुनाव के ठीक पहले सी आरपीएफ़ के क़ाफ़िले के एक हिस्से पर आत्मघाती हमला हुआ। 40 जवान मारे गए। इस हमले को भारतीय जनता पार्टी ने चुनावी मुद्दा  बना लिया।इसे पाकिस्तान का हमला बतलाया। ख़ुद को देश के रक्षक के तौर पर पेश किया। इस हमले के बारे में उस समय विपक्ष और बौद्धिकों के एक हिस्से की सच जानने का माँग को देशद्रोह ठहराया गया।
अब हमले के वक्त जम्मू कश्मीर के राज्यपाल  रह चुके मलिक साहब ने कैमरे के सामने पुलवामा के हमले का सच बतलाया है।क्या वह पूरा सच है? यह तभी मालूम हो सकता है जब सच जानने के सारे उपकरण काम में लाए जाएँ। सरकार के सच को आख़िरी मानकर फिर किसी नई उत्तेजना की तलाश में न लग जाया जाए।लेकिन “बड़ा मीडिया” इसमें रुचि लेगा, इसके कोई सबूत नहीं।

वैसे ही जैसे महाराष्ट्र में अमित शाह के मामले की सुनवाई कर रहे सी बी आई की अदालत के जज लोया की रहस्यमय मौत का सच जानने में खुद सर्वोच्च न्यायालय को भी रुचि न थी।सच जानने की कोशिश करने वालों को कहा गया कि वे एक तरह से अदालत की सत्ता पर ही सवाल उठा रहे हैं। किसी भी दूसरे देश में मीडिया के लिए इस सच को जानना सबसे बड़ा काम होता। भारत में उसे दबाना और सच जानने वालों पर हमला करना मीडिया ने अपना कर्तव्य बना लिया।

तानाशाही और जनतंत्र का फ़र्क यही है कि तानाशाही सच का एकमात्र स्रोत सत्ता को बतलाती है। स्टालिन के रूस में सत्ता के सच  पर सवाल करनेवालों का क्या हश्र हुआ, हम जानते हैं। माओ से लेकर शी जीनपिन तक के चीन में सच की खोज का जोखिम क्या है, किसी से छिपा नहीं।हिटलर के मंत्री गॉयबेल्स ने तो सच की परिभाषा ही बदल दी थी।


कोई 65 साल जनतंत्र का अभ्यास करने वाले भारत के लोगों को पिछले 10 साल से दिन रात सिखलाया जा रहा है कि सच एक है और वह सत्ता के मुख से आता है। वह जो बतलाती है, उससे अलग कुछ भी जानने की इच्छा व्यर्थ ही नहीं, ख़तरनाक है।अपराध है। बल्कि देशद्रोह है। सरकार ने  अदालत के सामने अर्ज़ी लगाई है कि नागरिकों को सच जानने की कोशिशों को ग़ैरक़ानूनी ठहराया जाए।सूचना प्रौद्योगिकी के संबंध में सरकार क़ानून बनाना चाहती है कि सच क्या है, झूठ क्या है, यह बतलाने का एकाधिकार उसके पासहोगा। वह जिसे सच कहेगी, वही सच होगा, जिसे झूठ मानेगी, वह ग़ायब कर दिया जाएगा।
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दो प्रेमी तो यह गाना गा सकते हैं कि तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे और वह मूर्खता नहीं,उनके प्रेम की प्रगाढ़ता का प्रमाण है। लेकिन जब सरकार जनता के सामने यह गाना गाने लगे कि मैं जो दिन को रात कहूँ तो तुम भी उसे रात मानो, तभी तुम मेरी जनता रहोगी तो जनता को समझ लेना चाहिए कि यह गाना गाने वाली सरकार उसकी नहीं है। 
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अपूर्वानंद
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