बहुसंख्यकवाद पर अंतरराष्ट्रीय बहस की ज़रूरत है। यह हमारे नौजवान दोस्त अलीशान जाफरी का कहना है। हमारे बीच इस बात को लेकर लंबे अरसे से चर्चा चल रही है। लेकिन शायद अब वक़्त आ गया है कि इसे किसी एक ख़ास मुल्क या मज़हब या समुदाय को लगनेवाली बीमारी न मानकर वैसे ही महामारी माना जाए जैसे हम कोरोना वायरस के संक्रमण को मानते हैं। दोनों में बड़ा फ़र्क़ यह है कि कोरोना वायरस को इंसान ने पैदा नहीं किया जबकि बहुसंख्यकवाद ख़ास इंसानी ईजाद है।
अभी हाल में पोलैंड में एक बहुसंख्यकवादी राजनीतिक दल की जीत हुई है। शासक दल लॉ एंड जस्टिस पार्टी ने आंद्रे दुदा के नेतृत्व में जीत हासिल की। दुदा का चुनाव प्रचार कट्टर राष्ट्रवादी नारों के साथ लड़ा गया। उनके पक्ष में भी वहाँ के मुख्यधारा के मीडिया ने विपक्ष पर यह कहकर हमला किया कि वह बाहरी ताक़तों से मिला हुआ है और जीत जाने पर यहूदियों को मज़बूत करेगा। दुदा ने अपने समाज की रूढ़िवादी धारणाओं को सहलाते हुए समलैंगिकों, आदि के ख़िलाफ़ घृणा प्रचार किया। विपक्ष ने कड़ा मुक़ाबला किया लेकिन तक़रीबन 1% मत अधिक आने के कारण दुदा की जीत हुई।
दुदा उसी क़िस्म के बहुसंख्यकवादी हैं जैसे पूर्वी यूरोप के एक दूसरे मुल्क हंगरी के नेता विक्टर ओर्बान हैं। दुदा की जीत के बाद फ़ेसबुक पर उन्होंने दुदा से हाथ मिलाते हुए अपनी तस्वीर लगाई। व्लादिमीर पुतिन ने लंबे वक़्त के लिए सत्ता में बने रहने का रास्ता निकाल लिया है। जर्मनी और फ़्रांस में बहुसंख्यकवादी रुझान ज़ोर पकड़ रहा है। अलीशान ने यह लेख तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोयान के उस फ़ैसले के बाद लिखा है जिसके तहत इस्तांबुल की विश्वविख्यात हाया सोफ़िया को मसजिद में बदल दिया गया। इस निर्णय की घोषणा के बाद एर्दोयान ने अरबी में भाषण दिया और येरुशलम की अल अकसा मसजिद को आज़ाद करने का इरादा ज़ाहिर किया।
जिस समय यह सब कुछ हो रहा था उसी समय हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के इस्लामाबाद में एक कृष्ण मंदिर निरामन में इस्लामी कट्टरपंथी बाधा खड़ी कर रहे थे। सिर्फ़ बाधा ही नहीं, उन्होंने मंदिर स्थल पर क़ब्ज़ा भी कर लिया। शासक दल का सहयोगी दल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (क़ायदे आज़म) मंदिर निर्माण रोकनेवालों की जमात में शामिल हो गया है। तर्क यह है कि जिस शहर का नाम इस्लाम पर है, वहाँ किसी दूसरे धर्म का उपासना स्थल कैसे बन सकता है! यह कितना पहचाना हुआ तर्क है! श्रीलंका के सिंहली बौद्ध बहुसंख्यकों ने एक तरह से तमिल हिंदुओं को उनकी औक़ात बता दी है। अब मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं।
हम अभी भारत की बात नहीं कर रहे। अलीशान की बात को अगर हम समझें तो उनके अनुसार सिर्फ़ एक देश में बहुसंख्यकवाद से लड़कर उसे परास्त कर भी दिया जाए तो भी वह अस्थायी रूप से ही एक क़दम पीछे हटेगा। बहुसंख्यकवाद को सीमाओं के पार से पोषण मिलता रहता है और वह सूखता दीखने के बाद भी फिर से पनप सकता है।
बहुसंख्यकवाद क्या है लेकिन? इसका जनतंत्र से, विशेषकर किसी भी प्रकार की संसदीय जनतांत्रिक पद्धति से क्या रिश्ता है? एक आसान पहचान इस बीमारी की यह है जो किसी भी भौगोलिक प्रदेश में किसी भी एक आधार पर ख़ुद को बहुसंख्यक माननेवाली आबादी या समुदाय उस प्रदेश पर अपना पहला अधिकार माने। साथ ही वह ख़ुद को वहाँ के मूल निवासी का विशेषाधिकार ख़ुद ही प्रदान कर दे। इसके साथ ही उस समुदाय विशेष को हमेशा ‘बाद में’ आने वालों से यह शिकायत बनी रहे कि वे उसे दूषित और भ्रष्ट कर रहे हैं। उस आबादी में ब्रह्मांड की सर्वश्रेष्ठ आबादी होने का अहसास और घमंड भी होना चाहिए। उसे ईश्वर ने या ख़ुदा ने चुनकर उस रूप में सिरजा है और इसलिए उसे दूसरों के मुक़ाबले अधिक अधिकार मिलने चाहिए। उससे प्रतियोगिता करने की हिमाक़त दूसरों को नहीं करनी चाहिए।
बहुसंख्यकवाद और जनतंत्र
बहुसंख्यकवाद के लिए चुनाव आधारित जनतंत्र काफ़ी सुविधाजनक है। क्योंकि इसमें वह ख़ुद को वैध या जायज़ बहुमत बनाकर जनतांत्रिक बाना ले लेता है। बहुसंख्यकवादी बहुमत के स्थिर हो जाने का ख़तरा रहता है क्योंकि वह एक स्थायी बहुमत और स्थायी अल्पमत का निर्माण कर सकता है। बहुसंख्यकवादी राजनीति की एक शर्त यह है कि शेष आबादियाँ कोई राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा न पालें। कोई तमिल हिन्दू श्रीलंका का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनने का सपना न देखे, उसी तरह जैसे कोई मुसलमान भारत के किसी राज्य में मुख्यमंत्री पद या प्रधानमंत्री के ओहदे का सपना न देखे। ऐसा विचार एक साज़िश माना जाता है, जुर्म तक।
आपको याद होगा कि गुजरात विधान सभा के पिछले चुनाव में कांग्रेस पार्टी पर यह आरोप लगाया गया कि वह अहमद पटेल को मुख्यमंत्री बनाने की साज़िश कर रही है। किसी ने यह न पूछा कि अहमद पटेल का मुख्यमंत्री का उम्मीदवार होना क्यों अपराध है। वह भारत के नागरिक हैं, गुजराती भी हैं। उन्हें जैसे वोट देने का हक़ है वैसे ही मुख्यमंत्री बनने का भी।
चूँकि वहाँ सवाल नहीं किया गया, असम में यही आरोप बदरूद्दीन अजमल को लेकर लगाया गया। अजमल एक वैध राजनीतिक दल के नेता हैं, सांसद हैं, असम के निवासी हैं, वहाँ सर्वोच्च पद के उम्मीदवार होने की कल्पना वह क्यों नहीं कर सकते? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के क्रम में बहुसंख्यकवाद समझ में आ जाएगा। अल्पसंख्यक होना संख्या का मामला जितना नहीं, उतना उसके राजनीतिक रूप से दोयम दर्जे से जुड़ा हुआ है।
भारत में किसी विदेशी मूल के व्यक्ति के गृह मंत्री या वित्त मंत्री बनने का सवाल ही नहीं पैदा होता। लेकिन उन्हीं लोगों से जब यह पूछा जाए कि एक प्रीति पटेल या एक ऋषि सुनाक क्योंकर ब्रिटेन के गृह सचिव या चांसलर व एक्सचेकर हो सकते हैं तो वे शायद यह कहें कि हिंदुओं को दुनिया भर में सारे अधिकार होने चाहिए क्योंकि आख़िर वे हिंदू हैं। उनसे दूसरे कैसे प्रतियोगिता कर सकते हैं?
बहुसंख्यकवाद राजनीतिक और सांस्कृतिक, दोनों ही क्षेत्रों में वर्चस्व चाहता है। यह देश के भीतर लघु बहुसंख्यकवादों के रहने से और पुष्ट होता है। जिस समय हम यह चर्चा कर रहे हैं, मेघालय में ग़ैर खासी लोगों के ख़िलाफ़ विद्वेष का प्रचार चल रहा है। वह असम में चरम पर है। कवि निलिम कुमार को इस अहोम बहुसंख्यकवाद की हिंसा झेलनी पड़ रही है। बांग्ला भाषियों को भी। यह नहीं कहा जा सकता कि बाक़ी आबादियाँ अपने विशेष श्रेष्ठतावाद की भावना से ख़ाली हैं। बहुसंख्यकवाद हमेशा ख़ुद को शिकार के रूप में चित्रित करता है जिसके साथ ऐतिहासिक रूप से अन्याय होता रहा है और अब वह उसकी जगह न्यायपूर्ण समानता स्थापित कर रहा है।
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