बहुसंख्यकवाद पर अंतरराष्ट्रीय बहस की ज़रूरत है। यह हमारे नौजवान दोस्त अलीशान जाफरी का कहना है। हमारे बीच इस बात को लेकर लंबे अरसे से चर्चा चल रही है। लेकिन शायद अब वक़्त आ गया है कि इसे किसी एक ख़ास मुल्क या मज़हब या समुदाय को लगनेवाली बीमारी न मानकर वैसे ही महामारी माना जाए जैसे हम कोरोना वायरस के संक्रमण को मानते हैं। दोनों में बड़ा फ़र्क़ यह है कि कोरोना वायरस को इंसान ने पैदा नहीं किया जबकि बहुसंख्यकवाद ख़ास इंसानी ईजाद है।
अब वक़्त आ गया कि बहुसंख्यकवाद को कोरोना वायरस जैसी महामारी माना जाए
- वक़्त-बेवक़्त
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- 20 Jul, 2020

बहुसंख्यकवाद इस तरह भारत हो या पाकिस्तान, श्रीलंका हो या चीन, रूस हो या हंगरी, हर जगह मौजूद है। इसलिए भले ही प्रत्येक राष्ट्र में इसके विरुद्ध संघर्ष अलग ही होगा, उसका सफल होना इस बात पर निर्भर है कि विश्व स्तर पर इसकी अपील कितनी कमज़ोर होती है। इसे पोलियो के ख़ात्मे के अभियान की तरह देखें। अगर एक भी पोलियो निरोधी टीके से बचा रह गया तो पोलियो बचा ही रहेगा।
अभी हाल में पोलैंड में एक बहुसंख्यकवादी राजनीतिक दल की जीत हुई है। शासक दल लॉ एंड जस्टिस पार्टी ने आंद्रे दुदा के नेतृत्व में जीत हासिल की। दुदा का चुनाव प्रचार कट्टर राष्ट्रवादी नारों के साथ लड़ा गया। उनके पक्ष में भी वहाँ के मुख्यधारा के मीडिया ने विपक्ष पर यह कहकर हमला किया कि वह बाहरी ताक़तों से मिला हुआ है और जीत जाने पर यहूदियों को मज़बूत करेगा। दुदा ने अपने समाज की रूढ़िवादी धारणाओं को सहलाते हुए समलैंगिकों, आदि के ख़िलाफ़ घृणा प्रचार किया। विपक्ष ने कड़ा मुक़ाबला किया लेकिन तक़रीबन 1% मत अधिक आने के कारण दुदा की जीत हुई।