किसी हत्या की भर्त्सना करने में अगर ज़बान अटकने लगे, तब हमें अपने बारे में सोचना चाहिए। बेहतर यह हो कि भर्त्सना का मौक़ा ही न आए लेकिन ऐसा होता नहीं है। जो आस्तिक हैं, वे आस्तिक होने के बावजूद ‘उसका’ काम अपने हाथ में ले लेते हैं। ऐसा नहीं है कि नास्तिक हत्या नहीं करते लेकिन आस्तिकों को तो कम से कम ‘उसके’ काम में दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए अगर उसके इकबाल पर उन्हें सचमुच यकीन है।